शायद मेरे किताबों के पढ़ने के क्रम में, 20022 साल में की, सबसे हैरान करने वाली किताब में इसका समावेश करना होगा ! इसलिए पस्चिम बंगाल एन ए पी एम के, राज्यस्तरीय कार्यक्रम में ! जब मुझे मुख्य वक्ता के रूप में ! बोलने के लिए विशेष रूप से कहा गया था ! तो मैंने प्रथम बार इस किताब को लेकर, और वर्तमान समय में भारत किस तरह के लोगों के हाथों में चला गया है ! और इसे मुक्त करना हमारा प्रथम लक्ष्य होना चाहिए ! यही बात कहने की कोशिश की है ! सत्ता के नशे में कौन क्या कर सकते हैं ? यह इस किताब को पढ़ने के बाद लगता है ! और उन सत्ताधारियों के सामने हमारे देश की पचहत्तर साल पुराने सभी संविधानिक संस्थान कैसे असहायता के कारण इन जल्लादो का साथ देने के लिए मजबूर है ? शोध पत्रकारिता में, वर्तमान समय में, भारत का रेकॉर्ड काफी निचले पायदान पर चले जाने के दिनों में, निरंजन टकले जैसे लोगों से कुछ उम्मीद की किरणों की झलक मिलती है ! 140 करोड़ आबादी के देश में कोई है ! जिसका जमीर कायम है ! और वह अपने करियर की परवाह किए बिना ! सावरकर के तथाकथित वीर की जगह वह कितने डरपोक थे ! यह बेनकाब करने का काम पहले ही कर चुके हैं ! वर्तमान समय के सत्ताधारी सत्ता के लिए किस स्तर तक जा सकते हैं ?
इसका खाका, निरंजन टकले ने अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा को ताक पर रखकर ! इस किताब के लिए तथ्यों को एकत्रित करने के लिए जो कष्ट किए हैं ! उसके लिए उन्हें पत्रकारिता का विश्व का सर्वोच्च सम्मान के लिए वे हकदार है ! उनके इस काम को देखते हुए मुझे सत्तर के दशक में कलकत्तावासी आनंद बाजार पत्रिका में गौर किशोर घोष की जन्मशताब्दी के वर्ष में उन्होंने तत्कालिन सरकार से लेकर तथाकथित नक्सलियों के खिलाफ जिस बेबाकी से आमाके बोलते दाव ! (मुझे बोलने दो) इस शिर्षक से आनंद बाजार और देश नाम की पत्रिका में प्रकाशित कवरस्टोरीयो की बाकायदा किताबों के शक्ल में “Lets Speek Me” शिर्षक से अंग्रेजी में अनुवाद उपलब्ध है ! जिसका आमुख बैरिस्टर वी एम तारकुंडे ने लिखा है ! और सबसे हैरानी की बात इस लेखन के वजह से तथाकथित नक्सलियों के जनता न्यायालय ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई थी ! लेकिन गौरकिशोर घोष ने नहीं सरकारी सुरक्षा ली और नहीं आनंद बाजार समुह के तरफसे दी गई सुरक्षा को स्वीकार किया !
यह वही गौरकिशोर घोष है जिन्होंने 25 जून 1975 के दिन आनंद बाजार के टेलीप्रिंटर पर श्रीमती इंदिरा गांधी के आपातकाल की घोषणा को देखते हुए सबसे पहले अपने दफ्तर के निचे फुटपाथ पर बैठे हुए नाई के हाथ से अपने सर के सभी बालों को मुंडवा कर जनतंत्र मारा गेलो जैसा सत्याग्रह किया है ! और तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने हाथ जोड़कर घर चले जाने की विनती को ठुकरा कर अलिपूर जेल में 19 महिने जेल में बंद रहे ! निरंजनने मराठी भाषी लोगों की लाज रखने का प्रयास किया है ! अन्यथा संघ की स्थापना से लेकर हिंदु महासभा, विश्व हिंदू परिषद शिवसेना, नथुराम गोडसे और उसे तैयार करने वाले सावरकर भी महाराष्ट्रीयन ही थे ! आप सभी के तरफसे प्रायश्चित करने का प्रयास कर रहे हो ! इसलिए मैं विशेष रूप से आपका अभिनंदन करने के लिए विशेष रूप से आने वाले समय में भारत के कोने-कोने में इस किताब को लेजाने की शुरुआत की है !
