राजेश जोशी एक युवा और मेधावी पत्रकार हैं । उन्होंने ‘सत्य हिंदी’ में मुकेश कुमार के एक कार्यक्रम में कहा – केजरीवाल ‘ऑपरचुनिज्म’ और ‘प्रैगमैटिज्म’ का अपनी राजनीति में बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल कर रहे हैं । उनकी बात सुन कर लगा वे केजरीवाल को गहराई से परख रहे हैं । तमाम लोग अलग अलग मंचों और सोशल मीडिया की चर्चाओं में केजरीवाल को अलग अलग तरीकों से उनके व्यक्तित्व और कार्यप्रणाली को इन दिनों व्याख्यायित कर रहे हैं । इसी कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने केजरीवाल के बारे में जो कुछ और जैसा कहा वह आश्चर्यजनक था । क्योंकि यही गर्ग साहब पहले केजरीवाल के लिए काफी सकारात्मक भी कह चुके हैं । खैर ।
सवाल यह है कि केजरीवाल को समझा कौन है । कहा जा रहा है कि केजरीवाल कांग्रेस की जगह ले रहे हैं । कहा यह भी जा रहा है कि ‘आप’ विचारधाराहीन पार्टी है । यानी केजरीवाल की कोई विचारधारा नहीं है। सच है कि केजरीवाल की कोई विचारधारा नहीं दिखती । याद कीजिए कि जब दस साल पहले ये लोग राजनीति में आये थे तो इन्होंने क्या कहा था कि हम राजनीति बदलने आये हैं । जो व्यक्ति इस दावे के साथ राजनीति में प्रवेश करता है क्या उसके लिए जरूरी है कि उसे परम्परागत दलों की तरह बताना चाहिए कि हमारी विचारधारा और सोच यह यह है । अन्ना आंदोलन से पहले केजरीवाल एक एनजीओ (परिवर्तन) की भांति दिल्ली में सामाजिक कार्यों में जुटे थे । यदि अपनी बात कहना अतिरेक न हो तो कहना चाहूंगा कि उन्हीं दिनों मैं भी वर्धा में ठीक उसी तरह के कार्यों में जुटा था ।तब मैंने अपने कार्यों का पुलिंदा केजरीवाल को डाक से भेजा था और तीन दिन बाद ही उनका फोन मुझे आया था जिसमें उन्होंने मेरे कार्यों की बेहद तारीफ करते हुए मुझे दिल्ली बुलाया था । इसलिए मैं केजरीवाल के व्यक्तित्व के उस पहलू को भी समझ सकता हूं जिसमें उन्होंने एक एक कर सारे दिग्गजों को आम आदमी पार्टी से बेदखल कर दिया था । बस यह समझिए कि वह क्रूरता मैं नहीं दिखा सकता था जो केजरीवाल ने योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण और आनंद कुमार के साथ दिखाई । जब आप समाज में आमूलचूल परिवर्तन लाना चाहें तो बहुत या जरूरत से ज्यादा लोकतांत्रिक और आदर्शवादी होना किसी बेवकूफी से कम नहीं । केजरीवाल ने जो किया वह उनकी फितरत है। उनको अपनी राजनीति में अन्ना हजारे जैसों की जरूरत नहीं , हां वे उनका इस्तेमाल कर सकते हैं जो उन्होंने किया । मुझे नहीं लगता फिलहाल की राजनीति के लिए किसी विचारधारा का बल्लम गाड़ना जरूरी है । पानी का स्वरूप वह होता है जो तूफान के गुजर जाने के बाद बनता है । लोगों का यह कहना कि केजरीवाल ने अन्ना हजारे को धोखा दिया , यह दरअसल उन लोगों की नासमझी है । केजरीवाल ने किसी को धोखा नहीं दिया । केजरीवाल ने अन्ना हजारे का इस्तेमाल किया जो उनके लिए उस वक्त बेहद जरूरी था । यह उनकी रणनीति थी । और यह रणनीति ,बताया जाता है कि मध्यप्रदेश के जंगलों में पंद्रह दिन अपने साथियों के साथ मीटिंग दर मीटिंग करके बनी थी । अन्ना को या सिविल सोसायटी के लोगों को केजरीवाल की जरूरत हो तो हो पर केजरीवाल को नहीं है । जब थी तब उन्होंने उन सबका इस्तेमाल किया और बखूबी किया। आज केजरीवाल जो कुछ करते दिख रहे हैं यकीन मानिए यही उनकी सोच है , ऐसे में किसी विचारधारा की क्या जरूरत । केजरीवाल का विश्वास कहता है वर्तमान को पकड़ो । उन्हें लगता है बेशर्मी, जरूरत से ज्यादा किसी चीज को बड़ा कर बताना या किसी भी मुद्दे पर ‘यू टर्न’ लेना कोई बुरी बात नहीं । जिन्हें केजरीवाल और उनके तौर तरीके पसंद नहीं या जिन्हें केजरीवाल ने बेइज्जत किया हो या घास न डाली हो वे उन्हें बीजेपी की बी टीम या संघ का आदमी कह देते हैं । यहां एक बात और समझिए कि दिल्ली की सत्ता पर मोदी की नजर तब से रही है जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे । वे तभी से केजरीवाल के सुर्ख रवैये को जानते थे और बताया जाता है कि उन्होंने तब किसी से पूछा भी था कि बाकी सब तो ठीक है यह बताओ कि केजरीवाल इन दिनों क्या कर रहा है । इसका मतलब आप निकाल सकते हैं कि दोनों एक दूसरे की फितरत समझते हैं । पर दोनों में बुनियादी अंतर है मोदी के पास सत्ता को हांकने का तानाशाही तरीका और ऐसी विचारधारा है जिस पर क्रूरता का मुलम्मा चढ़ा है दूसरी ओर केजरीवाल के पास अपना एक विज़न है , साफगोई है, और निजी ईमानदारी है । पर दोनों बेशर्म हैं इसीलिए राजनीति में सफल नहीं बल्कि सफलता से चलते हुए दिख रहे हैं। केजरीवाल पर यह भी आरोप लग रहे हैं कि वे बिलकिस बानो, शाहीन बाग, तीन तलाक़, धारा 370 आदि आदि पर खामोश रहे । ऐसा तो नहीं कि केजरीवाल बच्चे हैं । पर आरोप लगाने वाले यह समझ पाने में चूक रहे हैं कि यह सब उनकी रणनीति का हिस्सा है । उन पर यह भी आरोप है कि वे संघ के आदमी हैं । मेरी नज़र में यह मूर्खतापूर्ण आरोप है । अन्ना आंदोलन में संघ की भूमिका पर प्रशांत भूषण ने बाद में स्वीकारा था कि उस समय किसी को नहीं पता था कि इस आंदोलन के पीछे संघ का हाथ है ।
अब बात कांग्रेस की स्पेस लेने की । तो मान कर चलिए कि कोई किसी की स्पेस नहीं लेता । स्पेस कोई तभी लेता है जब सामने वाला इतना बेदम हो जाए कि उसे यह इल्म ही न रहे कि कोई उसकी स्पेस भी ले सकता है। जाहिर है केजरीवाल की पहली लड़ाई कांग्रेस की सत्ता से थी । इसलिए जब लोग बीजेपी के खिलाफ केजरीवाल को पसंद करेंगे तो कांग्रेस की जगह खुद ब खुद भरेगी ही । केजरीवाल को जिस तरह किसी और की जरूरत नहीं उसी तरह किसी दूसरे विपक्ष की भी जरूरत नहीं । मुझे लगता है कि केजरीवाल की रणनीति से पूरा विपक्ष हलाकान है । पर देश की जनता को इसी तरह का नायक चाहिए और इसीलिए मोदी भी कहीं न कहीं केजरीवाल से हलाकान हैं । मोदी के पास दिखाने को कुछ नहीं पर केजरीवाल ने उसके पुख्ता इंतजाम किए हैं । उन्होंने दिल्ली को माडल बनाया और अब उसे बेच रहे हैं । यही ‘प्रैग्मेटिज़्म’ और ‘ऑपरचुनिज्म’ है । हम कांग्रेस को सामने रख कर केजरीवाल और उनकी पार्टी को कोसते हैं । नहीं सोचते कि कांग्रेस का इतिहास 125 साल पुराना है जबकि आप केवल दस साल पुरानी पार्टी है ।आज की राजनीति का मोदी ने कचूमर निकाल दिया है। आज की राजनीति ‘इंस्टेंट’ हो गयी है । मोदी की शैली का केजरीवाल उसी अंदाज में ‘इंस्टेंट’ जवाब दे रहे हैं । कांग्रेसी मूर्ख कांग्रेस की परिधि और राहुल गांधी के ‘जोकराना’ अंदाज से बाहर ही नहीं निकल पा रहे तो कोई क्या करे । अगर गुजरात और उत्तराखंड कहीं भी आप का सिक्का चल गया तो समझ लीजिए देश का विपक्ष तय हो गया । लोग कहते हैं कि कांग्रेस देश भर में छाई हुई पार्टी है इससे किसी को क्या इंकार होगा लेकिन समय बदल रहा है ।