15 साल से भाजपा शासित राज्यों मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कई बातें समान हैं. जैसे, दोनों ही राज्यों ने भ्रष्टाचार के क्षेत्र में झंडे गाड़े हैं, दोनों ही राज्यों के मुख्यमंत्री राज्य में अपनी पार्टी के एकमात्र चेहरे हैं, साथ ही जनता में लोकप्रिय भी हैं और अब दोनों ही राज्य सत्ता विरोधी लहर से जूझ रहे हैं. छत्तीसगढ़ के चुनावी माहौल, जोड़-तोड़ के गणित और कई दबी-छुपी बातों को आपके सामने पेश करती एक रिपोर्ट…
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव कई मायनों में अनूठा और एतिहासिक होने जा रहा है. यहां सत्ता विरोधी लहर जितनी भाजपा के खिलाफ है, उतना ही विरोध कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भूपेश वघेल के लिए भी है. भाजपा सत्ता में वापसी के लिए साम-दाम-दंड-भेद अपनाने यानि कि कोई पैंतरा आजमाने से बाज नहीं रही है, साथ ही धूल की तरह पैसा उड़ा रही है. वहीं कांग्रेस के पास चुनाव लड़ने के लिए न तो फंड है और न ही मुद्दे उठाने की कूवत है. अजित जोगी नाम के किरदार ने अलग से कई नेताओं की नींद हराम की हुई है. जबकि इस सबसे इतर, जनता और उसकी अपनी समस्याएं हैं और वो बदलाव चाहती है. लेकिन बदलाव का माहौल देने के लिए कांग्रेस में इतनी तैयारी आखिर तक नजर नहीं आती है. हालांकि कांग्रेस ने उम्मीदवारों को चुनने में थोड़ी बुद्धिमता का परिचय दिया है. अब जनता उनके इस रवैए को किस नजर से देखती है, वो चुनावी नतीजे ही बताएंगे. फिर भी, भाजपा और कांग्रेस के बीच की टसन और जोगी का नए रूप में मैदान में उतरना इस चुनाव को रोचक बनाता है.
आखिर क्यों भाजपा से नाराज़ है जनता
छत्तीसगढ़ में डेढ सौ सालों का भूख से मौतों का इतिहास रहा है. डॉ. रमन सिंह ने जब यहां की जनता को एक रुपए किलो में चावल दिए, तो जनता ने उन्हें सिर-आंखों पर बैठाया. लोग उन्हें चावल वाले बाबा के नाम से ही जानने लगे. डॉ. रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ में विकास भी किया, लेकिन जितना विकास वास्तविक रूप में हुआ, इससे कहीं ज्यादा उन्होंने और उनकी सरकार ने अपने फायदे के लिए काम किया. अरबों रुपए खर्च करके नया रायपुर बसाना उनके अब तक के निर्णयों में सबसे गलत साबित हुआ. इस नए रायपुर में पसरा सन्नाटा इसकी असफलता की कहानी खुद बयां करता है. उन्होंने सड़कें भी बनाईं, लेकिन नक्सलवाद को काबू करने में इस कदर नाकाम रहे कि जिस सड़क की कवरेज करने गए दूरदर्शन के कैमरामैन अच्युतानंद साहू को नक्सलियों ने गोलियों से भून डाला, उस सड़क निर्माण के क्रम में अब तक 76 जवान शहीद हो चुके हैं. वो सड़क केवल कंक्रीट से नहीं, बल्कि जवानों के खून से भी बनी है. इसी तरह शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने में रमन सरकार बुरी तरह असफल रही है. बस्तर में भले ही स्कूलों की इमारतें खड़ी कर दी गईं, लेकिन उनमें शिक्षक ही नहीं हैं, क्योंकि उन नक्सली इलाकों में वे जाना नहीं चाहते. इसी तरह, शहरों में लोग डेंगू से मर रहे हैं और सरकार कुछ नहीं कर पा रही है. न बच्चों के खेलने के लिए मैदान बचे हैं, न गायों के चरने के लिए गौचर भूमि बची है. एक सोशल एक्टिविस्ट कहते हैं कि जब मप्र और छत्तीसगढ़ एक राज्य था, तब हर गांव में रेवेन्यू लैंड की सात फीसदी जमीन गौचर भूमि होती थी, आज यह अनुपात दो फीसदी पर चला गया है. इसमें भी कमाल की बात यह है कि कुछ समय पहले सरकार ने राजपत्र में एक नई बात छापी है कि अब राजस्व भूमि के अनुपात में दो