शायद आठवीं कक्षा में, जब मैं पढाई कर रहा था ! उस समय, मेरे भुगोल के बी. बी. पाटील नाम के एक शिक्षक के आग्रह पर, मैंने कुछ दिनों तक, आर. एस. एस. की शाखा में जाना शुरू किया था ! और शाखा में मुस्लिम बादशाह कितने हृदयहीन होते थे ! अपने पिता तथा भाई – बहनों से लेकर, सत्ता के मार्ग में आने वाले हरेक व्यक्ति की हत्या या, जेल में बंद कर देने के ! किस्से कहानियों को सुनकर, और बटवारे के समय की हिंदुओ के उपर किए गए अत्याचारों के ! मसाला लगे हुए किस्से कहानियों को सुनने के बाद ! मुस्लिम समुदाय के बारे में बहुत ही खराब छवि बन जाती थी ! और मै शाखा से घर आने के पहले जानबूझकर मुस्लिम मोहल्ले में जाकर कुछ गाली-गलौज करके ही वापस आता था ! लेकिन हमारे गाँव के सभी मुस्लिम समाज के लोगों की जीवन – यापन करने की स्थिति वैसे ही दलित, आदिवासी भी ! हमारे जैसे जमीन – जायदाद वाले लोगों के उपर निर्भर होने के कारण ! मुझे सिर्फ टुकुर – टुकुर आंखों से देखने के अलावा कुछ नहीं करते थे ! और मै इसे अपनी बहादुरी समझता था ! जो संपूर्ण देश में कम – अधिक – प्रमाण में यही आलम है ! हिंदु अस्सी प्रतिशत से अधिक है ! और ज्यादातर उच्च स्तरीय संपूर्ण समाज के उपर अपना नियंत्रण रखते हैं ! और इसीलिये डाॅ. बाबा साहब अंबेडकरजी ने दलितों को “गांव छोड़कर शहरों की तरफ चलने का आवाहन किया था !” दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक समुदाय सभी को सवर्ण समाज की कृपा से ही रहना पड़ता है ! और इसी बात का फायदा संघ उठाकर, बहुजन समाज के लोगों को, शाखाओं में नफरत फैलाने वाले किस्से कहानियों, तथाकथित बौद्धिक और खेल तक उनके मुस्लिम विरोधी होते हैं ! और उसी शाखा से कोई नरेंद्र या अमित उम्र के सत्रह साल में जाकर इस विषको अपने भीतर डाल लेकर जीवन का रास्ता चलने लगता है तो उससे और कोई उम्मीद कैसे करें ? यह तो नब्बे साल पहले जर्मनी के एस एस की भारतीय एडीशन हुई !
उसी संघ की राजनीतिक ईकाई, पार्टी वुईथ डिफरंस अपने आप को कहलाती है ! भारतीय जनता पार्टी के बिभत्स चेहरे को देखकर लगता है! कि “शायद सत्ता के खेल में सभी हम्माम में एक ही जैसे नंगे होते हैं !” उसके लिए राम मंदिर जन्मभूमि आंदोलन से लेकर ! गुजरात के दंगों, और उसके बाद अपने आप को एकमात्र हिंदु हृदय सम्राट प्रस्थापित करने के लिए ! अकेले गुजरात में 2000 साल के बाद का दशक ! गुजरात के लिए काला अध्याय के रूप में माना जायेगा ! 2002 का दंगा, 2003 की, पूर्व गृह मंत्री हरेन पंड्या की हत्या ! और 2003 से 2006 इन तीन सालों के भीतर बाईस हत्याएं !
जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय ने “एक्स्ट्रा ज्युडिशियल किलिंग्ज जैसी सज्ञा का !” इस्तेमाल किया है ! इन बाईस हत्याओं में सोहराबुद्दीन, उसकी पत्नी कौसरबी और साथीदार तुलसी प्रजापती इन तीन हत्याओं का भी समावेश है ! सोहराबुद्दीन के भाई बुरहाउद्दीन के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को लिखे पत्र के कारण ! सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात पुलिसको अंतर्गत जांच करने के लिए ! विशेष रूप से आदेश दिया था ! और उसके लिए गुजरात सरकारने, गिता जौहरी नाम की एक महिला अधिकारी को अंतर्गत जांच करने के लिए कहा ! और उन्होंने 2006 में दिए गए अपने रिपोर्ट में “अमित शाह का इन हत्याओं में हाथ था !” ऐसा लिखा है ! और 2007 में कई पुलिस अफसरों को जेल में भेजना पड़ा है ! और अंत में 2010 सर्वोच्च न्यायालयने, सीबीआय को यह मामला सौपा ! तो उसके पहले ही ! जुलाई 2010 को अमित शाह को जेल में जाना पडा है ! (हालांकि तीन महिने के अंदर ही वह जमानत पर बाहर आ गए ! वह बात अलग है ! ) और इसी केस को सीबीआई स्पेशल कोर्ट में सबसे पहले जस्टिस जे. के. उत्पात को जिम्मेदारी सौंपी गई थी ! लेकिन जून 2014 में उनका तबादला ! जो कि सर्वोच्च न्यायालय के 2012 के आदेश का उल्लंघन था ! ” सर्वोच्च न्यायालय का आदेश था” कि एक ही न्याधीश के देखरेख में वह मामला चलना चाहिए था !”
लेकिन जस्टिस ब्रिजगोपाल लोया को यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी ! और वह 1 दिसंबर 2014 की सुबह, नागपुर के सरकारी अधिकारियों के अतिथियों के लिए विशेष रूप से बनाया गया ! (VVIP) रविभवन नाम के अतिथिगृह में, मरे हुए पाए जाते हैं ! और उनके जगह पर नये जस्टिस एम. बी. गोसावी 15 दिसंबर को केस को अपने हाथ में लेकर ! दो दिन के भीतर अंतिम फैसला दे दिया ! जो कि सौ से अधिक गवाह, और दस हजार से अधिक पन्नौका आरोप पत्र ! और शेकडो टेलिफ़ोन कॉलरेकॉर्डो का सज्ञान नही लेते हुए ! 48 घंटों के भीतर फैसले का मतलब क्या हो सकता है ? 30 दिसंबर 2014 के दिन अमित शाह को राजनीतिक षडयंत्र बोल कर सभी आरोपों से मुक्त कर दिया ! और 19 अप्रैल 2018 हमारे देश के सबसे बड़े न्यायालय ने ! जस्टिस लोया के रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मौत की बात की, जांच-पड़ताल करने की मांग को कचरे के डिब्बे में डालते हुए ! आरोपी निर्दोष होने की बात पर ठप्पा लगा दिया ! जिसमें सर्वोच्च न्यायालय को जांच करने की कोई तैयारी नहीं थी ! यह पूरा मामला जिस तरह से चलाया गया है ! जिसमें जबरदस्त षडयंत्र के चलते ! सभी आरोपियों को आराम से मुक्त किया गया ! और उस में से कुछ भारत के कानून – व्यवस्था की जिम्मेदारी निभाने के पोस्ट पर बहाल किए गए ! इस पर से हम कौन-सी राज्य – व्यवस्था में जी रहे हैं ? और हमारे देश के संविधान, तथा संविधानिक संस्थानों को कौन लोग नियंत्रण कर रहे हैं ? जिसमें हमारे देश के कानून बनाने वाले सर्वोच्च सभागार लोकसभा का भी समावेश है ! किसानों के बिलों से लेकर, नागरिकता वाले बील, तथा मजदूरों ने शेकडो सालों के संघर्ष के बाद ! जो भी कुछ कानून – नियम अपने लिए बनवाये थे ! वो सभी कानूनोंको, उद्योगपतियों के हित में, बदलाव करके रख दिये गये हैं !
