देश में कोरोना के कहर के चलते मेडिकल ऑक्सीजन की किल्लत को दूर करने के लिए विदेशों से आॅक्सीजन आयात करने का मोदी सरकार का फैसला सही है। एक तरह से यह जीवनरूपी सांसे आयात करने का अहम फैसला है। लेकिन इस फैसले का व्यावहारिक असर दिखने में वक्त काफी लगेगा। इसी तरह देश में सौ अस्पतालों में मेडिकल आॅक्सीजन उत्पादन का निर्णय भी हुआ है। उसका लाभ भी भावी मरीजों को ही मिल सकेगा। फिलहाल गंभीर समस्या यह है कि मेडिकल ऑक्सीजन की कमी तो तुरंत कैसे पूरा किया जाए? कोविड मरीजों की टूटती सांसों को कैसे थामे रखा जाए। केन्द्र सरकार ने देश में ऑक्सीजन उत्पादक संयंत्रों को उत्पादन बढ़ाने और ऑक्सीजन का औद्योगिक उपयोग रोकने के लिए कहा है।

कुछ संयंत्रों ने ऑक्सीजन का उत्पादन बढ़ाया भी है, लेकिन वो ऑक्सीजन वेंटीलेटर पर लेटे रोगियों तक पहुंचने में वक्त लेगी। हालांकि सरकारी आंकड़े अभी भी बता रहे हैं कि देश में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है, लेकिन अस्पतालों में प्राणवायु के अभाव में दम तोड़ते मरीज दूसरी कहानी कह रहे हैं। दरअसल यह एक शर्मनाक और शोचनीय स्थिति है कि हम मरीजों को ठीक से और पर्याप्त ऑक्सीजन भी नहीं दे पा रहे हैं। कई अस्पतालों में डाॅक्टर और परिजन असहाय होकर रोगी को अपनी आंखों के सामने दम तोड़ता देख रहे हैं, पर कुछ कर नहीं पा रहे हैं। क्योंकि ऑक्सीजन सिलेंडर है ही नहीं, है भी उतना नहीं है, जितना चाहिए और मिल भी रहा है तो ब्लैक में। कुछ अस्पताल तो गंभीर कोरोना मरीजों को भर्ती करने पर इस बिना पर साफ इंकार कर रहे हैं कि उनके पास ऑक्सीजन ही नहीं है। भर्ती करके भी क्या करेंगे?
इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति और क्या हो सकती है कि पेशंट अस्पताल में प्राणवायु के अभाव में ही मर जाए। पर यह हो रहा है। क्योंकि कोरोना-2 लहर में फेंफड़ों के संक्रमण के मामले बेतहाशा बढ़ रहे हैं। सरकार ने ऑक्सीजन आयात का फैसला तब किया है, जो देश भर में कोविड संक्रमितों की तादाद दिन में 2 लाख के पार हो गई है।

ध्यान रहे कि कोरोना काल में ऑक्सीजन किल्लत की स्थिति पिछले साल अगस्त में भी बनी थी, तब मप्र सहित कई राज्यों में इधर उधर से ऑक्सीजन का इंतजाम किया गया था। उसी दौरान मप्र सरकार ने आत्मनिर्भरता के तरत होशंगाबाद जिले के बाबई में एक निजी कंपनी को ऑक्सीजन प्लांट लगाने का लायसेंस दिया था। बताया जाता है कि वहां अभी बाउंड्री वाल ही बन सकी है। उत्पादन और आपूर्ति कब शुरू होगी, कोई नहीं जानता। दरअसल मेडिकल ऑक्सीजन की ताबड़तोड़ जरूरत और ऑक्सीजन प्लांट लगाने में वही सम्बन्ध है, जो प्यास लगने और कुआं खोदने में है। कहते हैं कि उस प्लांट में भी उत्पादन इसलिए शुरू नहीं हो सका, क्योंकि जब तक कारखाना लगाने की स्थिति बनी, तब तक कोरोना की लहर उतार पर थी और बाजार में मेडिकल ऑक्सीजन की मांग फिर घट गई थी। जाहिर है कि कोई उद्योगपति अल्प समय के लिए बढ़ी अतिरिक्त मांग को पूरा करने के लिए अपनी उत्पादन क्षमता स्थायी रूप से बढ़ाने के पचड़े में क्यों पड़ेगा ? क्यों उसमें निवेश करेगा?

वैसे भी देश में मेडिकल ऑक्सीजन की सामान्य मांग की पूर्ति पहले हो ही जाती थी। लेकिन‍ पिछले साल के अनुभव के बाद इसे गंभीरता से नहीं लिया गया कि आगे भी कभी अचानक मेडिकल ऑक्सीजन की मांग कई गुना बढ़ जाएगी तो उस स्थिति में आपात योजना क्या है? नई व्यवस्था के लिए मरीजों के बड़े पैमाने पर मरने का इंतजार किया जाएगा या फिर ऐसे मामले सामने आते ही शुरूआत में ही तुरंत बड़े पैमाने पर ऑक्सीजन सप्लाई की कोई वैकल्पिक व्यवस्था काम शुरू कर देगी। अधिकृत आंकड़े बताते हैं कि देश में कुल ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता 7127 मी.टन प्रतिदिन की है, जो वर्तमान में अपनी क्षमता से ज्यादा यानी 7300 मी.टन का उत्पादन कर रही है।

