- गोपनीय क्यों रखा गया नगा शांति समझौते का मसौदा?
- कश्मीरी अलगाववादियों की ‘आज़ादी’ की मांग राष्ट्रद्रोह
- नगा अलगाववादियों की ‘आज़ादी’ की मांग राष्ट्रवाद कैसे!
- नगालैंड का होगा अपना जज, अपनी सेना और अपनी मुद्रा
- सेना बोली, ऐसा हुआ तो नगालैंड भी हाथ से निकला समझें
- क़ानून को ठेंगा, पीएमओ ने जेल से छुड़वाया खूंखार विद्रोही
क्या मोदी सरकार पूर्वोत्तर में एक और कश्मीर स्थापित करने की कोशिश में है, जिसका अपना संविधान होगा, अपनी न्यायिक व्यवस्था होगी, अपना झंडा होगा, अपनी मुद्रा होगी, अपना पासपोर्ट होगा और अपनी सेना होगी, जो भारतीय सेना के साथ साझा तौर पर काम करेगी! भारतीय सेना के शीर्ष अफसर भी यह संकेत दे रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नगाओं को ‘आजादी’ देने जा रहे हैं, जो आने वाले समय में कश्मीर से ज्यादा खतरनाक साबित होने वाला है.
पूर्वोत्तर के साथ-साथ शेष भारत के आम लोग भी पीएम मोदी से पूछ रहे हैं कि कश्मीरी अलगाववादियों की ‘आजादी’ की मांग राष्ट्र-द्रोह और नगा विद्रोहियों की ‘आजादी’ की मांग राष्ट्रवाद कैसे है? यह वाजिब लोकतांत्रिक सवाल है, इसका जवाब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देना ही चाहिए.
केंद्र की सत्ता में आने के सालभर बाद ही तीन अगस्त 2015 को नरेंद्र मोदी सरकार ने नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड ‘ईसाक-मुइवा’ (एनएससीएन-आईएम) गुट के साथ एक समझौता किया, लेकिन देश के सामने इसका ब्यौरा नहीं रखा. केंद्र सरकार की तरफ से यह कहा गया कि पहले इसका विवरण संसद के समक्ष रखा जाएगा, फिर बाद में इसे सार्वजनिक किया जाएगा. लेकिन केंद्र सरकार ने दोनों काम नहीं किया. न संसद में रखा और न जन-संसद को इस लायक समझा.
समझौते के दो साल होने को आए, लेकिन केंद्र सरकार ने देश को यह बताने की जरूरत नहीं समझी कि समझौते के कौन-कौन से मुख्य बिंदु हैं और केंद्र सरकार ने एनएससीएन की क्या-क्या शर्तें मानी हैं. केंद्र ने इसे गोपनीय बना कर रखा है लेकिन पूर्वोत्तर मामलों के विशेषज्ञ वरिष्ठ सेनाधिकारी केंद्र सरकार द्वारा मानी गई शर्तों की परतें खोलते हैं और उन पर अपना क्षोभ जाहिर करते हैं. गृह मंत्रालय के एक आला अधिकारी ने कहा कि एनएससीएन (आईएम) के स्वयंभू लेफ्टिनेंट जनरल और विदेश मंत्री अंथोनी निंगखन शिमरे ने जमानत पर छूटने के बाद जो बातें कहीं, उसके बाद समझौते की गोपनीयता कहां रह गई.
शिमरे के बयान को ध्यान से देखें, उसने तो बता ही दिया है कि क्या होने जा रहा है. शिमरे एनएससीएन प्रमुख मुइवा का भांजा है. शीर्ष सत्ता गलियारे में जिस तरह की सुगबुगाहटें हैं, उससे केंद्र सरकार के एनएससीएन (आईएम) के आगे दंडवत होने के कई उदाहरण सामने दिखने लगे हैं. विदेशों से बड़ी तादाद में हथियारों का जखीरा जमा करने के आरोप में गिरफ्तार किए गए अंथोनी शिमरे की जमानत अर्जी पर नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) का कोई आपत्ति दर्ज नहीं करना और शिमरे को बड़े आराम से जमानत मिल जाना, केंद्र सरकार की दंडवत-कथा के बारे में काफी-कुछ कहता है.
दिल्ली के पटियाला हाउस स्पेशल कोर्ट के जज अमरनाथ के समक्ष एनआईए के स्पेशल पब्लिक प्रॉसीक्यूटर ने ‘ऑन-रिकॉर्ड’ कहा था कि उन्हें ई-मेल पर एनआईए से निर्देश मिला है कि शिमरे की जमानत अर्जी पर कोई आपत्ति दाखिल न की जाए. एनआईए के वकील ने अदालत से यह भी कहा कि शिमरे की जमानत एनएससीएन (आईएम) के साथ चल रही शांतिवार्ता के कार्यान्वयन के लिए जरूरी है. शिमरे को सितम्बर 2010 में काठमांडू में गिरफ्तार दिखाया गया था. उसे चीन के साथ हथियारों की बड़ी डील करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, लेकिन चार अगस्त 2016 को एनआईए ने ही शिमरे की रिहाई का रास्ता खोल दिया.
रिहा होने के बाद अंथोनी शिमरे ने कहा कि बृहत्तर नगालिम की स्वायत्तता, अलग संविधान, अलग न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था, अलग मुद्रा और साझा सेना समझौते की मुख्य शर्त है. शिमरे ने इसकी पुष्टि की कि समझौते के आधार पर नए नगा राज्य की अपनी अलग न्यायिक व्यवस्था, कानून व्यवस्था और प्रशासनिक व्यवस्था होगी. रक्षा मसले पर नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर आर्मी, भारतीय सेना और नगा सेना साझा तौर पर काम करेगी. नगालैंड और भारत की अपनी अलग-अलग स्वतंत्र पहचान होगी. नगालैंड की जमीन और संसाधनों का इस्तेमाल सिर्फ नगा ही करेंगे.
