भारत सरकार की शीर्ष नीति निर्धारक संस्था नीती आयोग के सीईओं अमिताभ कांत ने हाल में एक मीडिया संस्थान के वेबीनार में जो विचार व्यक्त किए, उसने भारी हलचल मचा दी है। सोशल मीडिया पर इसको लेकर मचे बवाल के बाद कांत ने सफाई दी कि उन्होंने वैसा कुछ नहीं कहा, जो मीडिया में बताया जा रहा है। पीटीआई को छोड़कर बाकी समाचार माध्यमो ने भी इस खबर को थोड़ी देर बाद हटा लिया। बात दब भी जाती, लेकिन एक वीडियो वायरल होता रहा। लिहाजा कांत ने जो कहा और जो वायरल होता रहा, वह अपने आप में कई खतरनाक संकेत लिए हुए है। हालांकि नीति आयोग के सीईओं के बयान पर उठे विवाद के दो दिन बाद केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने पूरे प्रकरण पर यह कहकर खात्मा लगाने की कोशिश की कि ‘हमे लोकतंत्र पर गर्व है।‘ उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की कि देश में लोकतंत्र और उसका चरित्र बदलने जैसा कोई इरादा नहीं है।
इस मुद्दे पर चर्चा से पहले यह जानलेना जरूरी है कि अमिताभ कांत हैं कौन, उन्होंने लोकतंत्र को लेकर क्या कहा, किस संदर्भ में कहा। अमिताभ कांत 1980 बैच के रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं और दिल्ली विवि और जेएनयू में पढ़े हैं। उन्हें मैनचेस्टर बिजनेस स्कूल से अर्थशास्त्र की फैलोशिप भी मिली थी। एक राष्ट्रवादी पत्रिका ‘स्वराज्य’ द्वारा आयोजित ‘आत्मनिर्भर भारत की राह’ विषय पर केन्द्रित एक वेबीनार में अमिताभ कांत से पूछा गया कि अगर कोविड 19 महामारी में भारत को मैन्युफैक्चरिंग हब बनने का मौक़ा दिया है तो ऐसी कोशिश तो पहले भी की गई थी। इस पर नीति आयोग के सीईओ ने कहा, ”भारत में कड़े सुधारों को लागू करना बहुत मुश्किल है। हमारे यहां लोकतंत्र ‘कुछ ज़्यादा’ ही है। उन्होंने कहा कि पहली बार कोई सरकार हर सेक्टर में सुधारों को लेकर साहस और प्रतिबद्धता दिखा रही है। कोल, कृषि और श्रम सेक्टर में सुधार किए गए हैं। ये बहुत ही मुश्किल रिफ़ॉर्म हैं। इन्हें लागू करने के लिए गंभीर राजनीतिक प्रतिबद्धता की ज़रूरत होती है।’ कांत ने कहा कि मोदी सरकार सभी सेक्टरों में सुधार को लेकर साहस और प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ रही है। अमिताभ कांत ने मोदी सरकार के कृषि क़ानून का भी बचाव किया और कहा कि इससे किसानों को विकल्प मिलेगा। साथ ही यह भी कहा कि हमे इन कड़े सुधारों की ज़रूरत है ताकि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में चीन से मुक़ाबला किया जा सके। अमिताभ कांत यह कहना कि भारत में लोकतंत्र कुछ ज़्यादा ही है विवादों में घिर गया।
चूंकि नीति आयोग भारत सरकार की संस्था है, इसलिए उसके सीईओं सरकार के सुधारों व नीतियों का समर्थन करें, उसकी पैरवी करें, यह स्वाभाविक ही है। लेकिन जिस बात पर बड़े पैमाने पर आपत्ति की गई, वह है ‘भारत में बहुत ज्यादा लोकतंत्र’ तथा कड़े सुधारों के संदर्भ में चीनी शासन प्रणाली की परोक्ष सराहना। कांत के कथन का विश्लेषण करें तो उसका अर्थ यही है कि देश में कड़े सुधार लागू करने के लिए लोकतंत्र को ‘मर्यादित’ करना जरूरी है। दूसरे शब्दों में कहें तो सुधारो के आड़े आने वाली संवैधानिक संस्थाओं की नकेल कसनी होगी तथा विरोध के सुरों और प्रश्नवाचक मुद्राओं को खामोश करना होगा। ऐसा नहीं किया गया तो कोई भी सुधार लागू नहीं हो सकेगा। यानी देश प्रगति की राह पर उस रफ्तार से नहीं दौड़ पाएगा, जैसा कि सरकार चाहती है।
आर्थिक, कृषि और श्रम क्षेत्र में सुधार लागू हों, यह समय का तकाजा है। क्योंकि समयानुकूल बदलाव तो हर क्षेत्र में करने पड़ते हैं। मोदी सरकार भी अपने ढंग और सोच के साथ ये बदलाव कर रही है, हालांकि उनके भी औचित्य और नीयत पर प्रश्न चिह्न खड़े किए जा रहे हैं। कांत के इस बयान की टाइमिंग को देखें तो देश में किसान आंदोलन जारी है। मोदी सरकार ने नाराज किसानों की मांगे मानने के लिए अपनी तरफ से प्रस्ताव दिया, जिसे आंदोलनकारी किसानों ने ठुकरा दिया और आंदोलन जारी रखने की बात कही है। किसान चाहते हैं कि सरकार तीनो कृषि कानून वापस ले। लेकिन सरकार ने संकेत दिए हैं कि वह दबाव में कोई काम नहीं करेगी। अगर सरकार कृषि कानूनो पर यू टर्न लेती है तो बाकी सुधारो की वापसी की मांग भी शुरू हो जाएगी। किसी भी सरकार के लिए यह उचित स्थिति नहीं होगी। तो क्या अभिताभ कांत किसानों द्वारा आवाज उठाने पर ही सवाल खड़े करना चाह रहे थे? इसमें अंतनिर्हित भाव यह है कि सरकार जो कुछ कर रही है, आपके भले के लिए ही कर रही है। जब उसने भला सोच लिया है तो आपको अपने भले-बुरे के बारे में सोचने की जरूरत नहीं है। ऐसा करना भी ‘अलोकतांत्रिक’ है और इसके लिए सरकार पर दबाव बनाना तो देशद्रोह के समान है।
कांत के ‘बहुत ज्यादा लोकतंत्र’ के मायने यही हैं कि इस देश में संसद,अदालत, कार्यपालिका, मीडिया और लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षक संस्थाएं आदि क्यों हैं ? ये व्यवस्था की नीयत पर सवाल क्यों उठाती हैं? ऐसा करने से किसका भला होता है? कांत शायद भूल गए कि ‘बहुत ज्यादा लोकतंत्र’ होने के बाद भी देश में यह स्थिति है कि कई मामलों में लोगों को बुनियादी अधिकार नहीं मिल पा रहे। अगर ‘चेक एंड बैलेंस’ के ये बचे खुचे हथियार भी कबाड़खाने में डाल दिए जाएं तो फिर बचेगा क्या? इस ‘बहुत ज्यादा लोकतंत्र’ को ‘बहुत कम लोकतंत्र’ में तब्दील करने की चाहत में असल इरादा क्या है?
यह सही है कि लोकतांत्रिक देशों में कोई भी सुधार या बदलाव उस तरह डंडे के जोर पर लागू नहीं किए जा सकते, जैसे कि तानाशाही वाले देशो में किए जाते हैं। क्योंकि वहां जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं होती। ये प्रयोग असफल हुए तो भी उसकी कोई जवाबदेही इसलिए नहीं होती कि नियति पर किसी का बस नहीं होता और तानाशाह कभी गलत नहीं होता। चीन में कम्युनिस्ट तानाशाही है। और वहां के वर्तमान राष्ट्रपति खुद को सर्वशक्तिमान के रूप में स्थापित करने और मनवाने में लगे हैं। चीन में एक मात्र राजनीतिक दल चीनी कम्युनिस्ट पार्टी है और उसके पदाधिकारियों पर भारी भ्रष्टाचार और मनमानी के आरोप हैं। इन सबके बाद भी चीनी जनता सब कुछ सहती जाती है तो शायद इसलिए कि सरकार ने उनके मुंह बंद कर रखे हैं।
तो क्या कांत दबी जबान से चीन जैसी एकाधिकारवादी राजनीतिक व्यवस्था लाने की पैरवी कर रहे थे? यूं आज दुनिया में चीन हमारा दुश्मन नंबर वन है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस पर बिना नाम लिए विस्तारवादी देश होने का आरोप लगाते हैं और चीनी माल और ऐप्स का बहिष्कार होता हो, उस देश जैसी तानाशाहीपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था के प्रति कुछ लोगों के मन में प्रशंसा भाव क्यों है? क्या इसलिए कि वह निरंकुश सत्ता सौंपती है? क्या इसलिए कि सत्ताधीश स्वयं निरंकुश होना चाहते हैं? कांत ने जो कहा क्या वह केवल इस विचार की टेस्टिंग थी?
कहना मुश्किल है। लेकिन जो कहा गया, उसमे निहित खतरों को भांपकर केन्द्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सफाई दी ठिक हमारी आस्था लोकतंत्र में है। फिलहाल हमे उनकी बात पर भरोसा रखना चाहिए। एक बात और। इस देश में सबसे बड़े आर्थिक सुधार जिस नरसिंहराव सरकार ने लागू किए, वो पूर्ण बहुमत वाली सरकार नहीं थी। लेकिन उसके इरादे नेक थे। मोदी सरकार के पास तो पूर्ण बहुमत है और देश का एक बहुत बड़ा वर्ग उनका समर्थक है। पारदर्शी तरीके से कोई भी सुधार लागू करने से उन्हें किसने रोका है। जब सरकार के पास इतनी लोकतांत्रिक ताकत हो तो ‘लोकतंत्र को कम’ करने की दबी चाहत भी अमंगल इरादों की और इशारा करती है। ये न भूलें कि लोकतंत्र रहेगा तो देश भी एक रहेगा।
वरिष्ठ संपादक
सुबह सवेरे