चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय ने जब अपने संपादकीय में लिखा, ‘सरकारें शहीदों की तौहीन कर रही हैं’ (16 से 22 जनवरी 2017) तो मुझे लगा कि मुझे भी इस विषय पर काम करना चाहिए. 1857 में तिरहुत से बग़ावत के आरोप में फांसी की सज़ा पाने वाले पहले शख्स थे वारिस अली. वह तिरहुत में अंग्रेज़ों के खिला़फ विरोध का प्रतीक बनकर उभरे.
इस लिहाज़ से वारिस अली की शहादत को याद करना उन तमाम लोगों को याद करना है, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में और विशेष रूप से 1857 के संघर्ष में कुर्बानियां दीं, फांसी चढ़े, काला पानी भेजे गए और संपत्तियों से वंचित किये गये. अब तक की हमारी जानकारी के अनुसार ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या 48 है, जिन्होंने तिरहुत में 1857 और 1858 में कुर्बानियां दी थी.
वारिस अली दिल्ली के रहने वाले थे. मुग़ल बादशाह से भी उनकी नज़दीकी थी. वे कंपनी की पुलिस में 10 वर्षों से मुलाज़िम थे और मुजफ़्फरपुर शहर से 25 किलोमीटर दूर, बरूराज चौकी में जमादार के पद पर कार्यरत थे. उपलब्ध काग़ज़ों से यह भी ज्ञात होता है कि तरक्की पाकर वे जल्द ही किसी थाने में दरोगा बनने वाले थे. लेकिन 22 जून 1857 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 6 जुलाई 1857 को विद्रोह के आरोप में फांसी दे दी गई.
तिरहुत के मजिस्ट्रेट एच रिचर्डसन को वारिस अली पर बहुत दिनों से संदेह था कि वह अपराधियों और बाग़ियों से मिले हुये थे. नील की कोठी वाले अंग्रेज़ भी वारिस अली से नाराज़ थे और बहुत दिनों से उनकी मुखबिरी की जा रही थी. वारिस अली पर यह आरोप था कि 1857 में मुजफ्फरपुर जेल तोड़ने की घटना और कैदियों की बगावत में उनका हाथ था. उन्होंने पुलिस की नौकरी में रहकर निलहों की मर्जी का काम नहीं किया और उनकी नाराज़गी मोल ली.
1855 में एक तरफ जहां संथालों ने शोषण और अत्याचार के ख़िला़फ विद्रोह का झंडा बुलंद किया था, वहीं शाहाबाद और मुज़फ्फरपुर की जेलों में 14 मई को क़ैदी लड़ने के लिए उठ खड़े हुए. मुजफ्फरपुर में जब कैदियों से धातु का लोटा और बर्तन छीनकर उन्हें मिट्टी का बर्तन पकड़ाया गया तो वे नाराज़ हो गये. मिट्टी का बर्तन एक बार शौच के लिए इस्तेमाल हो जाए तो अपवित्र माना जाता है. अंग्रेज़ ये बात समझने को तैयार नहीं थे. उनको डर था कि धातु के लोटे और बर्तन को गलाकर हथियार और जेल तोड़ने का सामान बनाया जा सकता है.
मजिस्ट्रेट ने डरकर गोली चलवाई तो बात और बढ़ गई. जेल के कै़दी अधिकतर गांव के किसान थे. जेल के पास अफीम वालों का एक गोदाम था, जहां 12 हज़ार किसान अपने-अपने काम से आए हुए थे. जेल में हो रही कार्यवाही की ख़बर फैली, तो वे तमाम किसान जेल की ओर दौड़े. उनके आने से कैदियों का हौसला भी बढ़ गया. हालांकि इस पूरे दंगे में कैदी और किसानों का बड़ा नुकसान हुआ, लेकिन आग अन्दर ही अन्दर सुलगती रही.
तीतू मीर 24 परगना का एक नेता था, जो जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखते ही वहाबियों के पदचिन्हों पर चलने लगा था. उसने 24 परगना के क्षेत्र में किसानों और दस्तकारों पर होने वाले अत्याचारों के विरूद्ध संघर्ष किया. 1831 में जब उसने बग़ावत का झंडा बुलंद किया, तो उसके पैरोकारों की संख्या 15 हज़ार तक पहुंच गई. इन लोगों ने 24 परगना में बांस का एक क़िला बनाया और 24 परगना, नादिया, फरीदपुर आदि पर आधारित अपनी स्वतंत्र सरकार की घोषणा की.
लेकिन वह 24 जनवरी 1831 को अंग्रेज़ी सेना के हमले को सहन नहीं कर सका. तीतू मीर और उसके साथियों को निर्दयता से क़त्ल किया गया और जो बच गए, उनमें से उसके भतीजे को तथाकथित अदालती कार्रवाई के द्वारा फांसी की सज़ा दी गई, वहीं उसके 350 साथियों को काला पानी भेज दिया गया. तीतू मीर के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर बंगाली भाषा की प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने उन पर एक उपन्यास लिखा और उन पर कई ड्रामे भी होते रहे हैं. इसी प्रकार फरायज़ी आन्दोलन को हाजी शरियतुल्लाह ने 1837 में शुरू किया था, जिसका मक़सद किसानों को ज़मींदारों और यूरोपीयों के जुल्म से निजात दिलाना था.
इस आन्दोलन का ढाका, फरीदपुर, बरीसाल, मेमन सिंह और कमीला के क्षेत्रों में बड़ा ज़ोर था. जमींदारों ने अंग्रेज़ों से मिलकर इस आन्दोलन को कुचलने की बहुत कोशिश की. इसी सिलसिले में उन्होंने 1837 में यह बात भी फैलाई कि शरियतुल्लाह अपनी हुकूमत क़ायम करना चाहता है. उन्होंने इस आन्दोलन को लेकर लोगों को झूठे मुक़दमों में फंसाना शुरू किया. खुद शरियतुल्लाह को किसानों को भड़काने के आरोप में कई बार गिरफ्तार किया गया. शरियतुल्लाह की मौत के बाद उनके बेटे मोहसिनुद्दीन अहमद (दादू मियां) ने कमान संभाली. किसानों के अधिकारों की लड़ाई के कारण वह इतने लोकप्रिय हो गये थे कि अदालत में उनके खिला़फ अंग्रेज़ों को कोई गवाह भी नहीं मिल पाता था.
पागलपंथी आन्दोलन (1730-40) हो या तीतू मीर का आन्दोेलन, या फिर फरायज़ी आन्दोलन (1837-67), ये सब मूल रूप से दस्तकारों, छोटे किसानों और खेत मज़दूरों पर होने वाले ज़ुल्म के खिला़फ चलाये गये थे. वहाबियों ने इसका फायदा उठाकर किसानों और खेत मज़दूरों के बीच अपनी बुनियाद मज़बूत कर ली थी. इसी सिलसिले में ज़मींदारों और यूरोपियों से उनका बार-बार टकराव हुआ.
1831 में, बंगाल में विरोध के एक नेता तीतू मीर और उनके साथियों को निर्दयता से मार दिया गया था, लेकिन आग बुझी नहीं थी और उसकी आंच बिहार में भी पहुंच रही थी, जो बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था. अली करीम हों या वारिस अली सब कहीं न कहीं इससे जुड़े हुए नज़र आते हैं. इसलिए वारिस अली को याद करना इस पूरे इतिहास को याद करना है.
वारिस अली की गिरफ्तारी के बाद जुल्म-ओ-सितम का एक लंबा सिलसिला चल पड़ा. अब तक हमारी तलाश में 48 लोगों का पता चला है, जिनको 15 अप्रैल 1858 तक तिरहुत में विभिन्न सज़ाएं दी गई है. ज़ाहिर है सरकारी सूची अभी इससे बहुत छोटी है, लेकिन उम्मीद है कि एक न एक दिन हमारी कोशिशें काम आएंगी और न केवल इन लोगों को बल्कि जिनके नाम पर्दे में हैं, उनको भी उनका सम्मानजनक मुक़ाम मिलेगा.