पूर्वोत्तर मामलों के विशेषज्ञ और पूर्वोत्तर में कोर कमांडर रहे लेफ्टिनेंट जनरल (रि.) जेआर मुखर्जी का कहना है कि अब तक जो सुराग मिले हैं उसके मुताबिक केंद्र सरकार नगाओं को अलग संविधान, अलग झंडा, अलग मुद्रा और अलग पासपोर्ट का अधिकार देने पर रजामंद हो गई है. जनरल मुखर्जी कहते हैं कि इस समझौते से नगालैंड का संयुक्त राष्ट्र में अपना प्रतिनिधि तैनात होना तय हो जाएगा. नगालैंड का विदेश और रक्षा का मसला भारत सरकार के साथ संयुक्त विषय होगा.
नगालैंड की अपनी सेना होगी जो भारतीय सेना के साथ साझा तौर पर काम करेगी. समझौते के तहत नगा बसावट के सभी क्षेत्र बृहत्तर नगालैंड में शामिल किए जाने की भी अंदर-अंदर तैयारी चल रही है. बृहत्तर नगालिम में नगालैंड के साथ-साथ मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और असम के नगा बसावट के इलाके भी शामिल होंगे. इस प्रस्ताव का मणिपुर राज्य की तरफ से पहले से पुरजोर विरोध हो रहा है.
लेकिन यह विडंबना ही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक तरफ मणिपुर की अस्मिता को अक्षुण्ण रखने की तकरीरें देते हैं तो दूसरी तरफ बृहत्तर नगालिम की स्थापना के समझौते करते हैं. सेना की पूर्वी कमान से सम्बद्ध एक वरिष्ठ सेनाधिकारी कहते हैं कि नगा समझौते में केंद्र सरकार की सहमति के ये मुद्दे अगर सच हैं, तो नगालैंड को हाथ से निकला ही समझिए. इसके अलावा जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु और प्रादेशिक राष्ट्रवाद की भावना से ओत-प्रोत कई अन्य राज्यों में हिंसक आंदोलनों के भड़कने की भी आशंकाओं को खारिज नहीं किया जा सकता.
प्रधानमंत्री मोदी ने एनएससीएन के थुइंगलेंग मुइवा और ईसाक चीसी स्वू के नेतृत्व वाले गुट से शांति समझौता किया, लेकिन एनएससीएन के एसएस खापलांग और खोले कोन्याक के नेतृत्व वाले गुट समेत कई प्रमुख गुटों को शांति वार्ता से अलग रखा. दिलचस्प यह है कि नगालैंड की अलग सेना रखने की सहमति इस तर्क पर दी गई कि खापलांग गुट का मुकाबला करने के लिए मुइवा गुट को अलग से हथियार और सेना की जरूरत होगी. समझौते पर एनएससीएन की तरफ से मुइवा ने हस्ताक्षर किए हैं.
विचित्र किंतु सत्य यह है कि नगा शांति समझौते में केंद्र सरकार द्वारा मानी जाने वाली शर्तों पर गृह मंत्रालय ने गहरी आपत्ति जताई थी, लेकिन प्रधानमंत्री और उनके सिपहसालारों ने इस आपत्ति को दरकिनार कर दिया. गृह मंत्री से बड़ी औकात सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल की साबित हुई जिनकी सिफारिश पर आरएन रवि नगा शांति समझौते के मुख्य वार्ताकार नियुक्त कर लिए गए. शांति वार्ता में मध्यस्थता के लिए पूर्व खुफिया अधिकारी आरएन रवि का नाम प्रस्तावित किए जाने का भी गृह मंत्रालय ने विरोध किया था.
गृह मंत्री ने संयुक्त खुफिया कमेटी के चेयरमैन अजित लालका नाम प्रस्तावित किया था, लेकिन मोदी ने अपने गृह मंत्री राजनाथ सिंह की नहीं सुनी और डोवाल का कहना मान कर पूर्व खुफिया अधिकारी आरएन रवि को मुख्य वार्ताकार बना डाला. मुख्य वार्ताकार की दौड़ में लेफ्टिनेंट जनरल (रि.) आरएन कपूर और असम पुलिस के पूर्व प्रमुख जीएम श्रीवास्तव का भी नाम था, लेकिन पीएमओ में उनकी नहीं चली.
गृह मंत्रालय और पूर्वोत्तर मामलों के विशेषज्ञों की आपत्तियों को नजरअंदाज कर शांति वार्ता में केवल ईसाक-मुइवा गुट को ही क्यों शामिल किया गया और खापलांग गुट को क्यों अलग-थलग रखा गया? यह गंभीर सवाल है और समझौते की संदेहास्पद-अंतरकथा का संकेत देता है. वर्ष 2015 के अगस्त महीने में केंद्र सरकार एनएससीएन ईसाक-मुइवा गुट के साथ गुप्त समझौता करती है और 16 सितम्बर को एनएससीएन खापलांग गुट पर बैन लगाने का आदेश जारी कर देती है.
केंद्र सरकार जून 2015 में मणिपुर में सुरक्षा बल के 18 जवानों के मारे जाने की घटना से खापलांग गुट को जोड़ कर, चार महीने बाद उसे आतंकवादी संगठन घोषित कर उस पर प्रतिबंध लगाती है. प्रतिबंध लगाने के पहले ही म्यांमार सीमा में घुस कर खापलांग गुट के आतंकियों को मार डालने और ठिकानों को नष्ट किए जाने के ‘मिलिट्री-स्ट्राइक’ का खूब प्रचार-प्रसार किया जाता है.
लेकिन यह असलियत देश को नहीं बताई जाती कि म्यांमार (बर्मा) सरकार ने अपने यहां सागाइंग डिवीजन को बाकायदा नगा सेल्फ-एडमिनिस्टर्ड ज़ोन घोषित कर रखा है, जिसमें म्यांमार के छह जिले तामू, मोलाइक, फुऑनपिन, होमालिन, खामटी और तानाई जिले शामिल हैं. हाल में म्यांमार सरकार ने तीन जिले वापस लिए. अन्य तीन जिलों लाएशी, लाहे और नामयुंग में खापलांग गुट का ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल स्थापित है. खापलांग गुट लगातार यह मांग करता रहा है कि शांति वार्ताओं में उसे भी शामिल रखा जाए.
लेकिन कुछ ‘अज्ञात’ वजहों से मोदी और उनके खास नुमाइंदों ने इस ताकतवर गुट को दूध की मक्खी बना कर बाहर कर दिया. पूरब के नगाओं को इस बात का गहरा मलाल है कि मोदी सरकार ने उनकी उपेक्षा की जबकि पश्चिम के नगाओं की खूब सुनी. खापलांग गुट न केवल नगालैंड बल्कि अरुणाचल प्रदेश और म्यांमार तक नगाओं के बीच खासा प्रभावी और लोकप्रिय है. इससे समझा जा सकता है कि एक गुट के साथ शांति समझौता करके केंद्र सरकार ने पूरे क्षेत्र को किस हिंसक विद्वेष की आग में झोंकने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी है.
वर्ष 1956 की बात है जब नगालैंड की स्वतंत्र पहचान की मांग हिंसक युद्ध की शक्ल में बदल गई थी और फीजो ने नगा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले लिया था. इसके बाद ही नगा पर्वतीय क्षेत्र को अशांत घोषित किया गया और उसे सेना के हवाले कर दिया गया था. तब से यह क्षेत्र लगातार अशांत ही है. तब नेहरू ने कहा था कि सेना कुछ ही महीनों में हटा ली जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और विभिन्न कारणों से सेना की मौजूदगी वहां लगातार बनी हुई है. थल सेना की तीसरी कोर का मुख्यालय दीमापुर में स्थापित है.
ईशाक-मुइवा गुट के नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) के साथ 1997 से युद्ध विराम लागू है. तबसे लगातार भारत सरकार और एनएससीएन के साथ समझौता वार्ता भी जारी है. हम यह भी याद करते चलें कि नगा नेशनल काउंसिल और केंद्र सरकार के बीच 1975 में हुए शिलांग समझौते के विरोध में 31 जनवरी 1980 को ईसाक चिसी स्वू, थुइंगलेंग मुइवा और एसएस खापलांग ने मिल कर नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड का गठन किया था. 1988 में खापलांग ने टूट कर अपना अलग गुट बना लिया.
25 जुलाई 1997 को केंद्र सरकार और एनएससीएन (आईएम) के साथ समझौता हुआ और दोनों तरफ से युद्ध विराम की घोषणा हुई. लेकिन इस दरम्यान कोई स्थायी समाधान नहीं ढूंढ़ा जा सका. 28 जून 2016 को ईसाक चिसी स्वू की मृत्यु के बाद थुइंगलेंग मुइवा एनएससीएन (आईएम) के अकेले प्रमुख हो गए. तीन अगस्त 2015 को मोदी सरकार ने एनएससीएन (आईएम) के साथ नगा शांति समझौता किया और दावा किया कि इस समझौते से 60 साल पुराने विवाद का हल निकल आया है. लेकिन क्या हल निकला, इस बारे में केंद्र सरकार ने देश को कुछ नहीं बताया.
यह सवाल देश के सामने खड़ा ही रह गया कि आखिर नगा शांति समझौते का क्या परिणाम निकला? प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी खास तौर पर पूर्वोत्तर को लेकर संजीदा दिखते रहे और पूर्वोत्तर की तमाम योजनाओं का पूरा प्रचार-प्रसार भी होता रहा. लेकिन लोगों को यह समझ में नहीं आ रहा कि नगा शांति समझौते को लेकर मोदी ने चुप्पी क्यों साध रखी है.
यह भी आधिकारिक तौर पर स्पष्ट नहीं किया गया है कि नगा शांति समझौता स्वतंत्र संप्रभु नगालिम राष्ट्र के लिए हुआ है या बृहत्तर नगालिम राज्य के लिए. सेना के सूत्र और खुद एनएससीएन (आईएम) के शीर्ष कमांडर शिमरे जिस तरह की बातें कर रहे हैं, वह नगा आजादी की तरफ बढ़ने का ही संकेत है. केंद्र को यह तो बताना ही चाहिए कि स्वतंत्र संप्रभु नगालिम की मांग करने वाले एनएससीएन (आईएम) को आखिर किन शर्तों पर समझौते के लिए राजी किया जा सका. ऐसी गोपनीयता पहली बार बरती गई है. सरकार ने केवल इतना कहा है कि इस समझौते से पिछले 60 साल से चला आ रहा गतिरोध लगभग समाप्त हो गया है.
एनएससीएन समेत कई संगठन लंबे अर्से से बृहत्तर नगालिम या ग्रेटर नगालैंड की मांग करते चले आ रहे हैं. इसके तहत मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और असम के नगा समुदाय की बहुलता वाले पहाड़ी जिलों को मिलाकर ग्रेटर नगालैंड बनाने की मांग की जाती रही है. केंद्र सरकार एनएससीएन (आईएम) को स्वायत्तता देने पर राजी हो गई है, लेकिन इसकी प्रक्रिया क्या होगी और यह कैसे लागू होगी, इस पर सस्पेंस बना हुआ है. नगा शांति वार्ता की प्रक्रिया से जुड़े गृह मंत्रालय के एक अधिकारी कहते हैं कि नगा बहुल क्षेत्रों के बृहत्तर नगालैंड में शामिल करने के मसले को फिलहाल किनारे रख कर बाकी मसलों पर दोनों पक्षों में सहमति बन गई है.
दोनों पक्ष खापलांग गुट और उसका साथ देने वाले गुटों का पूरी तरह सफाया करने पर रजामंद हैं. केंद्र ने नागालिम की मांग को सिरे से खारिज नहीं किया है. इसे फिलहाल भविष्य पर छोड़ दिया गया है क्योंकि असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में हो रहे तीखे विरोध के कारण ऐसा करना खतरे से खाली नहीं है. लेकिन नगा समझौते की मूल मांग नगा बहुल क्षेत्रों को एक साथ करने की है. एनएससीएन (आईएम) प्रमुख थुइंगलेंग मुइवा मणिपुर के उखरूल जिले के शोनग्राम (सोमडाल) गांव के रहने वाले हैं, इसलिए नगा बहुल इलाकों के विलय की मांग उनकी प्रतिष्ठा से जुड़ा मसला है.
बहरहाल, एनएससीएन प्रमुख थुइंगलेंग मुइवा के भांजे अंथोनी शिमरे की गिरफ्तारी और फिर नाटकीय रिहाई से सैन्य और खुफिया एजेंसियों का एंटीना सजग हुआ, लेकिन इस सजगता का कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला. निरंकुश पीएमओ और ताकतवर सुरक्षा सलाहकार के कारण सेना और खुफिया एजेंसियों के आला अधिकारी खुले तौर पर भले ही कुछ न कहें, लेकिन उनके अपने दायरे में इस बात को लेकर चर्चा और गहरी चिंता है कि चीन सम्बन्धों के संदर्भ में नगा समझौता भारत के लिए एक और खतरे का मुहाना खोलने जैसा होगा.
पूर्वोत्तर में आतंकवाद भड़काने के लिए चीन हथियारों की अंधाधुंध सप्लाई में लगा है. शिमरे की गिरफ्तारी इसकी आधिकारिक पुष्टि है. हथियार के एवज में चीन पैसा कम भारत की जासूसी अधिक चाहता है, ताकि उसे पूर्वोत्तर में तैनात हो रही मिसाइल प्रणालियों और सैन्य ठिकानों का पता चलता रहे. कुछ वर्ष पहले यह आधिकारिक खुलासा हुआ था कि चीनी अधिकारियों ने मणिपुर के यूएनएलएफ नेताओं से भारतीय मिसाइलों की तैनाती और सैनिकों की आवाजाही के बारे में जानकारियां मांगी थीं. लेकिन भारत सरकार ने इस मसले को नहीं उठाया और न अपना विरोध जताया.
शिमरे ने एनएससीएन की तरफ से चीन के सबसे बड़े हथियार निर्माता नोरिंको को एक लाख डॉलर का अग्रिम भुगतान किया था. चीन के हथियार निर्माता को शिमरे ने बैंकॉक में पैसा दिया था. नोरिंको के चाइना नॉर्थ इंडस्ट्रीज़ कॉरपोरेशन और एनएससीएन (आईएम) के बीच 10 हजार असॉल्ट राइफलें, पिस्तौलें, रॉकेट प्रक्षेपित हथगोलों और गोला-बारूद की खरीद के लिए डील हुई थी. यह सूचनाएं सूत्रों के हवाले से नहीं, बल्कि गृह मंत्रालय के आधिकारिक दस्तावेजों के हवाले से लिखी जा रही हैं.
सैन्य खुफिया एजेंसी के अधिकारी कहते हैं कि नोरिंको चीनी सेना का ही एक कवर-फेस है. नोरिंको और एनएससीएन (आईएम) का काफी पुराना रिश्ता है. यानि, एनएससीएन (आईएम) चीन का ही एक मुहरा है. कुछ वर्ष पहले बांग्लादेश में जो हथियारों का बड़ा भारी जखीरा पकड़ा गया था, वह एनएससीएन (आईएम) के लिए ही आया था. उसी समय नोरिंको का नाम उजागर हुआ था. विडंबना यह है कि चीन द्वारा इस तरह हथियारों की निर्बाध सप्लाई का मसला भारत सरकार ने द्विपक्षीय संवाद में या अंतरराष्ट्रीय फोरम पर कभी नहीं उठाया.
नगालैंड और पूर्वोत्तर के आतंकवादी आराम से चीन जाकर हथियारों की डील कर लेते हैं. चीन पूर्वोत्तर के आतंकी संगठनों को अपनी धरती पर ठिकाने बनाने की इजाजत भी देता है. एनएससीएन और उल्फा समेत कई संगठन चीन के यून्नान समेत कई अन्य सीमाई प्रांतों से संगठन चलाते रहे हैं. यहां तक कि चीन की सेना द्वारा आतंकियों को ट्रेनिंग देने की खबरें भी मिलती रही हैं और पीएमओ में दबती रही हैं. चीन में ट्रेनिंग लेने वाले आतंकियों में मणिपुर के यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ) के प्रमुख मेघेन का भी नाम है जिसे बाद में गिरफ्तार किया गया था. मेघेन मणिपुर राजघराने से सम्बद्ध है. उसके पास से चीन की हरकतों के जुड़े तमाम दस्तावेज बरामद किए गए थे.
अटल-मोदी लोकप्रिय, पर किन शर्तों पर!
पूर्वोत्तर राज्यों में खास तौर पर नगालैंड का मसला इतना उलझा रहा है कि आजादी के बाद से लेकर आज तक किसी भी प्रधानमंत्री को नगालैंड की धरती पर उपेक्षा और असम्मान ही प्राप्त हुआ है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके अपवाद हैं. वाजपेयी ने नगाओं की दुर्लभ ऐतिहासिक संस्कृति की प्रशंसा की थी और केंद्र सरकार द्वारा की गई गलतियों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था. अटल ने 1962 से लेकर 1965, 1971 और करगिल युद्ध तक नगालैंड के सैनिकों के योगदान और बलिदान को खास तौर पर रेखांकित किया था. इसीलिए नगाओं में अटल काफी लोकप्रिय प्रधानमंत्री हुए.
कोहिमा में 28 अक्टूबर 2003 को हुए अटल बिहारी वाजपेयी के ऐतिहासिक भाषण को आज भी नगालैंड के लोग याद करते हैं. अगस्त 2015 में नगाओं के साथ शांति समझौता कर नरेंद्र मोदी भी खासे लोकप्रिय हो गए, लेकिन इस समझौते को लेकर अरुणाचल, मणिपुर और असम में उनकी निंदा भी हो रही है. कांग्रेस के शासनकाल में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने तो कभी भी कोहिमा की यात्रा ही नहीं की. 30 मार्च 1953 को जवाहरलाल नेहरू कोहिमा गए थे, लेकिन उनकी सभा में पांच हजार नगा नागरिक नेहरू की तरफ पीठ घुमा कर बैठ गए थे. इससे नेहरू ने काफी अपमानित महसूस किया था. मोरारजी देसाई और एचडी देवेगौड़ा भी नगालैंड गए, लेकिन उनकी यात्रा कहीं भी किसी भी प्रसंग में उल्लेखनीय नहीं है.
‘संदेहास्पद’ समझौते में पेट्रोल का ‘संदेहास्पद’ रोल
एनएससीएन (आईएम) और मोदी सरकार के बीच हुए ‘संदेहास्पद’ समझौते के पीछे तेल का भी खेल है. एनएससीएन (आईएम) तेल-ब्लॉक का पूरा ठेका अपने हाथ में लेना चाहता है, जबकि कई प्रमुख उद्योगपति इसे हथियाने की फिराक में हैं. 2012 के नगालैंड पेट्रोलियम एंड नैचुरल गैस रेगुलेशंस के तहत नगालैंड के तेल-फील्ड नगालैंड सरकार के अधिकार क्षेत्र में आ गए और सरकार ने तेल का ठेका निजी कंपनियों को दे दिया. एनएससीएन व अन्य संगठनों के हिंसक विरोध को देखते हुए जब ऑयल एंड नैचुरल गैस कमीशन ने नगालैंड में तेल और गैस के स्रोत तलाशने का काम छोड़ दिया, तब ओएनजीसी द्वारा छोड़े गए तेल-फील्ड पर भी नगालैंड सरकार ने कब्जा कर लिया.
धन का सबसे मजबूत स्रोत होने के कारण पूर्वोत्तर के तेल-ब्लॉक नगा शांति समझौते की जड़ में हैं. विशेषज्ञ मानते हैं कि ये तेल-ब्लॉक अगर भारत सरकार के हाथ से निकल गए तो बड़ा पूंजी स्रोत एनएससीएन के हाथ लग जाएगा, जिसके दूरगामी नकारात्मक नतीजे निकल सकते हैं. सरकारी आकलन है कि अकेले नगालैंड में 60 करोड़ (छह सौ मिलियन) टन तेल और प्राकृतिक गैस का भंडार है. अगर इसका पूरा दोहन हुआ तो देश के तेल-गैस उत्पादन में 75 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो जाएगी. केंद्र ने बहुत दिनों के बाद एक बार फिर नई नीति बना कर ओएनजीसी और ऑयल इंडिया लिमिटेड के अधिकार क्षेत्र में रहे तेल-ब्लॉक्स को नीलाम करने का फैसला किया, लेकिन वह फैसला भी नगा शांति समझौते के पेंच में फंस गया है.
समझौता कहीं आत्मघाती न साबित हो
पूर्वोत्तर और चीन मामलों के विशेषज्ञ अधिकारी इस बात से आशंकित हैं कि एनएससीएन (आईएम) से हुआ समझौता भारत के लिए कहीं आत्मघाती न साबित हो जाए. उनका मानना है कि एनएससीएन हमेशा से चीन-परस्त रहा है, उसकी प्रतिबद्धता चीन के प्रति अधिक है. कहीं ऐसा तो नहीं कि एनएससीएन भारत सरकार के साथ समझौता करके चीन की रणनीति को ही अमल में ला रहा हो. खुफिया एजेंसियों को चीन की प्लानिंग से जुड़े कुछ दस्तावेज मिले थे. ये दस्तावेज चीन से ट्रेनिंग लेकर आए आतंकियों की गिरफ्तारी में बरामद हुए थे.
चीन का प्लान रहा है कि भारत पर पहले तिब्बत के दक्षिण की तरफ से ‘सिलीगुड़ी गलियारे’ पर धावा बोला जाए, जिससे पूरे पूर्वोत्तर को शेष भारत से काटा जा सके. फिर विद्रोही गुटों की मदद से भारतीय सेना को लंबे समय तक उलझाए रखा जाए और आराम से अरुणाचल प्रदेश के विस्तृत इलाके पर कब्जा कर लिया जाए. इसी रणनीति के तहत चीन लगातार नगा, मिजो, मणिपुरी, उल्फा समेत कई अन्य आतंकी गुटों को न केवल आधुनिक हथियार मुहैया करा रहा है बल्कि उन्हें अपने यहां सुरक्षित अड्डे और सैन्य प्रशिक्षण भी उपलब्ध करा रहा है. लेकिन मोदी सरकार के लिए यह विचारणीय प्रश्न नहीं है.
पीएमओ ने एनआईए पर दबाव डालकर शिमरे को छुड़वाया
नगा शांति समझौते में विचित्रताएं भरी पड़ी हैं. इसमें शांति कहीं नहीं है, केवल समझौता है. आज स्थिति यह है कि एनएससीएन (आईएम) देश की राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को अपना दुश्मन मानता है. चीन के साथ हथियारों की बड़ी डील करने के आरोप में बड़ी मशक्कतों से पकड़े गए एनएससीएन (आईएम) के कथित लेफ्टिनेंट जनरल अंथोनी शिमरे को एनआईए छोड़ना नहीं चाहता था. लेकिन पीएमओ की तरफ से एनआईए पर भीषण दबाव था. एनआईए का आधिकारिक तौर पर कहना था कि एनएससीएन (आईएम) एक आतंकवादी संगठन है और उसके एक शीर्ष सरगना का छोड़ा जाना देश के लिए कतई उचित नहीं है.
लेकिन मोदी सरकार के सामने एनआईए की नहीं चली. पीएमओ के दबाव में एनआईए ने शिमरे की जमानत अर्जी पर कोई आपत्ति दाखिल नहीं की और शिमरे को जमानत मिल गई. दुखद पहलू यह है कि जिस संगठन के आगे भारत सरकार नतमस्तक है, वह संगठन भारत में आतंकवादी संगठनों के बारे में खुफिया जानकारियां हासिल करने वाली नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी को अपना दुश्मन बताता है.
एनएससीएन (आईएम) का कमांडर शिमरे खुलेआम कहता है कि एनआईए नगा शांति समझौते की वार्ता प्रक्रिया को बाधित करने की साजिश कर रहा था. भारत सरकार इस पर तीखी प्रतिक्रिया जाहिर करने के बजाय चुप्पी साधे रह जाती है. शिमरे कहता है कि उसे काठमांडू से गिरफ्तार नहीं किया गया था, बल्कि उसे अगवा किया गया था. शिमरे को इस बात का भी गुस्सा है कि एनआईए ने हथियारों के कुख्यात डीलर विल्ली नारू को क्यों गिरफ्तार किया. जमानत मिलने के बाद केंद्र सरकार ने अंथोनी शिमरे को शांति वार्ता प्रक्रिया का स्थायी सदस्य बना दिया और एनआईए खंभा नोचती रह गई.
आपको यह भी बता दें कि केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त नगा समझौता वार्ता के मुख्य मध्यस्थ आरएन रवि एनएससीएन (आईएम) कमांडर अंथोनी शिमरे के गहरे दोस्त भी हैं. इसी दोस्ती का नतीजा है कि उन्होंने एनएससीएन (आईएम) के प्रमुख थुइंगलेंग मुइवा के समक्ष उनके पांच हजार हथियारबंद कैडरों को पुनर्वास योजना के तहत बीएसएफ में भर्ती कराने का आश्वासन दे डाला. सरकार की तरफ से नियुक्त मुख्य वार्ताकार आरएन रवि के इस आश्वासन पर जब विवाद गहराया, तब केंद्र सरकार को सामने आकर इससे इन्कार करना पड़ा. केंद्र ने इस खबर को गलत बता कर सिरे से पल्ला झाड़ लिया.
नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) नगालैंड सरकार और वहां के आतंकी संगठनों की साठगांठ का आधिकारिक खुलासा कर चुकी है. नगालैंड के कई सरकारी अधिकारी एनआईए के हाथों गिरफ्तार भी किए जा चुके हैं. यही वजह है कि एनएससीएन (आईएम) समेत अन्य कई आतंकी संगठन एनआईए को फूटी आंख नहीं देखना चाहते. राज्य के विकास की विभिन्न योजनाओं का धन सरकारी अधिकारियों के जरिए आतंकी संगठनों के पास पहुंचता है. एनआईए ने केंद्र सरकार को इस बात के सबूत दिए हैं कि नगालैंड सरकार आतंकी संगठनों को विकास के फंड डायवर्ट कर देती है.
एनआईए ने नगालैंड में कई जगह छापामारी अभियान चलाए और महत्वपूर्ण दस्तावेज बरामद किए, जिनसे यह खुलासा हुआ कि नगालैंड सरकार एनएससीएन (आईएम), खापलांग व कुछ अन्य गुटों को धन देती है. एनआईए ने आतंकी संगठनों को देने के लिए रखे कुछ सरकारी धन भी बरामद किए और कई सरकारी अधिकारियों से पूछताछ भी की. यह भी पता चला कि सरकारी मुलाजिमों के वेतन से 24 प्रतिशत अंश काट कर सीधे आतंकी संगठनों को पहुंचाया जाता है. सरकारी कर्मचारियों के वेतन से 24 प्रतिशत हिस्सा काटने का काम खुद सरकार करती है. नगालैंड से सरकारी कर्मचारियों से यह अघोषित टैक्स काटा जा रहा है.
सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार और सरकारी कर्मचारियों का वेतन काटकर उसे आतंकी संगठनों को दिए जाने के खिलाफ व्यापक स्तर पर अभियान चलाने वाले सामाजिक संगठन ‘अगैंस्ट करप्शन एंड अनऐबेटेड टैक्सेशन’ (एसीयूटी) ने नगालैंड के कई वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज कराई और इस बारे में राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक को पत्र लिखा. लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. एसीयूटी ने केंद्र सरकार को बार-बार लिखा कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन का जबरन काटा गया ‘टैक्स’ एनएससीएन (ईसाक-मुइवा) गुट वसूलता है, लेकिन इसका केंद्र सरकार पर कोई असर ही नहीं पड़ा. उल्टा संगठन के सदस्य एनएससीएन से जान बचाए फिर रहे हैं.
एनआईए ने एनएससीएन खापलांग गुट से साठगांठ रखने वाले समाज कल्याण विभाग के संयुक्त निदेशक तुलुला पोंजेन, भूसंसाधन विभाग के संयुक्त निदेशक (डीडीओ) एलेन्बा पैंगजुंग और उसी विभाग के कैशियर के. लाशितो शेकी को गिरफ्तार किया था. ये अधिकारी भी एनएससीएन के लिए विभिन्न सरकारी विभागों से व्यापक पैमाने पर वसूली और गैर कानूनी टैक्स काटा करते थे. इन अधिकारियों के जरिए एनएससीएन समेत कई अन्य आतंकी संगठन धन कमा रहे थे. याद रहे कि नगालैंड के आतंकी संगठनों को सरकारी कर्मचारियों द्वारा दिए जा रहे धन के बारे में चौथी दुनिया ने पहले भी ध्यान दिलाया था.
कूकी और मैतेयी की कोई सुनने वाला नहीं
केंद्र से शांति समझौता करने वाले एनएससीएन (आईएम) ने पहले से ही घोषणा कर रखी है कि स्वायत्त नगालैंड राज्य आधिकारिक तौर पर ईसाई राज्य नहीं बल्कि धर्म-निरपेक्ष राज्य रहेगा, लेकिन अन्य धर्म के लोगों को उनकी जमीनों का मालिकाना हक नहीं दिया जाएगा. अगर बृहत्तर नगालिम बना तो कूकी जनजाति जैसी कई जनजातियां बेमौत मारी जाएंगी. एनएससीएन (आईएम) के शीर्ष कमांडर अंथोनी सिमरे ने स्पष्ट कहा है कि कूकी जनजाति के लोग चाहें तो नगालैंड में रह सकते हैं, लेकिन उन्हें उनकी जमीन का स्वामित्व नहीं मिलेगा. मणिपुर के कूकी और मैतेयी समुदाय और नगा समुदाय के बीच जो खाई गहराई है, उसे राज्य और केंद्र ने और गहरा करने का काम किया है. यह आने वाले समय में भीषण हिंसक शक्ल लेने वाला है.
कूकी जनजाति भी नगाओं की तरह ही नगालैंड, मणिपुर, असम, मेघालय जैसे जिलों में बसी हुई है. कूकी जनजाति के लोग भी लंबे अर्से से अलग राज्य की मांग कर रहे हैं. मणिपुर में कूकी जनजाति की संख्या अधिक है. मणिपुर में छोटे बड़े करीब तीन दर्जन उग्रवादी संगठन सक्रिय हैं. इनमें कूकर नेशनल आर्मी (केएनए), कूकी नेशनल फ्रंट (केएनएफ), कूकी लिबरेशन आर्मी (केएलए) और कूकी नेशनल ऑर्गेनाइजेशन (केएनओे) प्रमुख हैं. दूसरे सक्रिय संगठनों में यूनाइटेड रेवोल्यूशनरी फ्रंट (यूआरएफ), पीपुल्स रेवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कांगलीपाक (पीआरपीके) और कांगलेई यावोल कानलुप (केवाईके) और कांगलीपाक कम्युनिस्ट पार्टी पखांगलाक्पा (केसीपी-पी) प्रमुख हैं.
कूकी जनजाति के लोगों की पुरानी मांग है कि सेनापति जिले के सदर हिल्स अनुमंडल को एक अलग जिला बना दिया जाए जबकि नगा जनजाति के लोग इस मांग का शुरू से ही विरोध कर रहे हैं. कूकी जनजाति के संगठन कई बार अलग राज्य की मांग पर व्यापक आंदोलन कर चुके हैं. कूकी और नगाओं में परस्पर हिंसा भी खूब होती रही है. एनएससीएन (आईएम) और भारत सरकार के बीच हुए नगा शांति समझौते में कूकी जनजाति या ऐसी कई अन्य उपेक्षित जनजातियों के उत्थान और उनकी सुरक्षा के बारे में कोई विचार नहीं हुआ है.
हालांकि मणिपुर के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने यह वादा किया है कि वे कुछ चमत्कार कर दिखाएंगे. जबकि सच यह है कि मणिपुर की मौजूदा राजनीति भी भारत सरकार और एनएससीएन (आईएम) के बीच हुए समझौते की परिधि में ही घूम रही है. मणिपुर के लोगों को आशंका है कि केंद्र सरकार ने समझौते में राज्य की क्षेत्रीय अखंडता से समझौता किया है. मुख्यमंत्री ने अपनी तरफ से कहा है कि मणिपुर के लोगों को डरने की कोई जरूरत नहीं है.
मणिपुर के लोग इससे आशंकित हैं कि बृहत्तर नगालिम में कहीं मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश के नगा बहुल क्षेत्रों का विलय न कर दिया जाए. बीरेन सिंह ने कहा है कि यह भारत सरकार और मणिपुर सरकार को तय करना है कि नगा बसावट के क्षेत्र उन्हें दिए जाएं या नहीं. मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया है कि मैदानी क्षेत्र में रहने वाले मैतेयी समुदाय के लोगों और पहाड़ पर रहने वाले नगा और कूकी समुदाय के लोगों को करीब लाने का प्रयास किया जा रहा है.
राज्य में तीन प्रमुख जनजातियां नागा, कूकी और मैतेयी हैं. मैतेयी लोग वैष्णव हिंदू धर्म को मानते हैं. लंबे समय से चले आ रहे नागा कूकी संघर्ष का खामियाजा मणिपुर के लोगों को भुगतना पड़ा है. बीरेन सिंह ने यह भी आश्वासन दिया है कि जेल में बंद यूनाइटेड नगा काउंसिल के नेता रिहा कर दिए जाएंगे. उन्होंने कहा कि मणिपुर में म्यांमार और बांग्लादेश से काफी लोग आकर बस गए हैं. लिहाजा, अब इस बेरोकटोक आगमन को रोकने के लिए एक अधिनियम लाने की आवश्यकता है. यह कानून भविष्य में होने वाले आगमन को नियंत्रित करेगा.
एनएससीएन (आईएम) को हथियार लाने ले जाने की छूट
भारत सरकार ने एनएससीएन (आईएम) को हथियार खरीदने, रखने और साथ लेकर चलने की खुली छूट दे दी है. लेकिन शर्त यह है कि उन्हें हथियार भारत सरकार से ही खरीदने होंगे. भारत सरकार ने एनएससीएन के कुछ खास कैंपों को भी हथियार रखने की छूट दे दी है. एनएससीएन (आईएम) के सदस्यों को लाल, पीला और हरा कार्ड दिया गया है.
एनएससीएन (आईएम) के जिन सदस्यों या कमांडरों के पास लाल कार्ड होगा, उन्हें अपने साथ हथियार लेकर चलने की छूट रहेगी. लाल कार्डधारी सदस्य या कमांडर अपने साथ हथियार ला और ले जा सकेंगे. भारत सरकार ने यह ‘गैर-कानूनी’ सुविधा केवल एनएससीएन (आईएम) के लिए दी है. इस कार्ड के जरिए एनएससीएन (आईएम) के कमांडर और सदस्य हथियार लेकर कहीं भी आ-जा सकेंगे.
सेना के एक अधिकारी ने कहा कि नगा शांति समझौते की यह प्राथमिक शर्त है. अलग-अलग रंग के कार्ड अलग-अलग सुविधाओं के लिए दिए गए हैं. इन कार्डों पर बाकायदा भारत सरकार और एनएससीएन (आईएम) की आधिकारिक मुहर है. ये कार्ड इस बात की सनद भी हैं कि भारत सरकार और एनएससीएन (आईएम) के बीच समझौता लागू होने की प्रक्रिया में आ चुका है.
नगाओं के कई गुट सक्रिय तो एक से इतना प्यार क्यों!
बहुप्रचारित नगा शांति समझौते को लेकर यह भी सवाल उठ रहे हैं कि केंद्र सरकार ने शांति वार्ता में केवल एनएससीएन के ईसाक-मुइवा गुट को ही क्यों शामिल रखा? केंद्र सरकार ने खापलांग गुट को प्रतिबंधित करके ईसाक-मुइवा गुट का हित क्यों साधा? बृहत्तर नगालैंड को लेकर पूर्वोत्तर के कई संगठन लंबे अर्से से आंदोलन चला रहे हैं, फिर समझौता वार्ता में उन संगठनों को शामिल क्यों नहीं किया गया? ईसाक-मुइवा गुट के साथ समझौता करने के एक महीने बाद ही केंद्र ने गैरकानूनी गतिविधियां निषेध कानून के तहत खापलांग गुट को बैन करने की अधिसूचना किस दबाव में जारी की.
केंद्र सरकार का कहना है कि मार्च 2015 में खापलांग गुट ने ही शांति वार्ता में शरीक होने से मना कर दिया था. बहरहाल, नगालैंड में खापलांग गुट के अलावा फेडरल गवर्नमेंट ऑफ नगालैंड ‘नॉन-एकॉर्डिस्ट’ (एफजीएन-एनए), फेडरल गवर्नमेंट ऑफ नगालैंड ‘एकॉर्डिस्ट’ (एफजीएन-ए), नॉन एकॉर्डिस्ट फैक्शन ऑफ नगा नेशनल काउंसिल (एनएनसी-एनए), नगा नेशनल काउंसिल ‘एकॉर्डिस्ट’ (एनएनसी-एकॉर्डिस्ट) और झेलिआंगरोंग यूनाइटेड फ्रंट (ज़ेडयूएफ) जैसे संगठन काफी सक्रिय हैं.
इनके अलावा नगा नेशनल काउंसिल ‘अडीनो’ (एनएनसी-अडीनो), नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड ‘यूनिफिकेशन’ (एनएससीएन-यू), नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड ‘खोल-किटोवी’ (एनएससीएन-केके) और नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड ‘रिफॉर्मेशन’ (एनएससीएन-आर) जैसे गुट भी अपनी सक्रियता बनाए हुए हैं. खापलांग गुट न केवल नगालैंड बल्कि मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और असम के कुछ जिलों में भी सक्रिय है. खापलांग गुट को पूर्वोत्तर का सबसे खतरनाक और ताकवर गुट कहा जाता है. नगा आदिवासियों की करीब 17 प्रमुख जातियां और 20 उप जातियां हैं.
नगा संगठन इन्हीं प्रमुख जातियों का अलग-अलग प्रतिनिधित्व करते हैं. इन सभी संगठनों में इस बात की गहरी नाराजगी है कि समझौता वार्ता में उन्हें शामिल नहीं किया गया. खापलांग गुट शांति वार्ता में शरीक होने की फिर से पहल कर रहा है. खापलांग गुट के डिप्टी कमांडर इन चीफ नीकी सूमी ने सार्वजनिक बयान दिया कि खापलांग गुट के सैन्य प्रमुख ईसाक सूमी ने म्यांमार में भारत के राजदूत विक्रम मिसरी से मिल कर शांति वार्ता में शरीक किए जाने का औपचारिक आग्रह किया. राजदूत ने भारत सरकार को इस बारे में इत्तिला भी कर दी, लेकिन केंद्र ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. खापलांग गुट द्वारा युद्ध विराम संधि तोड़े जाने को लेकर केंद्र की नाराजगी भी अपनी जगह जायज है.