फीसदी गौचर जमीन कहीं भी हो सकती है. यानि कि कई गांवों की गौचर भूमि किसी एक जगह पर हो सकेगी. ऐसी घोषणा करते हुए शायद सरकार ने यह सोच लिया कि गाएं घास चरने के लिए किसी दूसरे गांव में जाएंगी. छत्तीसगढ़ की गाएं ज्यादा दुधारू नहीं होतीं, पर गौचर भूमि होने के कारण वे किसानों पर बोझ नहीं थीं. सरकार के ऐसे मखौल उड़ाते नियम कब तक किसान के सब्र का इम्तहान लेंगे. इसी तरह, जंगलों से भटककर खेतों में आने वाले हाथियों द्वारा फसल बर्बाद करने की खबरें हर दिन अखबारों का हिस्सा बन रही हैं, लेकिन सरकार इस बात से निश्चिंत नजर आती है कि किसान की कड़ी मेहनत से उगाई फसल को बर्बाद होने से रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाना चाहिए. किसानों की ये ऐसी समस्याएं हैं, जो चुनावी समय में नेताओं के मुद्दों से सिरे से गायब हैं. सरकार भूल रही है कि किसानों के अंदर सुलग रहा गुस्सा यदि बाहर आया, तो इनके लिए सत्ता में वापसी का रास्ता बंद हो जाएगा. इसके अलावा, भ्रष्टाचार, बुरी तरह हावी ब्यूरोक्रेसी आदि ऐसे मुद्दे हैं, जिनपर आम आदमी का गुस्सा मानो फूटने को तैयार है.
कांग्रेस में है ज़बरदस्त नाराज़गी
चुनावों का वक्त हो और कांग्रेस के नाराज नेताओं का जिक्र न किया जाए, तो समझो रिपोर्टिंग अधूरी है. फिर छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस दोतरफा नाराजगी झेल रही है. एक ओर टिकट कटे नेताओं की नाराजगी है, तो दूसरी ओर मतदाता नाराज हैं. कुछ महीने पहले ही सीडी कांड में फंसे भूपेश बघेल अब भी पब्लिक की आंखों में किरकिरी की तरह चुभ रहे हैं. वहीं उनकी ब्राम्हण विरोधी और प्रदेश कांग्रेस में आधिपत्य जमाने की छवि के कारण पार्टी में उनके विरोधियों की गिनती कम होने का नाम ही नहीं ले रही है. लोग ये बात भी भूल नहीं पाते कि आज जो अजीत जोगी कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती बन चुके हैं, उन्हें भूपेश बघेल ने ही पार्टी से निकलवाया था. भूपेश बघेल को लेकर तो यह स्थिति है कि यदि 10 कांग्रेसी नेताओं के सामने आपने उनका जिक्र कर दिया, तो समझिए आधे से ज्यादा नेताओं की दुखती रग पर आपने हाथ रख दिया. फिर टिकट न मिलने से गुस्साए नेता तो पानी पी-पीकर उन्हें कोस रहे हैं. खैर, कई सालों तक राहुल गांधी की गुडबुक में शामिल रहे बघेल के खिलाफ जब शिकायतें हाईकमान तक पहुंचीं तो वहां भी हलचल हुई. इसका असर भी हुआ. अब तक माना जा रहा था कि यदि कांग्रेस जीतती है, तो भूपेश बघेल, टीएस सिंहदेव और चरणदास महंत ही सीएम पद के लिए चेहरा हो सकते हैं. लेकिन सीडी कांड के कारण भूपेश बघेल और राजघराने से ताल्लुक के कारण टीएस सिंहदेव के सीएम बनने के चांस नहीं थे. लेकिन ऐन मौके पर कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ के अपने एकमात्र सांसद ताम्रध्वज साहू को दुर्ग से टिकट दे दिया. इससे सीएम पद को लेकर एक नया ही समीकरण बन गया है. साफ-सुथरी छवि वाले ताम्रध्वज साहू राष्ट्रीय कांग्रेस के पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के अध्यक्ष भी हैं. छत्तीसगढ़ में साहू समाज की आबादी करीब 25 लाख है और यह समाज भाजपा का वोटर माना जाता है. इस बार भी भाजपा ने जहां 14 साहू उम्मीदवारों को टिकट दिया है, वहीं कांग्रेस में यह संख्या छह है. ऐसे में कांग्रेस ताम्रध्वज साहू के जरिए साहू वोटरों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रही है. हो सकता है कि जीतने पर कांग्रेस सीएम का ताज ताम्रध्वज साहू के माथे पर ही सजाए.
