फांसी’ शब्द हिंदी में स्त्रीलिंगी भले हो, लेकिन दुर्दांत अपराधी महिलाओं को भी फांसी पर चढ़ाने के मामले विरल ही हैं। आजाद भारत में अब तक केवल एक महिला फांसी के फंदे पर झूली है। दुर्भाग्य से इसकी अगली कड़ी उत्तर प्रदेश की शबनम हो सकती है, जिसकी दया याचिका भी खारिज हो चुकी है। शबनम उन शातिर अपराधियों में से है, जिसने प्यार में अंधी होकर अपने ही परिजनों की जघन्य हत्या कर दी। अपने प्रेमी का बच्चा पेट में लिए अपने मां-बाप और परिजनों को कुल्हाड़ी से काटते वक्त उसके हाथ जरा भी नहीं कांपे।
शबनम पढ़ी-लिखी और शिक्षा मित्र थी। यह भयावह हत्याकांड उसने अपने प्रेमी सलीम के साथ मिलकर अंजाम दिया था। शबनम को दी जाने वाली संभावित फांसी से उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले के उसके गांव बावनखेड़ी के लोगों को रत्ती भर रंज नहीं है, उल्टे इंतजार है कि इस हत्यारी औरत को जितनी जल्दी हो फांसी दी जाए। शबनम की यह रक्तरंजित कहानी कुछ सवाल भी खड़े करती है। मसलन ममता और जज्बात की प्रतिमूर्ति कोई औरत इस कदर निष्ठुर और हिंसक कैसे हो सकती है?
शत्रु तो दूर उन अपनों को निर्ममता से कत्ल कैसे कर सकती है, जिन्होंने उसे जन्म दिया, पाला-पोसा? एक अदद प्रेम तमाम संवेदनाओं पर इतनी क्रूरता से साथ कैसे हावी हो सकता है? अपराध करने, अपराधी बनने में स्त्री-पुरूष जैसा कोई भेद नहीं है ? और यह भी कि क्या मृत्युदंड से ऐसे जुर्म रूक सकते हैं? क्योंकि अपराध और खासकर हत्या वो मनस्थिति है, जब इंसान इंसानियत से मीलों दूर चला जाता है।
बीते तेरह साल से जेल में बंद अमरोहा जिले की शबनम की कहानी कुछ ऐसी है की जिसे बावनखेड़ी के लोग कभी सुनाना नहीं चाहेंगे। उस गांव में 2008 में 14-15 अप्रैल की दर्म्यानी रात में एक खौफनाक हादसा हुआ। जिसे गांव के शौकत मास्टर की इकलौती बेटी शबनम ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर अंजाम दिया था। उसने अपने पिता शौकत, मां हाशमी, भाई अनीस और राशिद, भाभी अंजुम, 10 माह के भतीजे अर्श और फुफेरी बहन राबिया का कुल्हाड़ी से कत्ल कर दिया था। मारने से पहले रात में इन सब के खाने में नशीला पदार्थ मिला दिया गया था।
इस सामूहिक हत्याकांड की वजह यह बताई जाती है कि पोस्ट ग्रेजुएट शबनम एक कम शिक्षित मजदूर सलीम के प्यार में पागल थी, लेकिन परिजन इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं थे। इसका बदला शबनम ने इस खूनी तरीके से लिया कि पूरा गांव थर्रा उठा। अब आलम यह है कि गांव में कोई परिवार अपनी बेटी का नाम शबनम नहीं रखता। अधिकृत जानकारी के अनुसार शबनम को मथुरा के फांसी घर में सजा एक मौत दी जाने वाली है, लेकिन तारीख अभी तय नहीं है। उसका डेथ वारंट भी अभी जारी नहीं हुआ है। परंतु नियमों के मुताबिक जल्लाद ने उस जगह का मुआयना कर लिया है, जहां शबनम को आखिरी सांस लेनी है।
वैश्विक संदर्भ में देखें तो शबनम का मामला अकेला नहीं है। अमेरिका के प्रसिद्ध काॅर्नेल लाॅ स्कूल ने 2018 में एक वैश्विक अध्ययन रिपोर्ट ‘ द काॅर्नेल सेंटर ऑन द डेथ पेनाल्टी वर्ल्डवाइड’ प्रकाशित की थी। इसका मकसद दुनिया के देशो में मृत्युदंड कानूनों की की स्थिति तथा उस पर अमल और इस मामले में जेंडर पूर्वाग्रह का अध्ययन करना था। रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया की विभिन्न जेलों में इस वक्त लगभग 500 महिलाएं कई अपराधों में मौत की सजा का इंतजार कर रही है ( कई पश्चिमी देशों में जहां मृत्युदंड नहीं दिया जाता, वहां बहुत लंबी सजाएं दी जाती हैं)।
रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2008 से लेकर 2018 तक अलग-अलग देशों में 100 महिलाओं को मृत्युदंड दिया गया था। हालांकि ऐसी खूंखार अपराधी महिलाएं, उनकी मानसिकता, उनका पारिवारिक जीवन, उनके प्रति समाज की सोच, इन महिलाओं द्वारा इतने जघन्य अपराध कर गुजरने के पीछे मनोवैज्ञानिक कारण स्वतंत्र शोध व अध्ययन का विषय हैं। खासकर उन महिलाओं के जिनके छोटे बच्चे होते हैं और जिन्हें मातृत्व के बीच ही फांसी के फंदे पर चढ़ जाना होता है।
रिपोर्ट यह भी कहती है यदि महिला पुरूषो की तरह जघन्य अपराध करे तो भी उसे मृत्युदंड देने के मामले में न्याय व्यवस्थाएं कुछ नरमी या सहानुभूति से फैसले देती हैं। विश्व के जिन देशो में महिलाओं को सजा-ए-मौत दी जाती है, उनमें से अधिकांश को नृशंस हत्याओं , ड्रग्स, डायन आदि मामलों में मृत्युदंड दिया गया है। यह भी पाया गया कि मौत की सजा पाने वाली ये ज्यादातर मुजरिम महिलाएं अशिक्षित अथवा कम शिक्षित थीं। उनके द्वारा किए गए अपराधों में गरीबी भी एक कारण रहा है। .
