kashmirपाकिस्तान प्रशासित कश्मीर, आधिकारिक तौर पर आजाद जम्मू और कश्मीर (एजेके) और गिलगित-बाल्तिस्तान को और अधिक प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियां प्राप्त होने जा रही है. वैसे नाम आजाद कश्मीर है, लेकिन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली शक्तिशाली कश्मीर काउंसिल के पास महत्वपूर्ण कार्यकारी, विधायी और वित्तीय शक्तियां हैं. गिलगित-बाल्तिस्तान के मामले में भी ऐसा ही है. लेकिन बदलाव की एक नई हवा पहाड़ी क्षेत्र में आ रही है.

प्रधानमंत्री शाहिद खान अब्बासी ने कश्मीर परिषद को खत्म करने के लिए बोल दिया है और क्षेत्र के सशक्तिकरण के लिए मार्ग तैयार किया है. तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने आजाद जम्मू और कश्मीर अंतरिम संविधान 1974 लाया था. इसके चार दशक बाद अब नए प्रावधान किए जा रहे हैं. हालांकि ये तुलना पूर्ण नहीं है, लेकिन एजेके के सशक्तिकरण का नाटक भी उस जम्मू-कश्मीर की तरह ही है, जहां नई दिल्ली कानून बना कर अपनी कठपुतली सरकार के जरिए करती रही है.

1961 तक क्षेत्र को संचालित करने के लिए, नेताओं का चुनाव करने के लिए कोई उचित तंत्र नहीं था. इस्लामाबाद और मुजफ्फराबाद के बीच संबंधों की नींव 1949 के कराची समझौते में निहित है, जिसमें रक्षा, विदेश नीति, मुद्रा, यूएनसीआईपी के साथ वार्ता और गिलगित-बाल्तिस्तान के जनमत संग्रह और नियंत्रण के लिए समन्वय शामिल है. लेकिन 1950, 1952 और 1958 में, स्थानीय लोगों को सशक्त बनाने के लिए नियम तैयार किए गए थे. 1961 में, प्रथम राष्ट्रपति चुनाव लोकतांत्रिक प्रणाली पर आयोजित किया गया था, जिसे तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान ने पेश किया था.

इसके बाद, शासन को सुधारने के लिए दो नए अधिनियम पेश किए गए. हालांकि, जब भुट्टो ने  निर्वाचित अध्यक्ष सरदार अब्दुल कय्यूम खान को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया, फिर से चुनाव करा कर अपनी सरकार स्थापित की, तो सबकुछ बदल गया. इसके बाद संविधान में बदलाव हुआ और कश्मीर परिषद नामक एक सेट-अप अस्तित्व में आया. एजेके असेंबली द्वारा चुने गए छह सदस्यों के साथ, सीनेट और नेशनल असेंबली के पांच सदस्यों को नामित किया गया, जिसमें कश्मीर मामलों के मंत्री और गिलगित-बलातिस्तान के एक पदेन सदस्य हैं, प्रधानमंत्री खुद अध्यक्ष बने.

विधानसभा और प्रधानमंत्री के लिए कुछ भी नहीं छोड़ा गया क्योंकि विधानसभा को 52 विषयों पर कानून बनाने से रोक दिया गया था. वित्त, कर जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर कश्मीर काउंसिल का अधिकार रहा, जिसने आज़ाद कश्मीर में समानांतर सरकार चलाया. एजेके से एकत्र टैक्स को मनमाने ढंग से केसी द्वारा खर्च किया गया और न्यायाधीशों की नियुक्ति और चुनाव आयोग भी परिषद के अधीन हो गया. स्थिति को पुनर्स्थापित करने के लिए लंबा संघर्ष चला और एजेके के वर्तमान प्रधानमंत्री राजा फारूक हैदर खान, परिषद को खत्म करने के सबसे पुराने समर्थकों में से एक हैं. 2009 में, इस्लामाबाद के वर्चस्व को चुनौती देने के प्रयासों को तेज करने के कारण उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. स्थानीय सिविल सोसाइटी समूह ने परिषद को हटाने के लिए लगातार दबाव डाला.

एजेके/इस्लामाबाद स्थित एक थिंक टैंक, द सेंटर फॉर पीस, डेवलपमेंट एंड रिफॉर्म्स ने 2010 में अभियान शुरू किया और इसके बारे में जागरूकता पैदा करना जारी रखा. इस थिंक टैंक ने ऑनलाइन एक याचिका डाली हुई है, जिसके मुताबिक, परिषद को 52 विषयों पर निरंकुश क्षेत्राधिकार और कार्यकारी शक्ति प्राप्त है, जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक विकास, राजस्व निर्माण, पर्यटन, वित्त, सार्वजनिक नीति और सामाजिक-राजनीतिक विकास, जल विद्युत उत्पादन, दूरसंचार जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निर्णय लेने में निर्वाचित सरकार की क्षमता में बाधा उत्पन्न होती है.

यह ज्ञात नहीं है कि अब्बासी सरकार कैसे इस तरह के एक महत्वपूर्ण सुधार से सहमत हुई. योजना आयोग के अध्यक्ष सरताज अजीज की अध्यक्षता वाली एक समिति के बाद ऐसा हुआ जो गिलगिट-बाल्तिस्तान के सुधारों के लिए काम कर रहा था. अब सरकार ने दोनों परिषद, कश्मीर परिषद और जीबी परिषद को बन्द करने का फैसला किया है. जीबी मामले में, मुख्यमंत्री हाफिज उर रहमान को कुछ आपत्ति थी क्योंकि उन्हें अस्थायी प्रांतीय स्तर का आनंद मिल रहा था.

बाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने इस्लामाबाद में निहित सभी शक्तियों को वापस लेने और उसे जीबी विधानसभा को देने का फैसला किया. 70 वर्षों तक जीबी सीधे इस्लामाबाद द्वारा नियंत्रित किया गया है. चूंकि यह एक नियंत्रित क्षेत्र था, मानवाधिकार उल्लंघन के मुद्दे संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की वार्षिक बैठकों में और नई दिल्ली में भी नियमित रूप से उठती रही है. अब जब शक्तियों को पूरी तरह से स्थानीय सरकार में निहित किया गया है, तो इससे अंतर आ सकता है.

गिलगित-बाल्तिस्तान काउंसिल पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक स्वतंत्र विधायी निकाय थी और इसे 2010 में स्थापित किया गया था. परिषद को 52 विषयों पर कानून बनाने का अधिकार था. तब राष्ट्रपति आसिफ जरदारी थे, जिन्होंने 2009 में जीबी के लिए भारी सुधार लाया. राष्ट्रपति मुशर्रफ ने भी कुछ सुधारों की शुरुआत की जिससे ये क्षेत्र स्थानीय प्रशासन का नेतृत्व करने के लिए विधानसभा सदस्यों और एक उपमुख्य कार्यकारी अधिकारी का चुनाव करने में सक्षम बना.

भारत के पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन एक दिलचस्प लेकिन एक बड़े संदर्भ में इसकी व्याख्या करते हैं. अपनी नवीनतम पुस्तक हाउ इंडिया सी द वर्ल्ड में लिखते हैं, मुशर्रफ ने गिलगिट-बाल्तिस्तान में निर्वाचित निकायों को बनाने के लिए कार्रवाई शुरू की ताकि उसे प्रस्तावित संयुक्त तंत्र (जम्मू और कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान के बीच) में पेश कर सकें.

जीबी के मामले में, पाकिस्तान सरकार की एक दुविधा है. यह इसे एक प्रांत बनना चाहता है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के तहत जम्मू और कश्मीर राज्य के अंतिम संकल्प की मांग की बात आ जाती है. इस्लामाबाद के दिमाग में ये बदलाव पाकिस्तानी संविधान के 18 वें संशोधन के अनुरूप है, जिसके मुताबिक 2010 में प्रांतों को विकेन्द्रीकृत शक्तियां और अधिकार प्रदान किए गए थे.

पाकिस्तान सरकार का निर्णय एक मील का पत्थर है. यह इस क्षेत्र में फैले असंतोष का समाधान तो करेगा ही, साथ ही जम्मू-कश्मीर विवाद पर भी इसका असर होगा. यह देखना बाकी है कि क्या इस्लामाबाद ने भारत के सामने कोई राजनीतिक चाल चली है? क्या भारत भी भारत प्रशासित कश्मीर के लिए भी ऐसा ही कुछ करेगा? तथ्य यह है कि यह निर्णय बेहद महत्वपूर्ण है और इस्लामाबाद और मुजफ्फराबाद के बीच एक नए रिश्ते को परिभाषित करेगा.

–लेखक राइजिंग कश्मीर के संपादक हैं.

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