1000 करोड़ का होगा भाजपा के लिए ये चुनाव
बतौर मुख्यमंत्री तीन कार्यकाल बिता चुके डॉ. रमन सिंह की छवि भले ही साफ-सुथरी और लोकप्रिय नेता की है, लेकिन उनके बेटे का नाम पनामा पेपर्स मामले में आने के बाद यह तो साफ हो गया कि भ्रष्टाचार की आग की लपटें इनके परिवार को भी छू रही हैं. (गौरतलब है कि राहुल गांधी ने हाल ही में गलती से पनामा पेपर्स मामले से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के बेटे का नाम जोड़ दिया था, जिसके कारण उनपर मानहानी का दावा भी हुआ). मध्य प्रदेश के सीएम की पत्नी की तरह डॉ. रमन सिंह की पत्नी सामाजिक तौर पर ज्यादा सक्रिय तो नहीं हैं, लेकिन अपने-अपने बंगले से फाइलों की स्पीड पर पूरा नियंत्रण रखने में दोनों एक-दूसरे की टक्कर की हैं. छत्तीसगढ़ में चाहे तबादले हों या फिर पैसों के लेन-देन से हैंडल होने वाले अन्य मामले, सभी सीएम की पत्नी की देख-रेख में ही संपन्न होते हैं. इसे लेकर भाजपा से लेकर कांग्रेस तक के नेता और सरकारी कर्मचारी भी कई तरह के किस्से सुनाते मिल जाएंगे. कुल मिलाकर बात यह है कि 15 सालों में जो पैसा जमकर कमाया गया, वो इस चुनाव में धूल की तरह उड़ाया जा रहा है. एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि इस बार छत्तीसगढ़ में चुनावों में जिस तरह पैसा बंट रहा है, इसे देखकर यह भी नहीं कहा जा सकता कि पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है, क्योंकि पानी तो कीमती है. इसलिए यही कहना सही होगा कि पैसा धूल की तरह उड़ाया जा रहा है. भाजपा के ही वरिष्ठ नेताओं की मानें, तो भाजपा के लिए यह चुनाव कम से कम 1000 करोड़ रुपए का है, वहीं मध्य प्रदेश में तीन हजार करोड़ रुपए का है. जाहिर है, अजीत जोगी को अपनी पार्टी बनाने और उससे भाजपा को फायदा दिलवाने के लिए भी मोटी रकम खर्च की गई है. चूंकि जोगी की डिमांड बड़ी थी, इसलिए यह मामला दिल्ली से निपटाया गया. कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि जोगी को भाजपा ने करीब 100 करोड़ रुपए दिए हैं. इधर जोगी इतने कलाकार निकले कि उन्होंने अपने उम्मीदवारों को भी पैसे देने से साफ मना कर दिया. उनके परिवार के चारों सदस्य चुनावी मैदान में हैं, तो उन्हें भी पैसे की दरकार तो होगी ही.
अब दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस के चुनावी फंड की बात करते हैं. कुछ ही महीने पहले कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता मंच से अपना दुखड़ा रोते नजर आए कि जनता हमें वोट और नोट दोनों ही दे. अब पार्टी में जो नेता अपनी जेब से पैसा लगाकर चुनाव लड़ने को तैयार थे, उनमें से कई की भूपेश बघेल से पटी नहीं. लिहाजा या तो उन्हें टिकट ही नहीं मिली या फिर वे दूसरी पार्टी में चले गए. अब कांग्रेस के कम्युनिकेशन सेल के चेयरमैन शैलेश नितिन त्रिवेदी फंड की कमी पर पर्दा डालने के लिए कह रहे हैं कि हमारे पास फंड की कमी होना इस बात का सुबूत है कि कांग्रेस ईमानदार पार्टी है. अब यदि कांग्रेस के नेता इतने ही ईमानदार हैं, तो फिर भाजपा से पैसे क्यों ले रहे हैं, इस बात पर पार्टी को मंथन करना चाहिए. पैसों के जिक्र के बीच सबसे अहम नाम आता है, छत्तीसगढ़ के जल संसाधन मंत्री ब्रिजमोहन अग्रवाल का, जो भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और कई बार विधायक रह चुके हैं. इनका हर पार्टी के नेताओं, पत्रकारों, अधिकारियों जैसे हर तबके के लोगों से बहुत अच्छा सम्बन्ध है. वे पैसे बांटने और सबको साथ लेकर चलने के मामले में भी एक नंबर हैं. भाजपा के नेता ही बताते हैं कि अपोजिशन के कई नेताओं को ये मंत्रीजी लगातार पैसे भिजवाते रहते हैं. अग्रवाल एक बड़े संयुक्त परिवार से हैं और उनके बेटे, भाई-भतीजों के कई लंबे-चौड़े बिजनेस हैं.
वोटों का गणित
पिछले तीन चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोट शेयर के बीच अंतराल लगातार कम ही हुआ है. 2008 में तो यह अंतर केवल 0.75 फीसदी का ही रहा. वहीं बसपा का वोट शेयर चार से छह फीसदी के बीच रहा. कांग्रेस-भाजपा के बीच वोट शेयर का कम होता अंतराल भाजपा को डराने के लिए पहले ही काफी है, इसके बाद सत्ता विरोधी लहर है ही, जो कांग्रेस के लिए चुनावी जीत को आसान बनाती है. इसे लेकर भाजपाई नेता तर्क देते हैं कि राज्य छोटा होने के कारण इस अंतराल का कम होना लाजिमी है. अलबत्ता सीटों की संख्या पर नजर डालें, तो भाजपा को दो बार 50 और पिछले चुनाव में 49 सीटें मिली थीं. 2003 के चुनाव को छोड दें, तो बाकी दोनों चुनावों में डॉ. रमन सिंह के जीतने का प्रमुख कारण छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी का अपनी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ काम करना था. इसके चलते सतनामी समाज के प्रभाव वाली 10 सीटों में से नौ सीटें भाजपा को मिली थीं, जबकि सतनामी समाज को कांग्रेस का वोटबैंक माना जाता रहा है. इसी तरह कुछ और सीटें हैं, जहां दलित समाज ज्यादा है और वो वोटें जोगी के प्रभुत्व के चलते कंाग्रेस का नुकसान कर भाजपा को मिली थीं. अब जबकि जोगी और मायावती ने हाथ मिला लिया है और जोगी कांग्रेस यानि कि जनता लोकतंत्र कांग्रेस पार्टी खुद मैदान में है, फिर तो जाहिर है कि सतनामी संप्रदाय से ताल्लुक रखने वाले अजीत जोगी ये वोट खुद के लिए ही मांगेंगे. ऐसे में भाजपा की सीटों की संख्या में कमी आना तय है. अब सवाल यह है कि क्या जोगी और मायावती का गठबंधन इन वोटों को अपने खाते में ट्रांसफर करा पाएगा, जो कि हमेशा से कांग्रेस का पारंपरिक वोटबैंक रहा है. यदि नहीं, तो फिर सवाल यह है कि चुनाव में किसकी स्थिति मजबूत होगी?
करीब 50 साल से पॉलिटिकल रिपोर्टिंग कर रहे वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर कहते हैं कि अजित जोगी जैसी जिजीविषा वाला आदमी विरले ही देखने को मिलता है. 2004 के लोकसभा चुनाव के दौरान हुए खतरनाक एक्सीडेंट में बोनमैरो टूटने के बाद भी वे उठ खड़े हुए और आज भी डटे हुए हैं. इंटेलीजेंसी और संघर्शशीलता उनके खून में है. उनका अपना जनाधार है. यदि वे इस चुनाव में पांच से कम सीट लाते हैं, तो यह अलग बात है, लेकिन यदि यह आंकड़ा सात सीट तक भी पहुंच जाए, तो वे छत्तीसगढ़ में किंगमेकर की भूमिका में होंगे और उनका बेटा उप मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठेगा. कुल मिलाकर देखें, तो कई अहम मुद्दों को अच्छी तरह न उठा पाने के कारण कांग्रेस नुकसान में रहेगी और जाहिर है, इसका फायदा भाजपा को मिलेगा. कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश की तुलना में भाजपा छत्तीसगढ़ में बेहतर स्थिति में है. यदि किसी कारण से वो जीत का चमत्कारिक आंकड़ा पाने में कुछ सीटों से पीछे रह भी गई, तो उसके पास अमित शाह जैसा चाणक्य तो है ही.