रिपोर्ट के मुताबिक इसकी वास्तविक संख्या पता करना बहुत मुश्किल है कि दुनिया के कितने देशों में कितनी महिलाअों को मृत्युदंड दिया गया है, लेकिन रिसर्च में यह बात सामने आई कि विश्व में जितने लोगों को मौत की सजा दी जाती है, उनमें महिलाओं की हिस्सेदारी 5 फीसदी ही है और इतना ही प्रतिशत उन महिलाओं का है, जिन्हें अदालत द्वारा सुनाए गए मृत्युदंड के बाद बाकायदा फांसी पर टांग दिया गया हो।
जहां तक हमारे देश का सवाल है तो यहां अंग्रेजों ने महिलाअोंको फांसी देने के लिए मथुरा जेल में एक विशेष फांसी घर 1870 में बनाया था, जो आज भी है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार आजादी के बाद केवल एक महिला अपराधी रत्तन बाई जैन को 1955 में फांसी पर चढ़ाया गया था। रत्तन बाई को यह सजा तीन लड़कियों की हत्या के मामले में दी गई थी। लेकिन उसके बाद किसी महिला मुजरिम को फांसी पर नहीं टांगा गया है, हालांकि देश की विभिन्न जेलों में करीब 12 महिला अपराधी फांसी दिए जाने की कतार में है।
शबनम के पहले 2014 में महाराष्ट्र की दो शातिर अपराधी महिलाओं सीमा मोहन गावित और रेणुका किरण शिंदे को कोल्हापुर कोर्ट ने मृत्युदंड की सजा सुनाई थी। इन दो महिलाओं ने जिन वारदातों को अंजाम दिया था, उसे सुनकर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उन पर 43 बच्चों के अपहरण और 13 बच्चों की हत्या के मामले अदालत में सिद्ध हुए। ‘महिला सीरियल किलर’ के नाम से कुख्यात हुई ये दोनो सगी बहनें पहले बच्चों से चोरी और लूट करवाती थीं, और बाद में उनकी निर्ममता के साथ हत्या कर देती थीं।
उनके इस भयंकर अपराध का राज तब खुला, जब वो रंगे हाथों पकड़ी गईं। इन दोनो महिला अपराधियों की फांसी सजा सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखी और राष्ट्रपति भी उनकी दया याचिका ठुकरा चुके हैं, लेकिन किन्हीं कारणो से अभी तक दोनो को फांसी नहीं दी गई है। महिलाओं को मृत्युदंड के लगभग सभी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने सजा एक मौत को आजीवन कारावास में बदल दिया है। इसके पीछे महिलाओं के प्रति रहम दिली और कानूनी खामी भी हो सकती है। अगर शबनम को सचमुच फांसी हुई तो यह आजाद भारत में किसी दूसरी महिला को फांसी होगी। हो सकता है कि इसके बाद और अन्य मृत्युदंड प्राप्त महिला अपराधियों को भी फांसी पर चढ़ा दिया जाए।
इसकी व्याख्या इस रूप में भी की जा सकती है कि अब मृत्युदंड के मामले में भी महिला पुरूष अपराधियों के बीच कोई भेदभाव नहीं रहा। हालांकि एक स्वस्थ समाज की दृष्टि से यह कोई अच्छी बात नहीं है। अपराधी को कठोर सजा के साथ-साथ इस बात पर भी गंभीर चिंतन जरूरी है कि अपराध हो क्यों रहे हैं? अपराधियों को सजा देने में लैंगिक भेदभाव न होने पर संतोष करने से ज्यादा अहम यह है कि अपराध हो ही न।
जिन मामलों में अदालतो ने औरतों को मौत की सजा दी है, उनसे यह भी पता चलता है कि अगर शक्ति के रूप में महिला दुष्ट दमन कर सकती है तो अपराधी बनकर भी वह कहर ढा सकती है। असल में यह मानवीय कमजोरी है। वरना ‘शबनम’ शब्द ही इतना कोमल और शबनमी है कि उस संज्ञा में किसी खून-खच्चर की कल्पना भी दूभर है। कोई ‘शबनम’ किसी पंखुड़ी पर ढुलकने की जगह फांसी के तख्ते पर झूल जाए, यह सोच भी भीतर से हिला देता है।
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल