विडंबना यह है कि आजादी के आंदोलन के उन्हीं शहीद के भाई सुरेंद्र मिश्र सरकारी आवास और शौचालय के लिए प्रशासन के प्रत्येक अधिकारी का दरवाजा खटखटा कर परेशान हो चुके हैं. एसडीएम और बीडीओ को इतना भी टाइम नहीं है कि आर्थिक रूप से फटेहाल सुरेंद्र मिश्र की वे फरियाद सुनें. प्रशासन उनकी गुहार इसलिए भी नहीं सुनता कि उनके पास घूस देने की औकात नहीं है.
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा.’ मौजूदा दौर में ये पंक्तियां अप्रासंगिक हो गई हैं. अब लोगों को कहां फुर्सत है, शहीदों की चिताओं पर मेले लगाने की, उन्हें अपने ही झमेले से फुर्सत नहीं. सीतापुर के महोली आइए और इसे चरितार्थ होता देखिए. स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर सीमा पर शहीद होने वाले कई शहीदों की शहादतें आज स्वार्थ के सुरंग में गुम हो चुकी हैं. मुन्ने लाल मिश्र और मनोज यादव जैसे अमर सपूत शहीदों की पंक्ति में अपना नाम शुमार कर जा चुके. आज शासन-प्रशासन को या नागरिकों को उनके बारे में सुध लेने की या याद करने की फुर्सत नहीं.
मुन्ने लाल मिश्र महोली ब्लॉक के कैमहरा रघुवरदयाल निवासी हनुमान दीन के पुत्र थे. अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ भगत सिंह और चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों की शहादत से सीख लेकर आजादी के आंदोलन में शरीक हुए मुन्ने लाल अपने साथियों के साथ महात्मा गांधी के ‘करो या मरो’ आंदोलन के लिए 18 अगस्त 1942 को मोतीबाग पार्क (अब लालबाग) में एकत्र हुए थे. ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ वे वहां सभा करना चाहते थे. पुलिस बल ने मोतीबाग पार्क को घेर लिया. सभा करने पर आमादा देशभक्तों पर पुलिस ने पहले तो लाठीचार्ज किया फिर बाद में गोलियां चलाईं. पुलिस की गोली से मुन्ने लाल मिश्र शहीद हो गए. आजादी के 75 वर्षों बाद भी शासन-प्रशासन मुन्ने लाल मिश्र की शहादत को कोई सम्मान नहीं दे पाया. पूर्व सपा विधायक अनूप गुप्ता ने उरदौली-कैमरहा मार्ग पर शहीद मुन्ने लाल मिश्र की स्मृति में एक द्वार बनवाया था. उसमें भी अनूप गुप्ता ने मुन्ने लाल की जगह अपने पिता ओम प्रकाश गुप्ता को युग पुरुष अंकित कराते हुए अपनी प्राथमिकता दिखाई.
विडंबना यह है कि आजादी के आंदोलन के उन्हीं शहीद के भाई सुरेंद्र मिश्र सरकारी आवास और शौचालय के लिए प्रशासन के प्रत्येक अधिकारी का दरवाजा खटखटा कर परेशान हो चुके हैं. एसडीएम और बीडीओ को इतना भी टाइम नहीं है कि आर्थिक रूप से फटेहाल सुरेंद्र मिश्र की वे फरियाद सुनें. प्रशासन उनकी गुहार इसलिए भी नहीं सुनता कि उनके पास घूस देने की औकात नहीं है. बीडीओ कार्यालय परिसर में लगे शहीद स्मृति स्तम्भ के सीने पर महोली क्षेत्र के चालीस स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम अंकित हैं. इनमें मुन्ने लाल मिश्र का नाम शीर्ष पर है. लेकिन उन्हीं के सगे भाई की यह दुखद स्थिति है.
अब आते हैं मनोज यादव की शहादत पर. महोली कस्बे के राष्ट्रीय राजमार्ग पर, सरस्वती शिशु मंदिर के निकट बने एक पीले रंग के सूनसानघर को सब देखते हैं. यह घर शहीद फौजी मनोज यादव का है, जो 17 साल पहले जम्मू के बारामूला क्षेत्र में ड्यूटी के दौरान एक विस्फोट में मारे गए थे. अफसोस यह है कि शहादत के 17 साल बाद भी मनोज यादव अपनी ही जन्मभूमि पर गुमनाम हैं. उनके नाम पर भी शासन-प्रशासन ने कुछ नहीं किया. इलाके के प्रबुद्ध नागरिक सिस्टम की इस संवेदनहीनता पर शर्मिंदा हैं.
जीवित स्वतंत्रता सेनानी का गैर-सरकारी सम्मान, ग़नीमत है
शतायु पार कर चुके एकमात्र जीवित स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हनुमान प्रसाद अवस्थी को पिछले दिनों उनके आवास पर सम्मानित किया गया. इससे पूरे जिले ने खुद सम्मानित महसूस किया, लेकिन यह सम्मान गैर-सरकारी था. दरअसल, पूर्व केंद्रीय मंत्री रामलाल राही ने उनके घर जाकर उन्हें चांदी का मुकुट पहनाया और अंगवस्त्र व फल-फूल और मिष्ठान भेंट कर उनका सम्मान किया और उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया. इस मौके पर विधायक शशांक त्रिवेदी भी मौजूद थे. ग्रामीणों ने श्री अवस्थी के घर तक जाने वाले खड़ंजा मार्ग को आरसीसी करने और मार्ग का नाम हनुमान प्रसाद अवस्थी मार्ग करने की विधायक से मांग की.