जिस मीडियाई सभा में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि कौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय किसी भी कीमत पर नहीं होगा, उसी सभा में सपा के वरिष्ठ नेता व अखिलेश के चाचा शिवपाल यादव ने कहा कि कौमी एकता दल का सपा में विलय जरूर होगा. इसे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव तय कर चुके हैं और उनका निर्णय सबों को मानना ही पड़ेगा. शिवपाल साथ-साथ यह भी कह गए कि अखिलेश समय के साथ परिपक्व होंगे. अब सपा में आरपार का समय आ गया दिखता है. जल्दी ही तय होगा कि सपा का मुख्तार कौन है.
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पिछले दिनों साफ-साफ कहा कि मुख्तार अंसारी किसी भी स्थिति में सपा का हिस्सा नहीं बनेंगे. अगले ही दिन शिवपाल ने उसी मीडिया प्रतिनिधि के सामने उसी मीडियाई मंच से कहा कि कौमी एकता दल का जल्द ही सपा में विलय होगा. शिवपाल बोले कि कौमी एकता दल मुख्तार अंसारी की पार्टी नहीं है, बल्कि उसके अध्यक्ष अफजाल अंसारी हैं. शिवपाल ने कहा कि नेताजी मुलायम सिंह यादव कौमी एकता दल के सपा में विलय का फैसला ले चुके हैं, बस उसकी औपचारिक घोषणा होनी बाकी है. इसके बारे में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी बता दिया गया है. आपको याद ही होगा कि कौमी एकता दल के सपा में विलय को लेकर पार्टी निर्णय ले चुकी थी और राष्ट्रीय अध्यक्ष की तरफ से शिवपाल यादव ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला कर विलय की घोषणा भी कर दी थी. लेकिन अखिलेश का कड़ा विरोध देखते हुए समाजवादी पार्टी ने फैसला लम्बित रख दिया था. बताया गया था कि संसदीय बोर्ड ने विलय का फैसला रद्द कर दिया है. लेकिन सच्चाई यही है कि विलय के फैसले को तात्कालिक तौर पर लम्बित रखा गया था.
इसके बाद शिवपाल के इस्तीफे की पेशकश और मुलायम द्वारा मुख्यमंत्री अखिलेश और उनकी सरकार पर करारे प्रहार के बाद अखिलेश रास्ते पर आए और सिलसिलेवार वार्ता के बाद उन्हें विलय के मसले पर मनाया जा सका. हालांकि पार्टी के कुछ नेता कहते हैं कि अखिलेश विलय नहीं मानेंगे, चाहे पार्टी दो भाग में बंट क्यों न जाए. विलय पर शिवपाल के स्पष्ट बयान के बाद कौमी एकता दल के अध्यक्ष अफजाल अंसारी ने भी कहा कि सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव से उनकी बात हुई है और जल्दी ही विलय या गठबंधन के बारे में वे फैसला कर लेंगे. कौमी एकता दल के सपा में विलय के पक्षधर सपा नेताओं का कहना है कि कौमी एकता दल का पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं पर खासा प्रभाव है. लेकिन जमीनी असलियत यही है कि कौमी एकता दल के मात्र दो विधायक हैं, जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, मऊ, बलिया और गाजीपुर में 38 में से 32 सीटों पर इस वक्त समाजवादी पार्टी का कब्जा है. तीन सीटों पर बसपा और एक पर भाजपा का कब्जा है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस बार पूर्वांचल के इन जिलों की ज्यादातर सीटों पर सपा की स्थिति अच्छी नहीं है, इसीलिए वह कौमी एकता दल जैसी पार्टियों को अपने साथ लेकर लड़ना चाहती है.
जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आता जा रहा है, वैसे-वैसे नैतिकता की बातें भी दूर होती जा रही हैं. सारे चुनावों में ऐसा ही होता है. राजनीतिक दल जोड़-तोड़ में सारे सिद्धांत ताक पर रख देते हैं. तालमेल, गठबंधन और टिकट बंटवारे में फिर वही सारी चोंचलेबाजियां होगी, जो पिछले चुनावों में होती आई हैं. फिर थैलीशाहों, दलालों और अपराधियों को टिकट दिए जाएंगे. उसकी पृष्ठभूमि तैयार हो रही है. मुख्तार अंसारी के लिए सपा पृष्ठभूमि तैयार कर रही है तो धनंजय सिंह के लिए बसपा जमीन तैयार कर रही है. ऐसा ही हाल अन्य दलों का भी है. जो कुख्यात माफिया किसी पार्टी के साथ नहीं हैं, वे भी खुद या अपनी पत्नी को चुनाव लड़ाने की तैयारी कर रहे हैं. कई कुख्यात माफिया सरगना जेल से ही चुनाव की बागडोर संभालेंगे. वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में जौनपुर भी माफियाओं का खास आखेट स्थल बनने वाला है. कई नामी माफियाओं के जौनपुर की विभिन्न विधानसभा सीटों से चुनावी मैदान में उतरने की चर्चा है. जेल में बंद माफिया सरगना बृजेश सिंह अपनी पत्नी अन्नपूर्णा सिंह को जौनपुर की जफराबाद सीट से भाजपा के टिकट से चुनाव लड़ाने की जुगत में लगे हुए हैं. माफिया सरगना मुख्तार अंसारी भी जौनपुर की सदर विधानसभा सीट पर नजर गड़ाए हैं. संभावना है कि मुख्तार सपा के टिकट से वहां से चुनाव लड़ें. मुख्तार अंसारी अपनी पुरानी सीट मऊ को अपने बेटे अब्बास अंसारी के लिए छोड़ना चाहते हैं. उन्हें एक सुरक्षित मुस्लिम बहुल सीट की तलाश थी, जो उन्हें जौनपुर के सदर विधानसभा सीट में दिख रही है. सदर सीट पर अभी कांग्रेस के नदीम जावेद विधायक हैं. जानकार कहते हैं कि इलाहाबाद के पूर्व सांसद माफिया सरगना अतीक अहमद भी जौनपुर में ही चुनावी खम ठोकने की तैयारी कर रहे हैं. अतीक अहमद इलाहाबाद से अपनी पुरानी सीट पर अपने भाई अशरफ को लड़ाना चाहते हैं और खुद किसी और सीट की तलाश में हैं. उनका इरादा इलाहाबाद की फूलपुर सीट से चुनाव लड़ने का था, लेकिन वहां सपा का विधायक होने की वजह से बात नहीं बन रही है. अतीक की भी चली तो वे सपा के टिकट से चुनाव लड़ेंगे. माफिया डॉन मुन्ना बजरंगी की पत्नी सीमा सिंह को मड़ियाहूं से बसपा ने पहले ही अपना प्रत्याशी घोषित कर रखा है. मुन्ना बजरंगी के साले पुष्पजीत सिंह की कुछ ही दिनों पहले लखनऊ में हत्या कर दी गई थी. पुष्पजीत सिंह ही अपनी बहन सीमा सिंह की जौनपुर से चुनाव लड़ने की सारी तैयारियां देख रहे थे. पूर्व सांसद और चर्चित माफिया सरगना धनंजय सिंह खुद जौनपुर की मल्हनी सीट से बसपा के टिकट से चुनाव लड़ने जा रहे हैं. बसपा धनंजय सिंह और मुन्ना बजरंगी की पत्नी को टिकट दे कर ठाकुर मतों को प्रभावित कर रही है. बसपा नेता मायावती की इलाहाबाद रैली में मंच पर धनंजय सिंह की मौजूदगी ने भी ठोस संकेत दिए. मायावती की मौजूदगी में ही धनंजय सिंह का स्वागत भी हुआ और उनके फिर से बसपा में शामिल होने का ऐलान भी मंच पर ही किया गया. मंच संचालक इंद्रजीत सिंह सरोज जब यह ऐलान कर रहे थे, उस दौरान मायावती भी मंच पर मौजूद थीं. बिना मायावती की सहमति के बसपा में ऐसी घोषणा हो ही नहीं सकती. पूर्वांचल और खास कर जौनपुर में धनंजय सिंह की सवर्ण व राजपूत मतदाताओं पर अच्छी पकड़ है, इसे देखते हुए मायावती ने धनंजय सिंह को अपने साथ शामिल किया है. बसपा से निष्कासित होने के बावजूद धनंजय सिंह ने किसी दूसरी पार्टी की तरफ रुख नहीं किया और बसपा के टिकट पर ही चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर की थी. आखिरकार मायावती ने उस पर अपनी मुहर लगा दी. वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने धनंजय सिंह और उनकी पत्नी जागृति सिंह को टिकट नहीं दिया था. धनंजय की पत्नी ने मल्हनी विधानसभा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा था. 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बसपा ने धनंजय को टिकट नहीं दिया. धनंजय निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में जौनपुर से चुनाव लड़े, लेकिन हार गए थे.
ऐसे समय में जब स्वामी प्रसाद मौर्य, आरके चौधरी और बृजेश पाठक जैसे नेता पार्टी छोड़ गए और भाजपा नेता दयाशंकर सिंह प्रकरण की वजह से बसपा को राजपूतों की नाराजगी झेलने पड़ी, धनंजय सिंह को साथ लेकर बसपा ने पूर्वांचल के राजपूतों को मरहम लगाने का काम किया है. राजनीतिक समीक्षक भी यह मानते हैं कि जहां दबंगों और माफियाओं को चुनाव लड़ाने की सारी पार्टियों में होड़ चल रही है, अगर बसपा ने भी धनंजय सिंह, उनकी पत्नी जागृति सिंह और मुन्ना बजरंगी की पत्नी सीमा सिंह को टिकट दे दिया तो राजपूत मतदाताओं का बड़ा हिस्सा बसपा के साथ निश्चित तौर पर जुड़ जाएगा. इसे भांपते हुए ही सपा नेता व राज्यसभा सांसद अमर सिंह ने कहना शुरू कर दिया कि मुलायम परिवार पर ठाकुर बहुओं का कब्ज़ा है. अमर सिंह के इस बयान को प्रदेश की राजनीति में राजपूत वोट बैंक को साधने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है. कानपुर की एक सभा में अमर सिंह ने मुलायम परिवार की बहुओं के राजपूत होने की बात कहते हुए खुद के भी राजपूत होने की बात कही थी. इसी समुदाय का रुख देखते हुए भाजपा भी बृजेश की पत्नी अन्नपूर्णा को टिकट देने पर विचार कर रही है. उल्लेखनीय है कि माफिया सरगना बृजेश सिंह ने हाल ही विधान परिषद चुनाव में जीत दर्ज की. बृजेश जेल से ही निर्दलीय प्रत्याशी के बतौर चुनाव लड़े और 1984 मतों से जीत गए. उन्होंने समाजवादी पार्टी की प्रत्याशी मीना सिंह को हराया. राजनीतिक गलियारे के धुरंधरों का कहना है कि भाजपा ने बृजेश सिंह को परोक्ष समर्थन दिया था और अपना प्रत्याशी नहीं उतारा था. वाराणसी के एमएलसी सीट पर पिछले लगभग डेढ़ दशक से बृजेश सिंह के परिवार का कब्जा रहा है. बृजेश के बड़े भाई उदयनाथ सिंह उर्फ चुलबुल सिंह दो बार और बृजेश की पत्नी अन्नपूर्णा सिंह भी एक बार एमएलसी रह चुकी हैं.
इस बार भी चुनाव में रहेगा माफियाओं का बोलबाला
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपराधियों-माफियाओं का बोलबाला रहा है. 2012 के विधानसभा चुनाव में जो विधायक जीत कर आए, उनमें से अधिकांश को पार्टियां फिर से टिकट देंगी, क्योंकि जीती हुई सीटों पर जीते हुए विधायकों का ही दावा है. पार्टियों का सिद्धांत भी यही है कि सिटिंग विधायकों को प्राथमिकता के आधार पर टिकट दिया जाएगा. फिर पार्टियों के नेता यह कैसे कहते हैं कि उनकी पार्टी अपराधियों को टिकट नहीं देगी? उत्तर प्रदेश विधानसभा के 403 विधायकों में से 47 प्रतिशत विधायकों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं. यह आधिकारिक तथ्यों पर आधारित आंकड़ा है. इन्हीं आधिकारिक तथ्यों का एक अहम हिस्सा यह है कि यूपी के 67 प्रतिशत विधायक करोड़पति हैं. 224 विधायकों में से 111 दागी विधायकों के साथ सपा सबसे पहले नम्बर पर है. भाजपा में 25 दागी विधायक, बसपा में 29 और कांग्रेस में 13 दागी विधायक हैं. वर्ष 2007 में 403 विधानसभा सदस्यों में से 140 पर यानी 35 प्रतिशत के खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज थे. वर्ष 2012 में यह संख्या काफी बढ़ गई. 2017 में इसके और बढ़ने की आशंका है. मौजूदा विधानसभा के 403 विधायकों में से 189 विधायक दागी हैं. इनमें से 98 (24 फीसदी) विधायकों पर हत्या अपहरण और बलात्कार जैसे गंभीर अपराध के मामले दर्ज हैं. सपा के मित्रसेन यादव पर तो हत्या के तीन दर्जन मामले थे. हालांकि अब वे दिवंगत हो चुके हैं.
राजनीति में अपराधियों को टिकट देने की शुरुआत कांग्रेस ने की थी. 1977 में इमरजेंसी के समय संजय गांधी ने अपराधियों को टिकट दिया. उसके बाद बाहुबलियों का चुनाव लड़ना और जीत कर लोकसभा व विधानसभा में पहुंचना चलन बन गया. उत्तर प्रदेश में तो इससे अपराधमय राजनीति का वर्चस्व कायम हो गया. सपा हो या बसपा, भाजपा हो या कांग्रेस, आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को सबने मान दिया. चुनाव सुधारों की तमाम कवायदों और तकरीरों के बावजूद अपराधियों को चुनाव मैदान से बाहर रख पाने में हमारा सिस्टम फेल साबित हो चुका है. बिहार सीमा से सटे पूर्वी उत्तर प्रदेश के सैयदराजा से लेकर दिल्ली की सीमा से सटे गाजियाबाद तक हत्या, अपहरण, फिरौती के साथ-साथ आम आदमी के खिलाफ बड़े-बड़े अपराधों में शामिल अपराधी विधायक बनते या बनवाते रहे हैं. पूर्वांचल में हरिशंकर तिवारी से लेकर मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, बृजेश सिंह, मुन्ना बजरंगी, धनंजय सिंह और पश्चिमांचल में महेंद्र सिंह भाटी से लेकर डीपी यादव जैसे परस्पर विरोधी आपराधिक विरासत की परंपरा उत्तर प्रदेश की राजनीति में स्थापित होती चली गई. राजनीतिक पार्टियों ने अपने फायदे के लिए माफियाओं का इस्तेमाल किया और बाद में माफियाओं ने अपने फायदे के लिए राजनीतिक पार्टियों का इस्तेमाल शुरू कर दिया. अब दोनों आपस में इतने घुलमिल चुके हैं कि पहचानना मुश्किल हो गया है कि कौन नेता है और कौन माफिया…