वहीं बात सार्वजनिक क्षेत्र को प्रायवेट मास्टर्स को सौपना ! और देश की सुरक्षा के नाम पर, हमारे मानवाधिकारों को एक – एक करके खत्म करने की कृती को क्या कहेंगे ? जिसमें अभिव्यक्ति की आजादी का उल्लंघन करने की बात को सुविधाजनक ढंग से इस्तेमाल कर रहे हैं ! हेटस्पिच और अपने खिलाफ बोलने – लिखने वाले लोगों के पुराने मामले निकाल कर ! उन्हें सजा देने का काम, वर्तमान समय में बदस्तूर जारी है ! और कोई सरकार के खिलाफ बोलने – लिखने की हिम्मत नहीं करे !
25 जून 1975 श्रीमती इंदिरा गांधी ने विधिवत आपातकाल की घोषणा की थी ! लेकिन आठ साल से लगातार हम अघोषित आपातकाल में जी रहे हैं ! यह बात इंडियन एक्सप्रेस के शेखर गुप्ता को ! आपातकाल के चालिस साल (2015) के उपलक्ष्य में ! एक साक्षात्कार में लालकृष्ण आडवाणी ने कहा “कि हम लोग पिछले एक साल से अघोषित आपातकाल में जी रहे हैं !” और आज आठ साल से अधिक समय हो रहा है ! श्रीमती इंदिरा गांधी के आपातकाल का समय, सिर्फ 19 महीनों का था ! यह आठ साल छ महिनों का हो रहा है ! जिस तरह से 1977 के समय, सभी लोकतांत्रिक दलों से लेकर, सीवील सोसाइटी के लोगों ने मिलकर, संयुक्त रूप से विरोध किया था ! आज उसके जैसा ही, दोबारा सभी जनवादी ताकतों ने मीलकर ! इन फासीस्ट ताकतों का मुकाबला करने के लिए ! विशेष रूप से आज इकठ्ठे होकर ! 2024 के चुनाव में भाजपा को हराने के लिए ! सभी मतभेदों को ताक पर रखकर, इस सरकार का मुकाबला करने के लिए ! आज से ही जुट कर, बीजेपी मुक्त भारत की घोषणा करने के लिए, तुरंत शुरुआत करनी होगी ! अन्यथा आने वाले दिनों में यह पोस्ट लिखने की भी इजाजत नहीं मिलेगी ! और सभा संमेलन तो बहुत दूर की बात है !
29 अक्तुबर 2022 को कोलकाता में 18 सूर्यसेन स्ट्रीट में पस्चिम बंगाल एन. ए. पी एम के कार्यक्रम में वर्तमान देश – दुनिया की स्थिति पर बोलते हुए !
मेरे हाथ में जो किताब है ! वह शोध पत्रकारिता में, वर्तमान समय में भारत में कुछ चंद पत्रकार है ! जो अपना पत्रकारिता का सही धर्म निभाने की कोशिश कर रहे हैं ! उनमें से एक श्री. निरंजन टकले ने पहले कारवान पत्रिका में, और अब 2022 के मई माह में, औरंगाबाद के धम्म गंगा पब्लिकेशन्स के तरफसे प्रकाशित, Who Killed Judge Loya ? नाम की, 315 पनौ की किताब है ! जिसकी तुरंत जून महीने में दुसरी एडीशन छ्प चुकी है ! और मराठी अनुवाद हो चुका है ! और अब गुजराती, हिंदी, कन्नडा तथा बंगला में अनुवाद हो रहे हैं !
