दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक बार फिर मांग की है कि सरकार देश के नागरिकों के लिए समान आचार संहिता बनाए और संविधान की धारा 44 में जो अपेक्षा की है, उसे पूरा करे। समान आचार संहिता का अर्थ यह नहीं है कि देश के 130 करोड़ नागरिक एक ही भाषा बोलें, एक ही तरह का खाना खाएं या एक ही ढंग के कपड़े पहनें। उस धारा का अभिप्राय बहुत सीमित है। वह है, शादी, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने आदि की प्रक्रिया में एकता। भारत में इन मामलों में इतना अधिक पोगापंथ और रूढ़िवाद चलता रहा है कि आम आदमी का जीना दूभर हो गया था। इसलिए 1955 में हिंदू कोड बिल पास हुआ लेकिन यह कानून भी कई आदिवासी और पिछड़े लोग नहीं मानते। वे अपनी घिसी-पिटी रूढ़ियों के मुताबिक शादी, तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने के अपने ही नियम चलाते रहते हैं।
वे अपने आप को हिंदू कहते हैं लेकिन हिंदू कोड बिल को नहीं मानते। इसी तरह का एक तलाक का मुकदमा दिल्ली उच्च न्यायालय में आया हुआ था। उच्च न्यायालय ने सिर्फ हिंदुओं के बारे में ही नहीं, प्रत्येक भारतीय के लिए समान आचार संहिता बनाने की मांग की है। सभी धर्मों की अपनी-अपनी आचार-संहिता है, जो सैकड़ों या हजारों वर्ष पहले बनी थीं। उस देश-काल के हिसाब से वे शायद ठीक रही होंगी लेकिन आज की बदली हुई परिस्थितियों में उन्हें आंख मींचकर अपने पर थोपे रहना कहां तक ठीक है ? क्या आज किसी राजा दशरथ की तीन रानियां और किसी द्रौपदी के पांच पति रह सकते हैं? यही सवाल दुनिया के सभी मजहबों में बताई गई आचार-संहिताओं से पूछा जा सकता है।
शादी-ब्याह के जो नियम और तौर-तरीके हजार-दो हजार साल पहले यूरोप और अरब देशों में प्रचलित थे, क्या अब वे उन्हें मान रहे हैं ? नहीं। तो हम उन्हें क्यों मानें ? उनका अंधानुकरण क्यों करें ? इसीलिए जैसे हिंदू कोड बिल बना, वैसे ही भारतीय कोड बिल भी बनना चाहिए। मोदी सरकार ने तीन तलाक प्रथा को खत्म करके समान आचार संहिता का रास्ता जरुर खोला है लेकिन उससे उम्मीद की जाती है कि जैसे नेहरु और आंबेडकर ने हिंदूवादियों के घनघोर विरोध के बावजूद हिंदू कोड बिल को पुख्ता कानून बनवा दिया, वैसे ही देश के अन्य धर्मावलंबियों के पारंपरिक कानूनों को भी बदलवाने का साहस वर्तमान सरकार को दिखाना चाहिए। भारत के हिंदुओं में जितनी जातीय और भाषिक विविधता है, उतनी मुसलमानों और ईसाइयों में नहीं है।
यदि देश के बहुसंख्यक हिंदू एकरुप कानून को मान रहे हैं तो मुसलमान, ईसाई और यहूदी क्यों नहीं मानेंगे ? यूरोप और अमेरिका में रहनेवाले किसी भी धर्म, किसी भी वंश, किसी भी जाति, किसी भी रंग के आदमी के लिए कोई अलग कानून नहीं है। यदि सभी नागरिकों के लिए समान कानून बन जाए तो वह राष्ट्रीय एकता को मजबूत बनाने में विशेष भूमिका अदा करेगा। तब अंतरधार्मिक, अंतरजातीय और अंतरभाषिक विवाह आसानी से होने लगेंगे। यदि गोवा में पुर्तगालियों द्वारा 1867 में बनाई समान आचार-संहिता लागू हो रही है तो हमारी अपनी समान आचार संहिता पूरे भारत में क्यों नहीं लागू हो सकती है?