देश की सबसे बड़ी प्रजातंत्र की संस्था –संसद – के पिछले कुछ समय में दो चेहरे सामने आये. एक में प्रधानमंत्री की विपक्ष के एक नेता की सदन की सदस्यता ख़त्म होने विदाई भाषण में रोने की. अन्य सदस्य भी ग़मगीन थे. यह संसद का बेहद सकारात्मक मानवीय चेहरा था जिसमें पक्ष-विपक्ष का भेद मिट गया था.
देश की जनता को इस चेहरे से सूकून मिला. लेकिन कुछ माह पहले संसद के इसी सदन में किसान-संबंधी तीन बिल बलात पास करवाए गए और वह भी विपक्ष की वोट कराने की मांग को धकियाते हुए. बिलों पर व्यापक चर्चा करना तो छोडिये, ये तीनों बिल परम्परा को ठेंगा दिखाते हुए संसदीय समिति के पास भी नहीं भेजे गए. दुनिया के अधिकांश संसदों में कानून बनाने की प्रक्रिया में बिलों को संसदीय समितियों के पास भेज कर विस्तार से हर पहलू पर चर्चा की परम्परा है.
लेकिन भारत में सरकार की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह बिलों को समिति में भेजे या सीधे संसद के सदनों में अपने बहुमत के बूते पर पास करवा ले. शायद यही वजह है कि पिछले डेढ़ वर्षों में संसद द्वारा बनाये गए सभी कानून — अनुच्छेद ३७० हटाने का कानून, नागरिकता संशोधन कानून और अब किसानों के लिए बने तीन कानून –सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन रहे. क्यों जनता द्वारा चुना गया प्रजातंत्र का सबसे बड़ा मंदिर विश्वास खो रहा है? क्यों विपक्षी दलों के वोट की मांग करने वाले आठ “माननीयों” को अपने निलंबन के खिलाफ गांधी की प्रतिमा के नीचे रात बैठना पड़ा?
व्यक्तिगत भावना पर संस्था की गरिमा के प्रति प्रतिबद्धता हमेशा भारी पड़नी चाहिए लेकिन देखने में आया कि जहाँ यूपीए के दोनों काल में क्रमशः ६० और ७१ प्रतिशत बिल समितियों के पास व्यापक चर्चा के लिए भेजे गए, वर्तमान पीएम के पहले कार्यकाल में मात्र २५ प्रतिशत और नए कार्यकाल में एक भी नहीं. अपने दोनों कार्यकालों में वर्तमान पीएम हर साल ३.६ बार संसद में बोले लेकिन हर तीन दिन में दो बार संसद के बाहर जबकि मनमोहन सिंह हर साल संसद में ४.८ बार और वाजपेयी ११ बार बोले. वर्तमान पीएम ने संसदीय जीवन की शुरुआत हीं इसके भव्य इमारत की चौखट पर शाष्टांग प्रणाम कर की थी. आंसू, दंडवत होना लेकिन संसदीय परम्पराओं की अनदेखी करना विरोधाभासी हैं. लेकिन रोना, संसद भवन के द्वार पर शाष्टांग दंडवत करना टीवी की भाषा में विजुअल इंपैक्ट डालता है लेकिन सदन में गंभीर मुद्दे पर चर्चा की ना तो पॉलिटिकल टीआरपी आती है ना हीं चैनलों की टीआरपी।
एन के सिंह