सरकार का दावा है कि अभी भी उत्पादित ऑक्सीजन का केवल 54 प्रतिशत उपयोग ही हो रहा है। सरकार यह भी कह रही है कि जितनी मेडिकल ऑक्सीजन की जरूरत‍ देश को पिछले साल अगस्त में थी, फिलहाल इसकी आवश्यकता तुलनात्मक रूप से कम ही है। अगर ऐसा है तो दिक्कत कहां है? उत्पादन में या उसके वितरण में? और इसमें गड़बड़ी अगर हो रही है तो उसे रोकने की जिम्मेदारी किसकी है? यहां यह भी उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री ने मेडिकल ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता और अन्य मेडिकल इक्यूपमेंट्स की उपलब्धता के आकलन को लेकर भी अधिकारियों को निर्देश दिए हैं।
बहरहाल केन्द्र सरकार ने 50 हजार मी.टन ऑक्सीजन विदेशों से आयात करने का फैसला किया है।

इसके लिए पीएम केयर्स फंड से 2 हजार करोड़ रू. मंजूर किए गए हैं। यह जानकारी पीएम केयर्स की वेबसाइट पर दी गई है। पीएम केयर्स फंड की गोपनीयता को लेकर भी कई सवाल उठाए गए थे, लेकिन अगर उस फंड का उपयोग जनस्वास्थ्य के कामों में किया जा रहा है तो यह अच्छी बात है। केन्द्र सरकार के इंपॉवर्ड ग्रुप-2 की बैठक में यह भी तय हुआ कि पीएम केयर्स फंड से देश में 100 नए अस्पतालों में ऑक्सीजन प्लांट लगेंगे। गौरतलब है कि देश में मध्यप्रदेश सहित 12 राज्यों में ऑक्सीजन को लेकर भीषण मारामारी है। इस बीच एक अच्छी खबर यह भी है कि सीएसआईआर के देहरादून स्थित भारतीय पेट्रोलियम संस्थान ने 500 लीटर की ऑक्सीजन एनरिचमेंट यूनिट (ऑक्सीजन संवर्द्धन इकाई) तैयार की है।

यह कीमत में भी काफी सस्ती है। संस्थान का दावा है कि एक यूनिट से 5 से लेकर 25 गंभीर मरीजों की ऑक्सीजन थेरेपी इस यूनिट से की जा सकती है। इसका व्यापक प्रचार और वितरण होना चाहिए। बहुतों को औद्योगिक आक्सीजन और मेडिकल ऑक्सीजन के बीच फर्क का अंदाज नहीं है। दोनो में बुनियादी अंतर यह है कि इलाज के काम आने वाली मेडिकल ऑक्सीजन की शुद्धता का प्रमाण और पैमाना औदयोगिक ऑक्सीजन की तुलना में काफी अधिक होता है। जबकि औद्योगिक ऑक्सीजन वेल्डिंग, गैस कटिंग आदि कई कामों में आती है।

बाजार में दोनो की मांग होती है। यहां असली सवाल यह है कि सरकार ने इन तमाम फैसलों का जरूरतमंदों तक लाभ कब तक पहुंचेगा? क्योंकि आयात की सरकारी प्रक्रिया, उसकी आपूर्ति और गंतव्य तक पहुंचने की चेन इतनी लंबी है कि उसके पूरी होने तक कितने पेशंट की सांसों की चेन टूट जाएगी, कल्पना की जा सकती है। क्योंकि ‍विदेशों से अगर हवाई जहाज से भी ऑक्सीजन लाई जाएगी तो भी अस्पतालों तक पहुंचने में उसे कई दिन लग जाएंगे। इस समस्या का तत्काल निदान क्या है, यह बड़ी चुनौती है।

वैसे विदेश से ऑक्सीजन का भी आयात करना पड़े, इसका प्रतीकात्मक महत्व है और वो ये कि प्राणवायु जैसी बुनियादी और नैसर्गिक जरूरत की आपूर्ति के लिए हमे विदेशों से मदद लेनी पड़ रही है। कहा जा सकता है कि यह एक असामान्य स्थिति और संकटजन्य मांग है, इसलिए ऑक्सीजन का आयात करना पड़ रहा है। सही है, लेकिन संकट ही आत्मनिर्भरता की परीक्षा लेते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ हर साल 8 जून को दुनिया भर में ऑक्सीजन दिवस मनाता है। मकसद यही रहता है कि पेड़ पौधे और पर्यावरण बचाएं ताकि इंसान को ऑक्सीजन सुगमता से मिलती रहे। वो ऑक्सीजन जो जीने के लिए नितांत जरूरी है। हमे तो अगले कई दिनो तक रोज ऑक्सीजन दिवस मनाना पड़ सकता है। कोरोना को दोष देने के साथ-साथ यह प्रश्न हमे आत्मचिंतन पर भी विवश करता है कि ऐसी स्थिति क्यों बनी?

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल

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