जब देश में कोरोना जैसे महाराक्षस से एकजुट होकर लड़ने की दरकार है, उस वक्त में भी किसी न किसी मुद्दे पर राजनीति हो रही है, बल्कि यूं कहें कि राजनीति की गुंजाइश छोड़ी जा रही है। ऑक्सीजन सप्लाई पर बवाल के बाद अब सियासत का नया मुद्दा कोरोना वैक्सीन का है। कोविशील्ड बनाने वाली कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया एसआईआई ने हाल में अपनी वैक्सीन के तीन दाम घोषित किए तो नया राजनीतिक घमासान शुरू हो गया। कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चिट्ठी लिखकर केन्द्र सरकार की वैक्सीन नीति पर सवाल उठाते हुए आरोप लगाया की सरकार वैक्सीन में मुनाफखोरी को बढ़ावा देना चाहती है।
उन्होंने कहा इतनी मंहगी वैक्सीन से राज्य सरकारों पर भारी वित्तीय बोझ पड़ेगा। उन्होने पूछा कि एक ही वैक्सीन के तीन दाम कैसे हो सकते हैं? उधर तेलंगाना के उद्योग मंत्री के.टी.रामा राव ने सवाल उठाया कि वैक्सीन की कीमत को लेकर केन्द्र व राज्य सरकारों की दरों में एकरूपता क्यों नहीं है? पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि वैक्सीन की वाजिब, पारदर्शी और होनी चाहिए। उधर कोविड वैक्सीन निर्माता दूसरी भारतीय कंपनी भारत बायो टेक ने अभी अपनी वैक्सीन कोविशील्ड का कीमत का ऐलान नहीं किया है। शायद उसे सरकार के इशारे का इंतजार है। सीरम की घोषणा पर भारत सरकार मौन है, जबकि इसी सरकार ने संसदीय समिति को भरोसा दिलाया था कि कोरोना वैक्सीन के दाम 250 रू. प्रति डोज से ज्यादा नहीं होंगे।
इस बीच भारत सरकार ने कुछ विदेशी कंपनियों के वैक्सीनों को भारत में उत्पादन की अनुमति दे दी है तथा वैक्सीन के लिए कच्चे माल पर आयात शुल्क खत्म कर दिया है। क्योंकि ये वैक्सीने बनेंगी भले भारत में, लेकिन उनका कच्चा माल ज्यादातर विदेशों से आयात होता है। इसके पूर्व सीरम के मािलक अदार पूनावाला ने अमेरिका से वैक्सीन के कच्चे माल के निर्यात पर प्रतिबंध हटाने की मांग भी की थी। दरअसल वैक्सीन कीमतों को लेकर यह राजनीतिक बवाल कोविशील्ड बनाने वाली कंपनी सीरम दवारा वैक्सीन के दामों के ऐलान के बाद हुआ। सीरम ने कहा कि वह 1 मई से अपनी वैक्सीन तीन भावों में देगी। केन्द्र सरकार को प्रति डोज 150 रू., केन्द्र सरकार को 400 रू. तथा निजी अस्पतालों को 600 रू. में देगी।
निजी अस्पतालों को वैक्सीन वास्तविक बाजार दर पर देने की बात मान भी लें तो भी दो सरकारों को अलग-अलग दरों पर वैक्सीन सप्लाई का तर्क किसी के गले नहीं उतर रहा है। राज्यों को केन्द्र की तुलना में प्रति डोज 250 रू. महंगा क्यों? खासकर तब कि जब केन्द्र सरकार ने वैक्सीन लगाने का खर्च राज्यों को ही वहन करने को कह दिया हो । हालांकि वैक्सीनेशन के राजनीतिक एंगल और जनहित के मद्देनजर मप्र,छत्तीसगढ़,बिहार व केरल आदि कई राज्यों ने प्रदेश में सभी को मुफ्तल वैक्सीन लगाने का ऐलान कर दिया है। उधर पिछले चुनावों में उछला ‘फ्री वैक्सीन’ का चुनावी जिन्न पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के आखिरी दो चरणों में फिर जी उठा है।
पहले ममता बनर्जी ने वादा किया कि उनकी पार्टी टीएमसी फिर सत्ता में आई तो सभी को कोरोना वैक्सीन फ्री मिलेगी। इसके दूसरे ही दिन वैक्सीन का सियासी दांव भांपकर भाजपा ने भी ऐसी ही घोषणा कर दी है। राज्य में आखिरी दो चरणों में 76 सीटों पर वोट पड़ने हैं। कोरोना वैक्सीन कीमत को लेकर ऐसा विवाद पहले इसलिए नहीं हुआ था, क्योंकि एक तो निजी अस्पतालों के लिए टीके की कीमत भारत सरकार ने प्रति डोज 250 रू. फिक्स की थी, जो वाजिब थी। दूसरे केन्द्र सरकार खुद टीके खरीद कर राज्यों व अस्पतालों को सप्लाई कर रही थी। लेकिन अब उसने इस काम से हाथ खींच लिए है। ऐसे में जिन्होने पहले 250 रू. में टीका लगवाया था, उन्हें भी दूसरे टीके के लिए ज्यादा पैसे चुकाने होंगे।
1 मई से शुरू होने वाले विराट टीका अभियान में देश की लगभग 85 करोड़ आबादी को टीके लगने हैं। ‘इंडिया रेटिंग एंड रिसर्च’ के अनुसार इतनी बड़ी आबादी को टीका लगाने पर देश की सकल जीडीपी का 0.36 फीसदी यानी करीब 67,193 करोड़ रू. खर्च करने होंगे। इसमे केन्द्र सरकार की हिस्सेदारी 20,870 करोड़ रू. की तथा राज्यों की हिस्सेदारी 46,323 करोड़ की होगी। जो राज्य टीकाकरण का पूरा खर्च उठाएंगे, उनका बजट घाटा बढ़ना तय है और इसकी कीमत भी राज्य की जनता को ही दूसरे तरीके से चुकानी होगी। वैसे भी लोगों को मुफ्त टीके लगवाना सरकार का नैतिक दायित्व है। सरकारों को इसका राजनीतिक लाभ भी मिलेगा। वो अपनी जनहितैषी छवि चमका सकते हैं।
सवाल यह भी है कि क्या सारे राज्य मुफ्तस वैक्सीन का खर्च उठाने की स्थिति में है? कांग्रेस नेता व देश के पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने सवाल उठाते हुए कहा कि जब मोदी सरकार हर मामले में ‘वन नेशन’ की बात करती है तो वैक्सीन प्राइस मामले में ‘टू स्टेट्स’ थ्योरी क्यों? यानी ‘वन नेशन-वन प्राइस’ क्यों नहीं? चिदम्बरम ने एक सुझाव यह दिया है कि सभी राज्य मिलकर वैक्सीन निर्माता कंपनियों से कीमत को लेकर सौदेबाजी करें तो उन्हें कम रेट पर भी वैक्सीन मिल सकती है। लेकिन राजनीतिक मतभेदों के चलते यह लगभग नामुमकिन है।
प्रश्न यह भी है कि जो ‘सीरम’ अभी तक 150 रू. मे कोविशील्ड का एक डोज दे रहा था, उसने इसकी कीमतें अचानक इतनी क्यों बढ़ा दीं? मुनाफखोरी के लिए या फिर इसके पीछे कोई और कारण है? इस बारे में कंपनी के मालिक अदार पूनावाला का कहना है कि राज्यों को 400 रू. प्रति डोज कीमत वैक्सीन की लागत 150 रू, जीएसटी और मुनाफे को मिलाकर तय की गई है। पूनावाला के मुताबिक अभी हमे 150 रू. प्रति डोज के हिसाब से केन्द्र सरकार को सप्लाई में घाटा हो रहा है। क्योंकि इसमें से आधी राशि बतौर राॅयल्टी वैक्सीन की मूल आविष्कर्ता कंपनी एस्ट्राजेनेका को देना होती है। पूनावाला का दावा है कि वो जुलाई तक कोविशील्ड के 10 करोड़ डोज तैयार करके सप्लाई कर देंगे। निजी अस्पतालों तक यह मई के तीसरे या चौथे हफ्तेी तक पहुंच जाएंगे।
कंपनी ने अस्पतालों से ऑडर लेना शुरू कर दिया है। सीरम इंस्टीट्यूट ने बयान जारी कर रहा कि हम अपनी उत्पादन क्षमता का 50 फीसदी केन्द्र सरकार को तथा बाकी 50 फीसदी राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों को देंगे। कंपनी चार माह बाद वैक्सीन खुले बाजार में भी उपलब्ध कराएगी। कंपनी का दावा है कि बढ़ी कीमत के बाद भी उसकी वैक्सीन अन्य दूसरी विदेशी कोविड वैक्सीन के मुकाबले काफी सस्ती है। चूंकि केन्द्र सरकार ने पांच और विदेशी वैक्सीनों को भारत में उत्पादन की मंजूर दे दी है या देने जा रही है, इसलिए माना जा रहा है की उनकी विदेशी वैक्सीनों की संभावित ऊंची कीमतों के लिए अभी से जमीन तैयार की जा रही है। क्योंकि कुछ महीनों बाद कोरोना वैक्सीन खुले बाजार में भी मिलने लगेगी।
यहां बुनियादी मुद्दा जनता की स्वास्थ्य रक्षा की सरकार की जिम्मेदारी का है। अगर सीरम केवल खुद का पैसा लगाकर वैक्सीन बना रही होती तो कोई सवाल नहीं उठना था। क्योंकि वैक्सीन बनाना और बेचना उसका व्यवसाय है। लेकिन केन्द्र सरकार ने कोविड वैक्सीन बनाने के लिए सीरम और बायोटेक दोनो को सरकारी खजाने से वित्त मंत्रालय ने दोनो कंपनियों को 4567 करोड़ रू. एडवांस में दे दिए हैं। इसके लिए बैंक गारंटी की अनिवार्यता को भी शिथिल कर दिया गया है। इसमें से 3 हजार करोड़ रू. सीरम इंस्टीट्यूट को और 1567 करोड़ रू. भारत बायोटेक दो दिए गए हैं।
क्योंकि दोनो कंपनियों ने वैक्सीन उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार से अनुदान की मांग की थी। जाहिर है कि सरकार ने जो पैसा कंपनियों को दिया है, वह भी जनता का ही है। अब जनता के पैसे से बनी वैक्सीन भी जनता को ही महंगे दामों में बेची जाए, इसका कोई समाधानकारक तर्क समझ नहीं आता। और फिर सरकारों के लिए भी दो अलग अलग रेट रखने का क्या औचित्य है? वैक्सीन कीमत पर राजनीतिक आरोपो को अलग रखें तो भी जायज सवालों पर केन्द्र सरकार की खामोशी शंकाओं को जन्म तो देती है। आखिर एक ही वैक्सीन की यह बहुस्तरीय कीमत किसके हक में है?
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल