क्या बुलेट ट्रेन एक सफेद हाथ साबित होगी या इसके सहारे भारत उन्नत प्रौद्योगिकी के नए युग में दाखिल होगा? यदि आप तार्किक रूप से इस सवाल पर विचार करेंगे, तो इसका केवल एक ही संभावित जवाब आपको मिलेगा.
जापान ने टोक्यो और ओसाका के बीच अपनी उच्च-गति की शिंकानसेन लाइन की शुरुआत 1964 में की थी. उस समय उसकी अधिकतम गति सीमा 210 किमी/घंटा थी, अब यह 350 किमी/घंटा है. पहली बुलेट ट्रेन के संचालन से लेकर अब तक 10 अन्य देशों ने अपना हाई-स्पीड नेटवर्क विकसित कर लिया है. इन देशों में चीन का स्थान सबसे ऊपर है. चीन में 89 हाई स्पीड पटरियां हैं, जिनकी लम्बाई 26,783 किमी है, जबकि जापान के पास 17 हाई स्पीड पटरियां हैं, जो 3416 किमी है. हाई स्पीड ट्रेन ट्रैक विकसित करने वाले अन्य देश हैं फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन, दक्षिण कोरिया और तुर्की. गौरतलब है कि इन देशों में से कोई भी शिंकानसेन प्रणाली का उपयोग नहीं करता. अब सवाल यह उठता है कि क्या जापानी तकनीक वास्तव में सबसे अच्छी है? ऐसा लगता है कि यह फैसला लेने से पहले शिंकानसेन प्रणाली का अन्य प्रणालियों की तकनीकी के साथ तुलनात्मक मूल्यांकन नहीं किया गया है. तो क्या इसका मतलब यह है कि हम आंख मूंदकर एक लाख करोड़ रुपए से अधिक की परियोजना शुरू करने जा रहे हैं.
बहस के लिए मान लेते हैं कि शिंकानसन प्रणाली का मुकाबला किसी भी अन्य उपलब्ध तकनीक के साथ किया जा सकता है, लेकिन सवाल है कि भारतीय इंजीनियरिंग को इसके सहारे नई बुलंदियों तक कैसे पहुंचाया जा सकता है? सरकारी हलकों से यह दावा किया जा रहा है. यहां यह जान लेना दिलचस्प होगा कि कुछ साल पहले, जापान ने चीन को उच्च गति का रेल नेटवर्क बनाने की पेशकश की थी. कई दौर की बातचीत के बाद वार्ता इस पर आकर रुक गयी कि जापान तकनीक हस्तांतरण के लिए तैयार नहीं था. आम तौर पर इस तरह की वृहत् परियोजना में एक खास अवधि के बाद तकनीक का हस्तांतरण होता है.
परियोजना पर सहमति के दूसरे दिन ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस का एक महत्वपूर्ण बयान आया. उनका कहना था कि परियोजना के लिए कच्चे माल और मजदूर कहां से आएंगे? जाहिर है भारत से! परियोजना में इस्तेमाल होने वाली हरेक चीज (सेवा से लेकर सामग्री तक) में राजस्व सृजन की अपार क्षमता होगी. अन्य राजनेताओं की तरफ से भी फडणवीस के अंदाज़ का ही बयान आया. गौर करने वाली बात यह है कि किसी ने भी प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण की बात नहीं की. सरकार या सरकारी स्रोतों की तरफ से भी इस सिलसिले में अबतक कोई खुलासा नहीं किया गया है. क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि जापानियों ने कहा है कि वे सुरक्षा की गारंटी तब देंगे, जब वे पूरी प्रणाली का निर्माण करेंगे? संभवतः यह शर्त बुलेट ट्रेन के उन परियोजनाओं पर भी लागू होगी जिसके तहत भविष्य में प्रमुख महानगरों को जोड़ने का प्रस्ताव है. इस पृष्ठभूमि में हमारी टेक्नोलॉजी उन्नत कैसे होगी?
अगर परियोजना का कोई तकनीकी मूल्यांकन नहीं हुआ और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण का कोई समझौता नहीं हुआ, तो क्या कम से कम कोई व्यवहार्यता रिपोर्ट तैयार की गई थी? ज़ाहिरी तौर पर हां! लेकिन उसकी तफसील कहां है? इसका जवाब किसी के पास नहीं है, क्योंकि नौकरशाही ने उस रिपोर्ट को साझा करने से इंकार कर दिया. यहां तक कि आरटीआई आवेदनों को भी ख़ारिज कर दिया गया. बहरहाल, हमारे पास ताइवान का उदाहरण मौजूद है. वहां जापानी शिंकानसन प्रणाली स्थापित की गई थी. ताइवान में 1990 के दशक के शुरू में बीओटी मॉडल (बिल्ड, ऑपरेट और ट्रांसफर मॉडल) के आधार पर एक उच्च गति वाली ट्रेन सिस्टम स्थापित करने के लिए निजी कंपनियों का एक संघ बनाया गया था.
वर्ष 2007 में 14.3 अरब डॉलर के निवेश के साथ यह सिस्टम चालू हुआ. वर्ष 2014 आते-आते इस रेल के संचालक दिवालिया हो गए थे. उन्हें कुल 1.5 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा था. चूंकि यह नेटवर्क जनता के हित के लिए था, इसलिए ताइवानी सरकार ने कंपनियों के इस संघ को इस घाटे से उबारने के लिए सरकारी खजाने से 1 अरब डॉलर की सहायता दी और संचालकों के शेयर को 60 फीसदी तक कम कर दिया. भारत में बीओटी मॉडल को बहस में ही नहीं लाया गया. ज़ाहिर है इसका कारण यह था कि कोई भी निजी कंपनी इस पर बोली लगाने के लिए तैयार ही नहीं होती. दरअसल कैपिटल-इंसेंटिव मेट्रो परियोजना (बीओटी) की विफलता हर किसी के सामने है.
दिल्ली में भाजपा सरकार ने यूपीए सरकार की कई योजनाओं को अपनाया (इस दावे के साथ जैसे वो उनके विचार की उपज हों), मिसाल के तौर पर जीएसटी. इसलिए यहां यह जानना जरूरी है कि यूपीए सरकार ने बुलेट ट्रेन परियोजना को अव्यवहार्य करार देते हुए खारिज कर दिया था. वास्तव में, तत्कालीन वित्त सचिव राकेश मोहन ने यहां तक कह दिया था कि यदि जापान ऋृण के बजाय आर्थिक अनुदान भी देता है, तो भी वो इस परियोजना को स्वीकृति नहीं देंगे.
उन्होंने ऐसा इसलिए कहा होगा, क्योंकि एक अनुमान के मुताबिक मुंबई-अहमदाबाद सेवा के किराए को उचित स्तर पर बनाए रखने के लिए प्रति दिन करीब एक लाख यात्रियों को सफर करना पड़ेगा. दोनों शहरों के बीच ़िफलहाल केवल 18 हजार लोग प्रतिदिन यात्रा करते हैं. इसका मतलब यह है कि या तो किरायों को हवाई जहाज़ के किराए से अधिक करना पड़ेगा या फिर इसे एक स्थाई सब्सिडी देनी पड़ेगी.
जापान के लगभग ब्याज-मुक्त ऋृण को कई तरह से पेश किया गया. जापानी 1,10,000 करोड़ रुपए लागत की कुल परियोजना का 88 हजार करोड़ रुपये का ऋृण 50 साल की अवधि के लिए दे रहे हैं, शेष राशि का भार केंद्र सरकार एवं गुजरात और महाराष्ट्र सरकार वहन करेंगे. यदि जापान द्वारा भारत को की गई 0.10 फीसदी ब्याज दर की पेशकश बहुत अनुकूल है, तो कुछ अन्य बिंदुओं पर भी विचार करना चाहिए. 10 साल के जापानी सरकारी बांड पर ब्याज दर 0.04 फीसदी है और अन्य ब्याज दरें नकारात्मक भी हो सकती हैं. ये तथ्य बहुप्रचारित जापानी दरियादिली की पोल खोल देते हैं.
भारत और जापान के बीच ब्याज दरों में अंतर (हमारे 10 वर्षीय सरकारी बॉन्ड की ब्याज दर 6.5 फीसदी है), का एक और गंभीर एवं दीर्घकालिक प्रभाव है. एक वित्तीय विश्लेषक के मुताबिक, अगर हम औसत भारतीय मुद्रास्फीति को तीन प्रतिशत और जापानी मुद्रास्फीति को शून्य पर मानते हैं तो जापानी मुद्रा येन के मुकाबले में रुपए की कीमत हर साल तीन प्रतिशत कम होगी. इस लिहाज़ से देखा जाए तो आने वाले 50 वर्षों में ऋृण की मूल राशि 88 हजार करोड़ रुपये दोगुनी से अधिक हो जाएगी. कुल मिला कर कहा जाए तो बुलेट ट्रेन हमारी भावी पीढ़ियों के सिर पर तनी बन्दूक के बुलेट की तरह हो जाएगी.
एक सवाल यह भी है कि प्रधानमंत्री के बुलेट ट्रेन के सपने को पूरा करने के अलावा, इस परियोजना का कौन सा दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य है? रेलवे मामलों के जानकार और नीति आयोग के सदस्य विवेक देवरॉय (जो किसी सरकारी-विरोधी खेमे से संबद्ध नहीं हैं) के मुताबिक भारत में रेल के 95 प्रतिशत लोग राजधानी या शताब्दी ट्रेनों से स़फर नहीं करते हैं. केवल पांच प्रतिशत भारतीय मौजूदा सुपर फास्ट ट्रेनों से स़फर करते हैं, क्योंकि अन्य लोगों की जेब अतिरिक्त किराया बर्दाश्त नहीं कर सकतीं. संक्षेप में कहें तो बुलेट ट्रेनें देश की आबादी के केवल पांच प्रतिशत लोगों की यात्रा को तेज करने जा रही हैं. ये वो लोग हैं जिनके पास पहले से ही हवाई यात्रा का विकल्प मौजूद है.
आइए इस परियोजना को एक वृहत् परिदृश्य में देखने की कोशिश करते हैं. बुलेट ट्रेन परियोजना पर 1,10,000 करोड़ रुपये की लागत आने वाली है. पिछले साल के रेल बजट में संपूर्ण भारतीय रेलवे व्यवस्था के लिए कुल 1,21,000 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया था. बुलेट ट्रेन की सेवा का लाभ केवल दो शहरों के बीच यात्रा करने वाले लोगों की एक छोटी संख्या ही ले सकेगी. वहीं भारतीय रेलवे प्रणाली में रोजाना 13 हजार से अधिक ट्रेनें चलती हैं. ये ट्रेनें प्रति वर्ष देश में 8 अरब लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाती हैं और 100 करोड़ टन माल की ढुलाई करती हैं. यदि बुलेट ट्रेन और भारतीय रेल पर होने वाली लागत पर नज़र डालें तो दोनों आंकड़ों में बहुत अंतर नज़र नहीं आता.
तो अब आप ही फैसला कर लीजिए कि भारत को वास्तव में क्या चाहिए? चंद गिने-चुने लोगों के लिए धमाकेदार बुलेट ट्रेन या एक बड़ी, बेहतर और सुरक्षित प्रणाली जिसका उपयोग सभी कर सकें? क्या वास्तव में आप इस सवाल के जवाब के इंतज़ार में हैं?
–(साभारःइंडियन एक्सप्रेस)