यह भी समझा जाना चाहिए । गांधीवादी कांग्रेसियों की नयी पीढ़ी बदल रही है । खेती बदल रही है, खेती के तौर-तरीके बदल रहे हैं और इस तरह सोच बदल रही है । सोच बदलती है तो नजरिया भी बदलता है । समूचा विपक्ष एकजुट होने या एक मंच पर आने के बजाय अंदरूनी रणनीति बनाए कि हर राज्य अपने राज्य में बीजेपी को रोकने की भरपूर कोशिश करेगा तो आने वाले समय में देश का नक्शा कुछ और ही होगा । विपक्ष यदि आज की वास्तविकता को समझे और केजरीवाल को सकारात्मक तरीके से देखे तो आगे सब स्पष्ट होता दिखेगा । केजरीवाल की कोई विचारधारा न होना ही उनकी विचारधारा है । इसलिए केजरीवाल पर फालतू की चर्चा से बेहतर है कि उन्हें फिलहाल केवल देखा जाए और समय दिया जाए । कांग्रेस अपनी यात्रा से अपनी जनता में साख को कैसे वापस लाएगी यह सौ टके का सवाल है । कांग्रेस को जो फायदा हो सो हो पर हमें नहीं लगता कि राहुल गांधी के चलते कांग्रेस की साख वापस आएगी । उस व्यक्ति के पास न अनुभव है न विज़न, न लड़ने का माद्दा है न भाषा और न भाषा की अभिव्यक्ति का हुनर है ।
लोगों का मानना है कि सोशल मीडिया अब बोर करने लगा है । बहसें या चर्चाएं अब फालतू की लगने लगीं हैं । तब ऐसे में क्या किया जाए । तो हमारा सुझाव है कि चुनिंदा प्रोग्राम देखिए । राजनीति पर देखना चाहते हैं तो संडे को अभय दुबे शो, रोज रात रवीश कुमार का प्राइम टाइम, ‘सत्य हिंदी’ पर मुकेश कुमार का शो देखिए । राजनीति से अलग संडे को तीन प्रोग्राम और आते हैं – ‘सत्य हिंदी’ पर सुबह ग्यारह बजे अमिताभ चतुर्वेदी का ‘सिनेमा संवाद’, ‘वायर’ पर दामिनी यादव का ‘हिंदी की बिंदी’ और रात नौ बजे साहित्य से जुड़ा ‘ताना बाना’ । आशुतोष किसी से इंटरव्यू लें तो देखिए । ‘सिनेमा संवाद’ एक रोचक कार्यक्रम है । अमिताभ चतुर्वेदी की स्टडी सिनेमा को लेकर अच्छी है और उनका संचालन भी । उनमें हास्य बोध भी खूब है । हंसना उनकी फितरत है । अमिताभ दूसरे कार्यक्रमों में भी आते हैं गम्भीर बात करते करते हंसना भी नहीं भूलते । इस बार भोजपुरी सिनेमा पर कार्यक्रम था , सोचा कि क्या देखें ? लेकिन जब देखा तो मजा आया । गम्भीर बातें हुईं । इसी तरह मुकेश कुमार के कार्यक्रम होते हैं । इस हफ्ते दो ऐसे कार्यक्रम उन्होंने किये जो मैं नहीं समझता कोई और कर सकता था । दोनों अर्थव्यवस्था से जुड़े थे। पहला अडानी का दुनिया में तीसरे नंबर पर आना और दूसरा परसों रात ही भारत का दुनिया की पांचवीं अर्थव्यवस्था बन जाना । दोनों कार्यक्रमों को आप गम्भीरता से सुनें तो वास्तविकता सामने आएगी और यह सरकार बेपर्दा होती दिखेगी । एक रोचक कार्यक्रम किताब पर चर्चा होती है । लेखक अक्षय मुकुल की ‘अज्ञेय’ जी पर एक अच्छी पुस्तक आयी है जिस पर अपने नियमित कार्यक्रम में इस बार मुकेश कुमार और आलोक जोशी ने लेखक से बात की । सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय का व्यक्तित्व और कृतित्व गजब था । उनकी वास्तविक बौद्धिकता और बाहरी गम्भीरता के साथ की बौद्धिकता दोनों का आतंक हिंदी जगत में हमेशा बना रहा । प्रभावी व्यक्तित्व, शांत ,धीमी और कुटिल मुस्कान – क्या गजब था सब । याद आते हैं ‘अज्ञेय’ ।
यह सब मैं हफ्ते भर अपने मित्रों से चर्चा के बाद जो सीन बनता है उसके आधार पर लिखता हूं । इसके लिए फोन और व्हाट्सएप पर्याप्त है । दूरदराज इलाकों से फिलहाल यही जरिया है बात और संवादों का । तो इस हफ्ते इतना ही ।
केजरीवाल को समझा कौन है …. ?
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