यह है, सीबीआई स्पेशल कोर्ट के जज ब्रिजगोपाल हरकिशन लोया के 30 नवंबर की रात में और 1 दिसंबर के उनकी, नागपुर में हुई, मृत्यु को लेकर फैले विवाद पर लिखी गई किताबों में से एक हैं !
30 नवंबर को जज लोया अपने और जज मित्रों के साथ किसी जज के बेटी के विवाह के लिए विशेष रूप से मुंबई से आए थे ! “Except, on 29 November, 2014, Loya was told to join two colleagues on a sudden trip to Nagpur, Maharashtra. Judges Kulkarni and Modak had come to Loya’s office, insisting on his company, Was this about a meet – and – greet, an expert review of legal briefs, a family emergency ? Turns out, judge Sapna Joshi’sj daughter was getting married in Nagpur. 2014 नागपुर के रविभवन नाम के शासकीय गेस्टहाउस में ठहरे हुये थे ! उनकी उम्र 47 साल की थी ! और सबसे हैरानी की बात तीस नवंबर को उन्होंने अपनी पत्नी के साथ रात के 11 – 45 तक बातचीत की है ! और बारह बजे के बाद उन्हें तबीयत खराब होने के नाम पर ! नागपुर के रविनगर स्थित एक साधारण से अस्पताल में, वह भी अॉटोरिक्षा से रविभवन से ले जाया गया है ! जो कि रविभवन के दो तीन किलोमीटर में कोई भी अॉटोरिक्षा के स्टॅन्ड मौजूद नहीं है !
और सबसे महत्वपूर्ण बात, रविभवन सरकारी अतिथियों के लिए विशेष रूप से आरक्षित गेस्टहाउस होने के कारण ! वहां पर कोई न कोई सरकारी अधिकारियों के साथ वाहनों का अस्तित्व रहते हुए ! किसी अॉटोरिक्षा में एक सीबीआई के कोर्ट के स्पेशल कोर्ट के जज को ! जो हाईकोर्ट जज के बराबर होता है ! उनके लिए कोई वाहन का नही होना ! और नागपुर आने के एक हप्ताह पहले, उनकी झेड प्लस सिक्युरिटी हटाने का फैसला कौन और किस लिए लिया था ?
और जिस नागपुर के ब्याह के लिए, उन्हें कुलकर्णी और मोडक नाम के दो लोगों ने जबरदस्ती से ही ! परस्पर न्यायालय से ही सिधा मुंबई – नागपुर दुरंतो गाडी पर ले जाने की बात, भी काफी संदिग्ध लगती है ! क्योंकि एक जज को अचानक ही पहले से कोई न्योता न मिला हो ! (अगर उन्हें पहले से खबर होती तो उन्होंने अपने पत्नी को कहा होता ! “कि मुझे फलाने दिन नागपुर जाना हैं ! लेकिन अचानक ही उन्होंने अपने घर हाजी अली से फोन कर के अपनी बॅग भरकर सिधा अपने सामान को मुंबई रेल्वे स्टेशन पर मुंबई – दुरंतो ट्रेन के छुटने के पहले बुला लिया बुला लिया ! ) मतलब अचानक ही मोडक और कुलकर्णी नाम के लोगों ने ! उन्हें एक तरह से आग्रह करते हुए, ऐन समय पर कहा ! तभी तो उन्हें अपने घर पर फोन कर के अपने प्रवास के लिए सामान बुला लेने की जरूरत पडी ! और यही कुलकर्णी और मोडक जो उन्हें आग्रह करके नागपुर ले गए थे ! उन्होने ने ही 30 नवंबर को रात में ! लोया साहब को आटोरिक्षा से रविनगर चौक के दंडे अस्पताल में ले जाना ! जो कि नागपुर में दो – दो गव्हरमेंट मेडिकल कॉलेज तथा दो प्रायव्हेट मेडिकल कॉलेज तथा व्होकार्ट और अन्य हृदय रोग से संबंधित, अस्पताल मौजूद रहते हुए ! दंदे एक सर्वसामान्य इलाज के लिये, एक अस्पताल में ले जाने का फैसला भी काफी सवाल खड़े करता है ! इस कारण उनके संशयास्पद मृत्यू होने के बार में उनके अपने रिश्तेदारों में से एक उनकी बड़ी बहन, धुलिया के सिविल अस्पताल में डाक्टर अनुराधा बियानीने उनके शव को देखते हुए दोबारा पोस्टमार्टम करने की मांग की थी ! क्योंकि ” stuck under his neck. She saw an injury on the back of his head” clothes were handed over in a polythene bag. It included his shirt – – soaked with blood. The belt on his jeans was twisted and put in the opposite manner. The broken buckle was on the right side of the belt” लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं मानी ! और आधी रात के अंधेरे में ! किसी भी प्रकार के मिडिया वाले लोगों के बगैर ही चुपचाप अंतिम संस्कार किया गया !
A non – smoking, non – drinking fitness freak (with no cardiac history in the family) dies of a cardiac arrest at the age of forty – seven. Bloodstains, broken buckles. Signs of head trauma. A post – mortem done in the death of night, apanchanama never supplied. A replacement judge who conducts the trial for tow days, before reserving his order for more than a dozen. A captain who retires in the middle of a test tour. And the aspersions were not yet over.
उपर लिखित किताब में, इन सब सवालों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है ! जिसे पढ़ने के बाद मै हैरान हूँ ! कि हमारे देश के वर्तमान सर्वोच्च पदोपर बैठे हुए लोग कितने खतरनाक हो सकते हैं ? और सबसे संगीन बात इनके हाथों में, 140 करोड़ लोगों के लिए कानून और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी है !
जिस देश में एक जज को अपने जान से हाथ धोना पड़ता है ! वहां आम आदमियों की क्या ? अहमियत हो सकती है ? इस पर हमारे संसदीय जनतंत्र की दशा और दिशा का बोध होता है !
इस किताब के शुरू में ही Prologue, page number IX,मे लेखक-पत्रकार श्री निरंजन टकले लिख रहे है कि ” My story, in fact, greatly concerns one of the pillars of the BJP.
As I write, Mr. Amit Shah is fifty – seven years old. He is currently India’s Minister for Home Affairs, following a six year spell as BJP ‘s President. He is most likely, as the Prime Ministers right – hand man, the second most powerful politician in the India.
On 20 November 2017, I posted an article for The Caravan that related to a trial in which he was one of the main accused. ” A Family Breaks Its Silence : Shocking details emerge in death of judge presiding over Soharabuddin trial”. This was followed, a day later, by another piece :”Chief Justice of. Mumbai High Court, Mohit Shah offered Rs 100 crore to my brother for a favourable judgment in the Soharabuddin case :Late Judge Loya’s sister”.
These articles were a storm, grabbing National and international attention (it is probably the reason that you, dear reader, kept an eye out for this book. ) The number of readers who searched these links and perused through these stories are in the millions. Civil society, activists, alternative media, political parties and even the Supreme Court took cognizance of the report. I recall how, while admitting two Interventions, the Supreme Court called it “an extremely serious issue” and ordered the transfer of two other PILs from the High Courts to itself. An unprecedented move.
I won’t delve into the nitty-gritties of the story right now. It is already available to the public domain, and will also be retold in this book. But what I will say is this :while the articles never swift to claim the blame upon themselves, and upon Amit Shah .
Shah was jailed in July 2010 over his alleged involvement in the death of Soharabuddin Shaikh and his wife Kausarbi in 2005, not to mention the death of Soharabuddin’s associates Tulsiram Prajapati a year later. A CBI Special Court was appointed by the Supreme Court to carry out the Soharabuddin trail. Amit Shah was the prime accused.
The presiding judge, at first, was J. T. Utpat. He was then transferred to Pune in June 2014. This was in violation of the 2012 Supreme Court order, stating that the Soharabuddin trial should be conducted by the same officer. But you know, they will was done.
Utpat was replaced by Brijgopal Harkishan Loya.
Judge Loya died in the mysterious circumstances in the early hours of 1 December 2014. A new judge, M B Gosavi, resumed the hearing on 15 December, and concluded it two days after.
When trial that involves over a hundred witnesses, a charge sheet greater than 10,000 pages and hundreds of call data records concludes within 48 hours, than even toddlers can foresee the upcoming verdict. And, tru enough, on 30 December 2014 Amit Shah was discharged, Judge Gosavi citing political motivations behind the allegations.
If official records are to be believed, Judge Loya passed away at 6:15am from coronary artery insufficiency. But my investigation uncovered facts which point to much more sinister conclusions. The obstacles I faced on my way to revealing the truth – – as well as the truth itself – – reflect politicians who have broken the judiciary to suit their whims, institutions that would rather preserve the status quo and individuals who champion apathy over action. It is a substantiated, realistic recounting of the broken bodies which govern our country.
Above all else, it is a tragic tale of an esteemed judge who was silenced before he could speak, of a family coerced in to compliance and of the people who have lost complete faith in human beings, let alone the government. This book is there story as much as it is mine – – if not more .
As investigative journalist, I tried to enforce change within the system. I researched with utmost precaution and, in my articles for the Caravan, Laid the facts of the table. I trusted the people with the truth. Four PILs and Interventions later, it went nowhere .
Five months after the story saw the light of day – – on 19 April 2018, to be precise – – I watched with dismay as the Supreme Court dismissed pleas seeking an independent probe in to the sinister circumstances surrounding Loya’s death. Let me be clear : this does not mean that any alleged conspirators were declared innocent. It means that the court did not find it necessary to even begin a probe.
To call this travesty of justice is it to presume that justice was ever on the cards.
Herein lies my source of increased cynicism with the Supreme Court. India’s justice system was never perfect, but judicial hypocrisy is a small symptom of a larger cancer that, arguably, began with the Sohrabuddin trial.
The profound frivolity with which that case was handled, the stench of bribery, conspiracy and murder surrounding it, and the ease with which the perpetrators have been allowed to roam free (not only on streets, but in corridors of power ) knows no bounds .
इस मृत्यू को लेकर काफी विवाद होने के कारण मुंबई हाईकोर्ट में दो पी आई एल दाखिल की गई थी ! और भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भी दो पी आई एल और इनके सुनवाई का विवरण अंतिम पन्ना नंबर 286 से
303 तक सत्रह पन्नौकी The Judgement नामसे पंद्रह नंबर के प्रकरण में तफ़सील से दिया है ! सबसे पहले मुंबई उच्च न्यायालयके पूर्व न्यायाधीश ने तत्कालीन मुंबई उच्च न्यायालय को पत्र लिखकर न्यायिक जांच की मांग की है ! और पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ए पी शाह ने उसे सार्वजनिक रूप से मान्यता दी है ! उसी तरह दो पी आई एल मुंबई उच्च न्यायालयमे दाखिल कि गई ! एक एक्टिविस्ट कि तरफसे और दुसरी समस्त मुंबई लायर्स असोसिएशन की तरफसे और दोनों पी आई एल में जस्टिस लोया के मृत्यु की स्वतंत्र जांच की मांग की गई थी ! लेकिन यह सब कुछ हमेशा – हमेशा के लिये दफनाने का काम हमारे देश के सबसे बड़े न्यायालय ने बहुत ही शातिर तरीके से किया है ! और हमारे देश की बची – खुची इज्जत और आबरू को दाव पर लगा दिया है ! अब सिर्फ और सिर्फ जनता को महात्मा गांधी के रास्ते पर सामुदायिक सत्याग्रह तथा जगह – जगह पर आंदोलनों के द्वारा ही वर्तमान समय की सरकार को आ पदस्थ करने के लिए विशेष रूप से कोशिश करना यही सही सबक इस किताब को पढ़ने के बाद लेने की आवश्यकता है !
डॉ सुरेश खैरनार 7 नवंबर 2022, नागपुर