तिरहुत में अ्रग्रेजों द्वारा दंडित हुए 48 स्वतंत्रता सेनानी
सज़ा पाने वालों के नाम आरोपों का विवरण सज़ा सुनाए जाने की तारीख़ सज़ा
1 मीर वारिस अली, पुलिस जमादार, विद्रोही पत्र लिखना, 6 जुलाई 1857 फांसी
बरूराज चौकी, तिरहुत क्षेत्र फरार होने की कोशिश
2 छोटू उर्फ झगरू, मौजा मधुरापुर, विद्रोह 8 जुलाई 1857 ’’
परगना लरोहा, तिरहुत क्षेत्र(9वां रेजीमेंट)
3 बेलनाम मिस्र, मोहल्ला खुरदा, ’’ ’’ कालापानी
परगना गोराह, जिला लखनऊ (9वां रेजीमेंट)
4 शिवनारायण मिस्र, मोहल्ला बलरामपुर, ’’ ’’ ’’
परगना खास, लखनऊ (23वां रेजीमेंट)
5 लक्षमण प्रसाद, मोहल्ला बिसोंड, ’’ 9 जुलाई 1857 फांसी
परगना बलरा, जिला गाजीपुर
6 दीनू सिंह, मोहल्ला माधोपुर, परगना ’’ ’’ ’’
मोहम्मदाबाद, जिला फर्रूखाबाद
7 मोन सिंह, मोहल्ला रस्तूरन, परगना देवरिया ’’ ’’ ’’
घुलार, जिला लखनऊ
8 रामधन, भावलपुर, जिला इलाहाबाद ’’ 14 जुलाई 1857 ’’
9 गन्नू सिंह, मोहल्ला बोरनी, परगना
बेलूनजा, ज़िला छपरा ’’ ’’ ’’
10 इसरी सिंह, दाऊद पट्टी, परगना व
जिला छपरा ’’ 30 जुलाई 1857 ’’
11 शंकरलाल, शहर पुलिस स्वार, मुजफ्फरपुर ’’ 24 अगस्त 1857 कालापानी,
संपत्ति की जब्ती
12 कल्लन खां, शहर पुलिस स्वार, मुजफ्फरपुर ’’ ’’ ’’
13 वज़ीर अली, शहर पुलिस स्वार, मुजफ्फरपुर ’’ ’’ ’’
14 गुरदयाल सिंह, बर्कअंदाज़ ’’ ’’ ’’
15 रामदीद साही, निवासी बड़ा गांव,
परगना बैहूरा, ज़िला तिरहुत विद्रोही भाषा का प्रयोग, लूट 18 सितंबर 1857 कालापानी संपत्ति की जब्ती
16 कुदाई साही, परगना बेहूरा, ज़िला तिरहुत ’’ ’’ ’’
17 छिद्दू साही, ’’ ’’ ’’ ’’
18 किशना साही, ’’ ’’ ’’ ’’
19 तिलक तिवारी, ’’ ’’ ’’ 7 वर्ष सश्रम कारावास
20 शिवटहल डरोमी, ’’ ’’ ’’ ’’
21 नत्थूल साही, ’’ ’’ ’’ 14 वर्ष सश्रम कारावास
22 छोटू साही, ’’ ’’ ’’ ’’
23 हंसराज साही, ’’ ’’ ’’ ’’
24 सोबा साही, ’’ ’’ ’’ ’’
25 बैजनाथ तिवारी, ’’ ’’ ’’ ’’
26 तिलक साही, ’’ ’’ ’’ ’’
27 पंदीव साही, ’’ ’’ ’’ ’’
28 चतुरधारी साही, ’’ ’’ 19 दिसंबर 1857 ’’
29 दर्शन साही, ’’ ’’ ’’ कालापानी, संपत्ति की जब्ती
30 रोशन साही, ’’ ’’ 4 मार्च 1858
31 शेख़ कुरबान अली, निवास, अज्ञात विद्रोही भाषा का प्रयोग 17 अगस्त 1857 3 वर्ष कैद
32 रामटहल, निवासी शर्फ नगर, परगना तुरयानी, जिला तिरहुत विद्रोही भाषा का प्रयोग,
डकैती, हिंसा ’’ 5 वर्ष कैद, संपत्ति की जब्ती
33 भागीरथ, निवासी धर्मपुर, परगना तुरयानी,
जिला तिरहुत ’’ ’’ ’’
34 रामधोनी, ’’ ’’ ’’ ’’
35 दीनगोपाल, निवासी पोदटासिरका, परगना
तुरयानी, ज़िला तिरहुत ’’ ’’ ’’
36 तूफानी, ’’ ’’ ’’ ’’
37 रंजीत, ’’ ’’ ’’ ’’
38 भगीरथ, ’’ ’’ ’’ ’’
39 संतोखी, ’’ ’’ ’’ ’’
40 घासी ख़ां, पुत्र शम्शू खां, पूर्व स्वार शहर पुलिस विद्रोह 24 अगस्त 1857 कालापानी, संपत्ति की जब्ती
41 ख़ैराती खां, निवासी मोहल्ला सोलनगंज, जिला छपरा ’’ ’’ ’’
42 केलभ सिंह, दफादार, बिहार स्टेशन अज्ञात अज्ञात संपत्ति के कुछ हिस्से की जब्ती
43 शिवचरन सिंह, नजीब, ’’ ’’ ’’ ’’
44 मीर हैदर अली नजीब, ’’ ’’ ’’ ’’
45 दर्शन सिंह, ’’ ’’ ’’ ’’
46 भकारी, ’’ ’’ ’’ ’’
47 नूमकुमार सिंह, ’’ ’’ ’’ कालापानी, सश्रम कारावास
48 झूमलाल सिंह, मोहल्ला अंघरा, परगना अनरवा
(नजीब, बिहार स्टेशन नम्बर- 4) विद्रोह 15 मार्च 1858 कालापानी