दक्षिण कश्मीर में पिछले दिनों खूनी खेल हुआ. हर कोई जानता है कि कश्मीर एक खतरनाक स्थिति में पहुंच चुका है. 1 अप्रैल को 3 सैनिकों और 17 परिवारों के लोगों समेत कुल 20 मौतें हुईं और इसी के साथ 1 अप्रैल अब तक का सबसे खूनी दिन बन गया. 1 अप्रैल को क्रूर मजाक वाला दिन भी कह सकते हैं. इससे भी बुरा यह है कि इस पूरी स्थिति को और उलझाया जा रहा है और सच्चाई को अस्वीकार किया जा रहा है. आज कश्मीर के शिक्षित युवा तेजी से इस संघर्ष में शामिल हो रहे हैं. यह स्थिति भी कश्मीर के लिए असहनीय है. यह समय शोक गीत गाने का नहीं, बल्कि सोचने-विचारने का है.
कश्मीरियों ने सदियों से दुनिया को दिखाया है कि प्रतिरोध का स्परूप कैसा होता है और पिछले 27 सालों में इस बात का प्रमाण भी मिला है. वे 13 लोग मारे गए, जिन्होंने कश्मीर में भारतीय शासन को चुनौती देने के लिए हिंसा का रास्ता चुना था. लेकिन विरोध कर रहे लोगों के साथ खड़े होने के कारण चार और लोग गोलियों का शिकार हो गए. आखिरी बार 2016 में प्रतिरोध के कारण भारी संख्या में लोग मारे गए थे. इसमें करीब 100 लोग मारे गए और हजारों घायल हुए. पिछले दिनों पैलेट छर्रों के कारण 150 लोग घायल हुए या अंधे हुए.
सुरक्षा बलों का कहना है कि दक्षिण कश्मीर मिलिटेंसी का हॉट बेड है और मिलिटेंसी के समर्थन में मिलने वाली स्वयंसेवा खतरनाक है. यही कारण है कि मिलिटेंट रैंक में अब स्थानीय रंगरूट शामिल हो रहे हैं और चुनौती के नए आयाम निर्मित हो रहे हैं. इनका यह भी मानना है कि आतंकवादियों को मारना, उनकी संख्या कम करना और फिर सामान्य स्थिति का दावा करना, इनका एकमात्र काम है. हालांकि यह सिद्धांत बार-बार गलत साबित हुआ है.
अगर मिलिटेंट को मारने से तथाकथित सामान्य स्थिति बनती है, तो इसे अब तक सामान्य हो जाना चाहिए था. वास्तविकता यह है कि समाज की भागीदारी, भारत के खिलाफ समेकित क्रोध और एक राजनीतिक प्रस्ताव की मांग लगातार तीव्र होती जा रही है. हर बार कश्मीर में जब उबाल आता है, राज्य की तरफ से सामान्य प्रतिक्रिया यही मिलती है कि यह पाकिस्तान-प्रायोजित आतंक है. यहां तक कि 2016 में छह महीनों से अधिक समय तक बड़े पैमाने पर चलने वाले जन संघर्ष को भी पाकिस्तान-प्रायोजित बता दिया गया. हम हर बार भूल जाते है कि एक पूरी पीढ़ी युद्ध के मुहाने पर है.
राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने जब पिछले साल हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के एक दर्जन से ज्यादा मध्यवर्गीय नेताओं को गिरफ्तार किया, तो कहा गया कि पत्थरबाजी की घटनाओं में कमी आएगी. अगर ऐसा ही था तो फिर कश्मीर का दर्द कम होना चाहिए था. सशस्त्र प्रतिरोध के लिए दक्षिण कश्मीर एक उपजाऊ मैदान बन गया है. पिछले कुछ महीनों के आंकड़े बताते हैं कि यह मिलिटेंसी के लिए एक नया ‘भर्ती अभ्यारण्य’ साबित हो रहा है. वे प्रशिक्षण के लिए पाकिस्तान नहीं जाते. यहीं इसका प्रबंधन करते हैं. यह समझना महत्वपूर्ण है कि इतनी बड़ी संख्या में युवाओं ने इस मार्ग को क्यों चुना है. अगर बुरहान वानी मिलिटेंसी का पोस्टर ब्यॉय था और उसे मार दिया गया था, तब तो इस रूझान को वहीं खत्म हो जाना चाहिए था.
2017 में सरकारी बलों ने मिलिटेंटों को खत्म करने के लिए ऑपरेशन ऑल आऊट शुरू किया और रिकॉर्ड संख्या में मिलिटेंटों को मारा. उस तर्क से तो दक्षिण कश्मीर को आतंकवाद मुक्त हो जाना चाहिए था. यह सच्चाई है कि पिछले कुछ महीनों में मिलिटेंट कैंप में भर्ती में बढ़ोतरी हुई है. जिस बिंदु पर मैं बार-बार अपने कॉलम में चर्चा कर रहा हूं, वो ये है कि हिंसा के जरिए संघर्ष को सामाजिक मंजूरी मिल गई है. यह दृष्टिकोण भारतीय राज्य से लड़ने का एक वैध तरीका बनता जा रहा है.
जब 1989 के उत्तरार्ध में सशस्त्र विद्रोह हुआ, तो असंतोष के कारण एक विस्फोट हुआ. राजनीतिक अधिकारों से वंचित नेताओं और समस्या के समाधान के लिए आवश्यक संकल्प की कमी से इस संघर्ष को बल मिला. इस तथ्य के बावजूद कि भारत विरोधी भावना को आगे बढ़ाने में पाकिस्तान भूमिका निभा रहा है, अंतर्निहित वास्तविकता यह है कि लोगों ने खुद भी इसमें दिलचस्पी ली है.
1990 के दशक के उत्तरार्ध में हिंसा से अहिंसा की तरफ स्थिति मुड़ी. लोगों को लगा कि हिंसा कश्मीरी और कश्मीर को कहीं भी नहीं ले जाएगा. भारत, पाकिस्तान और कश्मीरी नेताओं (गिलानी को छोड़कर) की भागीदारी के साथ शांति के लिए जगह बननी शुरू हुई. हालांकि, दिल्ली द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण से यह भी पटरी से उतर गया.
आज की मुख्य चिंता यह है कि इस युद्ध में कश्मीर के युवाओं का उपयोग किया जा रहा है और यह एक आकार ले चुका है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि कश्मीर का संघर्ष राजनीतिक है, लेकिन भीतर की लड़ाई उन तत्वों से है, जिनके विचार हमारे लिए अनजाने हैं.
हमारे युवाओं को इस हिंसा में पीसने से कौन बचाएगा? प्राथमिक जिम्मेदारी नई दिल्ली की है, जिसे लोगों को हिंसा की तरफ जाने से रोकना चाहिए और यह स्वीकार करना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर एक राजनीतिक वास्तविकता है. मुख्यधारा के राजनीतिक दल इस स्थिति से भाग रहे हैं. इससे उनकी प्रभावशीलता में भी कमी आई है. लोगों ने उन्हें चुना जरूर है, लेकिन नैतिक प्रभाव का प्रतिनिधित्व करने की बात करें, तो उन्होंने इसे खो दिया है. सेना के इस्तेमाल का दृष्टिकोण और समाधान के रूप में मृतकों की संख्या गिनना, जैसे कदम असफल रहे हैं. यह आतंकवाद के विचार को और आगे बढ़ाता है.
अपनी जिम्मेदारी को कम कर रहे राजनीतिक नेतृत्व, जैसे हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के पास इस स्थिति का सामना करने का कोई रास्ता नहीं है. चूंकि वे नए बैनर के तहत लोगों का नेतृत्व कर रहे हैं, इसलिए उन्हें एक ऐसा समाधान देना होगा, जो हमारे युवाओं को बचाए. केवल निंदा पर्याप्त नहीं होगी. मसला केवल दक्षिण कश्मीर का नहीं है, लोगों की प्रतिक्रिया पूरी घाटी में एक समान है.
नई दिल्ली को समझना चाहिए कि ताकत से अब तक कुछ भी हासिल नहीं हुआ है. यह राजनीतिक रूप से भाजपा की मौजूदा सरकार को सूट करता हो, लेकिन उसने अपना नैतिक आधार खो दिया है, क्योंकि यह कश्मीरी घरों में जिंदा लोगों की लाश जाने जैसे कृत्य पर गर्व करता है. पाकिस्तान सहित सभी राजनीतिक स्तरों पर ईमानदारी से सार्थक बातचीत ही कश्मीर में खून से भरी मिटट्ी की जगह खिलते ट्यूलिप को देखने का एकमात्र तरीका है.
-लेखक राइजिंग कश्मीर के संपादक हैं.