इस कहानी में कुछ भी नया नहीं है. यह स़िर्फ भारतीय क़ानून का एक अनोखा अंदाज़ है. मणिपुर की आयरन लेडी इरोम शर्मिला एक बार फिर रिहा हुईं और गिरफ्तार भी हो गईं. यह एक वार्षिक परंपरा है. ग़ौरतलब है कि शर्मिला पूर्वोत्तर से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट-1958 हटाने की मांग को लेकर पिछले 15 वर्षों से आमरण अनशन पर हैं. राज्य सरकार ने उन्हें आत्महत्या की कोशिश के आरोप में आईपीसी की धारा 309 के तहत गिरफ्तार किया था.
न्यायिक हिरासत की समय सीमा पूरी होने पर हर वर्ष उन्हें रिहा किया जाता है और फिर तुरंत गिरफ्तार भी कर लिया जाता है. जैसे शर्मिला का अनशन जारी है, वैसे यह परंपरा भी पिछले 15 वर्षों से जारी है. न तो शर्मिला अपना अनशन तोड़ रही हैं और न केंद्र-राज्य सरकारें उनकी मांग के प्रति कोई सकारात्मक रुख अपना रही हैं, जिससे यह रिहाई-गिरफ्तारी का सिलसिला ख़त्म हो. इस बार भी उन्हें बीती 29 फरवरी को रिहा किया गया, लेकिन उनका अनशन जारी था. सो, वह फिर गिरफ्तार कर ली गईं.
शर्मिला को आत्महत्या के आरोप में 15 बार गिरफ्तार और रिहा किया जा चुका है. यह एक तरह से मज़ाक भी है. सवाल यह है कि क्या शर्मिला सचमुच अपना जीवन ख़त्म करने के लिए अनशन कर रही हैं? कतई नहीं. शर्मिला कई बार अपनी इच्छा ज़ाहिर कर चुकी हैं कि वह भी अन्य लोगों की तरह जीना चाहती हैं, भोजन-पानी करना चाहती हैं, शादी करना चाहती हैं. शर्मिला ने अपना प्यार अब तक संजो रखा है.
वह उस दिन के इंतज़ार में हैं, जब उन्हें अपने मकसद में कामयाबी मिलेगी. शर्मिला ने अपनी मां से वादा कर रखा है कि जिस दिन वह अपने संघर्ष में सफल होंगी, उस दिन उनके हाथों से खाना खाएंगी. लेकिन, आज के दौर में शर्मिला का संघर्ष फीका पड़ता जा रहा हैै. बीते 15 वर्षों से उनकी सेहत लगातार बिगड़ती जा रही है. इस बार जब वह रिहा हुईं, तो महिला कार्यकर्ताओं के सहयोग से इंफाल स्थित शहीद मीनार पर माथा टेकने के बाद वहीं अनशन पर बैठ गईं. पुलिस द्वारा मना करने पर उन्हें वहां से हटना पड़ा. मीडिया से उन्होंने कहा, मैं यहां इसलिए आई हूं, ताकि मेरा संघर्ष सफल हो. मैं अफ्सपा के ख़िलाफ़ लड़ती रहूंगी.
शर्मिला ने कहा कि सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि हत्या या दमन कोई समाधान नहीं है. इस मा़ैके पर मणिपुर के राजा लैसेंबा सनाजाउबा भी शर्मिला से मिलने आए. उन्होंने कहा कि शर्मिला इस संघर्ष में अकेली नहीं हैं. सभी लोग अफ्सपा से पीड़ित हैं, इसलिए घाटी एवं पहाड़ों में रहने वाले सभी लोगों को इस संघर्ष में शामिल होना चाहिए. इंफाल को अशांत क्षेत्रों की सूची से हटाकर अफ्सपा ख़त्म किया जाना चाहिए. शर्मिला को इस बात का भी अफ़सोस है कि उनकी मांगों का समर्थन जिस पैमाने पर होना चाहिए, नहीं हो रहा है.
शर्मिला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पत्र लिख चुकी हैं, लेकिन उसका कोई जवाब उन्हें नहीं मिला. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने स्पष्ट कर दिया है कि अफ्सपा को पूर्वोत्तर से हटाना संभव नहीं है. एक तरफ़ तो केंद्र पूर्वोत्तर के राज्यों को मुख्य धारा में जोड़ने की बात करता है, वहीं दूसरी तरफ़ अफ्सपा जैसे काले क़ानून को लेकर उसका रुख लचीला है. अगर पूर्वोत्तर में शांति के लिए अफ्सपा ज़रूरी है, तो फिर बीते 15 वर्षों में पूर्वोत्तर, ख़ासकर मणिपुर में शांति क्यों नहीं स्थापित हो सकी, सिवाय अलगाव की भावना बढ़ाने के? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब एक न एक दिन सरकार को देना होगा.
क्या है आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (1958)
आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट संसद में 11 सितंबर, 1958 को पारित किया गया था. यह क़ानून पूर्वोत्तर के अशांत राज्यों जैसे असम, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम एवं नगालैंड में लागू है. यह क़ानून अशांत क्षेत्रों में सेना को विशेषाधिकार देने के लिए बनाया गया था. अफ्सपा लागू होने के बाद पूरे पूर्वोत्तर में फर्जी मुठभेड़, बलात्कार, लूट एवं हत्या जैसी घटनाओं की बाढ़ आ गई.
जब 1958 में अफ्सपा बना, तो यह राज्य सरकार के अधीन था, लेकिन 1972 में हुए संशोधन के बाद इसे केंद्र सरकार ने अपने हाथों में ले लिया. संशोधन के मुताबिक, किसी भी क्षेत्र को अशांत क्षेत्र (डिस्टर्ब एरिया) घोषित कर वहां अफ्सपा लागू किया जा सकता है. इस क़ानून के सेक्शन 4-ए के अनुसार, सेना किसी पर भी गोली चला सकती है और अपने बचाव के लिए शक को आधार बना सकती है. सेक्शन 4-बी के अनुसार, सेना किसी भी संपत्ति को नष्ट कर सकती है.
सेक्शन 4-सी के अनुसार, सेना किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है और वह भी बिना वारंट के. सेक्शन 4-डी के अनुसार, सेना द्वारा किसी भी घर में घुसकर बिना वारंट के तलाशी ली जा सकती है. सेक्शन 6 के अनुसार, केंद्र सरकार की अनुमति के बिना सेना के ख़िला़ङ्ग कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. ग़ौरतलब है कि जीवन रेड्डी कमेटी ने भी सरकार को संकेत कर दिया था कि यह क़ानून दोषपूर्ण है और इसमें संशोधन की ज़रूरत है.
कब और क्यों शुरू हुआ अनशन
दो नवंबर, 2000 को असम राइफल्स के जवानों ने इंफाल से सात किलोमीटर दूर मालोम बस स्टैंड पर 10 बेकसूर लोगों को गोलियों से भून डाला. घटना की दिल दहला देने वाली तस्वीरें अगले दिन स्थानीय अख़बारों में छपीं. मरने वालों में 62 वर्षीया महिला लिसेंगबम इबेतोम्बी एवं 18 वर्षीय सिनाम चंद्रमणि भी शामिल थे. चंद्रमणि 1988 में राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार पा चुका था. इस घटना से विचलित होकर 28 वर्षीया शर्मिला ने चार नवंबर, 2000 को सत्याग्रह शुरू कर दिया.