एक परिंदा, गिरा ज़मीं पर घायल होकर
सबने देखा, उसे मदद मांगते मुहँ खोलकर
सबने देखा, शौक की खातिर किसने मारा
बस सबने देखा तर्क दिया, न दिया सहारा
और बोले…
वाह! ये तो उस शातिर का कमाल है
देखो! पक्षी का तो होना ही ये हाल है
अरे बताओ,
संवेदना से कुतर्क कब जीत गया?
मुझे बताओ, कब कैसे ये हो गया?

एक बालिका, अबोध अचेत मिली भोर को
सबने देखा, तार तार होती अस्मिता को
सबने देखा, जाति -जाति को मिटा रही थी
बस सबने तर्क दिया, आंखें भटक रहीं थी
और बोले
अरे! सवर्ण है नया खून है यूं ही बहका होगा
अकेली निकली होगी, ऐसा तभी हुआ होगा
अरे बताओ,
संवेदना से कुतर्क कब जीत गया?
मुझे बताओ, कब कैसे ये हो गया?
कुतर्क कैसे समाज का लहजा हो गया?

जी वेंकटेश,
लेखक, 1973 में भोपाल में जन्मे, और 1997 से, भारत में, एक वास्तुविद एवं नगर निवेशक हैं। वह एक शिक्षाविद, समाज सेवी, कलाकार एवं दार्शनिक भी हैं।

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