किसकी सीटें बेहतर
भाजपा ने करीब डेढ़ दर्जन ऐसे लोगों को टिकट दिया है, जो पिछली बार हार गए थे. इनमें से कई ऐसे हैं, जो 10 हजार से ज्यादा वोटों के अंतर से हारे थे. कई विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ जनता में बड़ी नाराजगी थी, फिर भी उन्हें रिपीट किया गया है. कहीं एकदम ताजे चेहरों को टिकट दिए गए हैं, जिनकी मतदाताओं में पहचान ही नहीं है. भाजपा के ही एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि यदि 15 साल तक सत्ता में रहने के बाद हारे हुए नेताओं को टिकट देना पड़ रहा है, तो यह एक तरह से मुख्यमंत्री की नाकामी ही है. वैसे भी विधायकों की छत्तीसगढ़ में सुनता ही कौन है, यहां तो ब्यूरोक्रेसी इस कदर हावी है कि वे ही प्रशासन चला रहे हैं और वे ही सरकार चला रहे हैं. कांग्रेस के टिकट वितरण की बात करें, तो पार्टी सुप्रीमो राहुल गांधी ने छत्तीसगढ़ की एक रैली में कहा था कि वो 15 अगस्त को ही टिकट बांट देंगे, जबकि कांग्रेस ने ही सबसे आखिरी में टिकट वितरण का काम किया. कांगे्रस ने उम्मीदवारों की आखिरी सूची 12 नवंबर को होने वाले पहले चरण के मतदान से केवल 12 दिन पहले जारी की. दो साल पहले कांग्रेस का दामन छोड़ जोगी से जा मिले पूर्व राज्यमंत्री विधान मिश्रा कहते हैं, ‘भूपेश बघेल की ब्राम्हण और सवर्ण विरोधी नीति के कारण वे यह चुनाव जरूर हारेंगे. भूपेश बघेल ने केवल ओबीसी को फोकस में रखा और सवर्णों को दरकिनार किया है. ऐसी राजनीति तो हार का ही रास्ता दिखाएगी. मान लिया कि छत्तीसगढ़ आदिवासी और पिछड़ा वर्ग बहुल्य राज्य है, लेकिन यहां की राजनीति में सवर्णों का दखल जबरदस्त है. इसमें अग्रवाल समाज सबसे आगे है. राज्य में 12 अग्रवाल विधायक हैं, जिनमें से सबसे ज्यादा भाजपा में हैं. वे चुनाव लड़ने के लिए पैसे भी देते हैं. भूपेश से करीबी के चलते कई ऐसे कुर्मी इम्मीदवारों को टिकट दिए गए हैं, जो हारने वाले हैं.
…तोे क्या जीत के बाद भी नहीं बंधेगा सेहरा
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा यदि सरकार बनाने में कामयाब हो भी जाए तो क्या ये दोनों मुख्यमंत्री लगातार चौथी बार राजयोग का आनंद लेंगे, यह बात भाजपा के नेताओं को ही सबसे ज्यादा खटक रही है. लिहाजा कई नेता तो खुद अपनी ही पार्टी को हराने में लगे हैं. अब वे खुलकर नाराजगी जताएं या न जताएं लेकिन यह बात सही भी है कि आखिर पार्टी के दूसरे नेता कब तक मुख्यमंत्री बनने के लिए इंतजार करेंगे? क्या पार्टी के लिए उनका योगदान कम है? दूसरी बात यह है कि लगातार इतने साल तक कुर्सी पर काबिज रहने के कारण इन नेताओं ने किसी अन्य नेता को उभरने ही नहीं दिया, क्या उनकी ये नीति पार्टी हित में सही है? इस बारे में संघ से भाजपा में आए दो वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘यह बात भाजपा को बहुत अखर रही है कि नेताओं का कद पार्टी से भी आगे बढ़ना सही नहीं है. लिहाजा, अब संघ और भाजपा के अंदर हाईलेवल पर यह बात चल रही है कि अब किसी भी नेता को दो बार से ज्यादा मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाए. इसका अमल इन्हीं विधानसभा चुनावों के बाद होगा.’ यानि, यदि डॉ. रमन सिंह और शिवराज सिंह चौहान अपने-अपने राज्य में जीत भी जाएं, तो ज्यादा से ज्यादा छह महीने तक ही सत्ता की मलाई खा पाएंगे. इसके बाद उन्हें निश्चित रूप से केंद्र का रास्ता दिखा दिया जाएगा. अब सवाल यह है कि इनके जाने के बाद मुख्यमंत्री कौन होगा? अगर ऐसी स्थिति बनती है, तो चर्चा है कि मध्य प्रदेश में प्रदेश अध्यक्ष रह चुके नरेंद्र सिंह तोमर और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री के बाद दूसरे नंबर के प्रतिभाशाली नेता ब्रिजमोहन अग्रवाल दोनों राज्यों में नया चेहरा हो सकते हैं.
यदि घर लौट गए तो दिवाली, वरना…
छत्तीसगढ़ में चुनाव का नाम आते ही जेहन में सबसे पहली तस्वीर आती है, विभिन्न सुरक्षा बलों की, जो शांतिपूर्ण चुनाव कराने के लिए कई दिन पहले से आकर हालात संभालने के लिए दिन-रात एक कर देते हैं. चुनावी कवरेज के लिए छत्तीसगढ जाते समय राजधानी ट्रेन में बीएसएफ के कुछ जवानों से मुलाकात हुई. साथ सफर करते हुए उनसे कई किस्से सुनने को मिले, जिन्हें सुनकर कभी रोंगटे खड़े होते हैं, कभी आंखों में आंसू आते हैं, तो कभी दिल उनके परिजनों के लिए तड़प उठता है, जो दिल पर पत्थर रखकर अनहोनी की आशंका को मन में दबाए हुए जीते हैं. नक्सलियों से सामना होने, गोलियों की बौछार के बीच मौत से लड़ने की घटनाएं तो कमोबेश हर जवान ने झेली होती हैं, लेकिन सबसे खतरनाक और दर्दनाक स्थिति तब होती है, जब जवानों के सामने नक्सली होते हैं, लेकिन वे कुछ भी करने में असमर्थ होते हैं, क्योंकि उनके हाथ नियमों में बंधे होते हैं.
बीएसएफ में 18 साल से जुड़े बिहार निवासी एक जवान का कहना था कि वैसे भी हम लोग कैंप से यही सोचकर निकलते हैं कि क्या पता वापस आएं या न आएं, मगर चुनावों के समय यह अंदेशा 100 गुना बढ़ जाता है, क्योंकि चुनावी ड्यूटी में हम अपरिचित इलाकों में जाते हैं और जिनसे हमें मुकाबला करना होता है, वो उस इलाके के चप्पे-चप्पे से परिचित होते हैं. ऐसे में खतरा कई गुना बढ़ जाता है. जाहिर है, नक्सलियों के डर से सिविलियन तो हमारी मदद करने से रहे. दीपावली के मौके पर चुनावी डयूटी में जाने की बात पर ये जवान कहते हैं, ‘हमारी असली दिवाली तो सही-सलामत घर पहुंचने पर मनेगी. वैसे भी हर बार हम जब घर जाते हैं, परिजन हमारे अच्छी तरह लौटने पर पूजा-पाठ रखते ही हैं.’
नक्सलवाद के गढ़ दंतेवाड़ा समेत छत्तीसगढ के अन्य नक्सली इलाकों में पांच साल से ज्यादा गुजार चुके एक जवान का कहना था, ‘यदि सेना के हाथ में पूरा दारोमदार दे दिया जाए, तो नक्सलवाद को जड़ से खत्म करने में 6 महीने से ज्यादा नहीं लगेंगे, लेकिन राजनेता ऐसा चाहते ही नहीं हैं. जब मैं तीन साल की पोस्टिंग पर छत्तीसगढ़ आया था, तो इस जज्बे के साथ आया था कि नक्सलवाद खत्म करके ही जाऊंगा, लेकिन कुछ ही दिन में समझ आ गया कि नेता इसे कभी खत्म नहीं होने देंगे. अब हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि आखिर किस मकसद को लेकर हम देशसेवा के लिए फौज में आए थे और हम क्या कर रहे हैं?’
अब बात उन लोगों की करते हैं, जो मुख्यधारा से हटकर अभावों की जिंदगी जी रहे हैं और हालातों के चलते हथियार उठाने को मजबूर हुए हैं. छत्तीसगढ़ के बेहद पिछड़े इलाकों से ताल्लुक रखने वाले ये आदिवासी सरकार की गलत नीतियों और बुनियादी सुविधाओं के अभाव में नक्सली बन गए. बुद्विजीवियों की मानें तो वहां नक्सलवाद पर तभी लगाम लग सकती है, जब वहां सरकार विकास की झलक दिखाने में कामयाब हो सके. अभी तो हालत यह है कि कई इलाकों में न पीने को पानी है, न सड़कें हैं और न शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं हैं. बेरोजगारी, गरीबी और अन्य अभावों ने ही नक्सलवाद को पनपाया है और ग्रामीणों के मन में भी उसके प्रति सहानुभूति पैदा की है. इन मासूस ग्रामीणों की स्थिति बहुत ही बदतर है. वे नक्सलियों, सरकार और सुरक्षा बलों के बीच पिस रहे हैं. पटवारी, फॉरेस्ट ऑफिसर्स जैसी सरकारी मशीनरी इनका शोषण कर रही है, वहीं कई बार तो सुरक्षा बलों को जानकारी देने के एवज में उन्हें अपनी जानें गंवानी पड़ती है. सरकार और नेता इन्हें केवल वोटबैंक की नजर से देखते हैं. नेता इनका किस कदर इस्तेमाल करते हैं और किस तरह इनकी अनदेखी करते हैं, इसका अंदाजा चुनावी बजट से भी लगाया जा सकता है. भाजपा के ही एक नेता बताते हैं कि शहरी इलाके में भाजपा चुनावों में 10 से 12 करोड़ रुपए प्रति सीट खर्च कर रही है, वहीं बस्तर के इलाके में यह बजट एक करोड़ रुपए प्रति सीट से भी कम है.’ यानि राजनीतिक पार्टियों के लिए भी ये सीटें सस्ती हैं.
किसकी सभा में कितना दम
छत्तीसगढ़ में भाजपा और कांग्रेस दोनों के राष्ट्रीय स्तर के नेता चुनावी सभा कर रहे हैं. खबर लिखे जाने तक राहुल गांधी छत्तीसगढ़ में आधा दर्जन से ज्यादा सभाएं कर चुके थे, वहीं पीएम मोदी ने केवल दो सभाएं की थीं. अपनी हर सभाओं की तरह भाजपा ने यहां भी तड़क-भड़क दिखाने और पैसे देकर कार्यकर्ताओं की भीड़ इकट्ठा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लिहाजा, ये सभाएं आम आदमी की कम और कार्यकर्ताओं की सभाएं ज्यादा लग रही थीं. वहीं राहुल गांधी की सभाओं में भी भीड़ पहुंची जरूर, लेकिन संसाधनों और फंड की कमी साफ झलकी. मोदी की कम सभाओं के पीछे चुनावी पंडितों का मत है कि भाजपा को ज्यादा भरोसा डॉ. रमन सिंह के चेहरे पर है, वहीं कांग्रेस के पास अविवादित रूप से राज्य में कोई चेहरा ही नहीं है, इसलिए राहुल गांधी ज्यादा सभाएं कर रहे हैं.
खैर, आखिरी मौके पर कांगे्रस को एक फायदा जरूर मिला कि सतनामी गुरू बाबा बालदास ने भाजपा का साथ छोड़ कांग्रेस को अपना नया बसेरा बना लिया है. पहले अजित जोगी के कहने पर बाबाजी भाजपा के साथ आए थे और अब अकेले कांग्रेस में गए हैं, इससे वे कितने सतनामी वोटों को कांग्रेस में ट्रांसफर करा पाएंगे, यह कहना संभव नहीं है.