देश में 3 कृषि कानूनों के विरोध में चार महीनों से आंदोलन चला रहे किसान संयुक्त मोर्चा ने अब तीसरी बार भारत बंद का आव्हान किया है, लेकिन देश में इसको लेकर खास हलचल नहीं दिखाई दे रही है। वैसे इसे किसान आंदोलन का चौथा चरण माना जा सकता है, जब आंदोलन में जान फूंकने की हर संभव कोशिश की जा रही है। लेकिन इस आंदोलन का भविष्य काफी कुछ पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के नतीजों पर भी‍ टिका है। अगर इन चुनावों में भाजपा पश्चिम बंगाल में सरकार बनाने और असम में सरकार बचाने में कामयाब रही तो कृषि कानून‍ विरोधी इस किसान आंदोलन का रहा-सहा असर भी खत्म हो सकता है। लेकिन भाजपा पांच राज्यों में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल नहीं कर पाई तो हो सकता है ‍कि मोदी सरकार किसान आंदोलन पर गंभीरता से ध्यान दे।

किसान आंदोलन के सूत्रधारों ने पश्चिम बंगाल में किसान पंचायतें आयोजित कर चुनाव में भाजपा को हराने का व्यापक आह्वान किया है, लेकिन ये मुद्दा राज्य में निर्णायक बनेगा, ऐसा नहीं लगता। उल्टे किसान आंदोलन के भाजपा विरोध ने उसके राजनीतिक मकसद को बेनकाब कर दिया है, जिससे आंदोलन का फोकस किसान हित रक्षण से ज्यादा सत्ता के खेल पर केन्द्रित हो गया है। देश की राजधानी की तीन सरहदों पर चार महिने पहले शुरू हुए कृषि कानून विरोधी आंदोलन के जोश और ऊर्जा को देखकर लगता था कि आंदोलनकारी मोदी सरकार को झुकाने में कामयाब हो जाएंगे। किसान और उनकी समस्याएं देश की चिंता के केन्द्र में आ गईं हैं।

लगता था कि यह आंदोलन जल्द ही समूचे देश को अपनी लपेट में ले लेगा। तब इस आंदोलन का संचालन कई किसान संगठनों के नेता सामूहिक रूप से कर कर रहे थे। उद्देश्य एक ही था, किसान विरोधी कृषि कानूनों को वापस लेने पर मोदी सरकार को बाध्य करना। तब आंदोलनकारी किसानों के हौसलो को देखते हुए सरकार भी दबाव में आ गई थी। उसने आंदोलनकारियों से कई दौर की बात की। एक समय सरकार इन कानूनों को कुछ समय के लिए स्थगित करने पर राजी भी हो गई थी, जिससे आंदोलन के नेताओं की महत्वाकांक्षा और बढ़ गई। वो हर हाल कें कृषि कानूनो की वापसी पर अड़ गए। आंदोलन का चरम 26 जनवरी को राजधानी में ट्रैक्टर रैली के रूप में सामने आया, जिसके दौरान भारी हिंसा और उत्पात हुआ। संदेश गया कि किसान नेताओं का आंदोलन पर से नियंत्रण घटता जा रहा है। रैली में हुए उपद्रव के बाद कुछ किसान संगठन आंदोलन से अलग भी हो गए। उधर सरकार को हावी होने का मौका मिल गया।

26 जनवरी के बाद किसान आंदोलन का दूसरा चरण ‘जाट एकता आंदोलन’ में तब्दील होने के रूप में सामने आया। अब किसान आंदोलन की धुरी भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश सिंह टिकैत बन गए। बाकी नेता हाशिए पर चले गए। जो राजनीतिक संगठन इस आंदोलन को परदे के पीछे से संचालित कर रहे थे या उसे समर्थन दे रहे थे, वो खुलकर सामने आ गए। आंदोलन का नया एजेंडा ‘कृषि कानूनो की वापसी’ के साथ साथ ‘भाजपा सरकार हटाओ ’ भी बन गया। सरकार भी शायद यही चाहती थी। जबकि आंदोलन के बहाने हाशिए पर पड़े जाट नेताओं ने नए सिरे से दम मारना शुरू किया। जाट महापंचायतो के माध्यम से हरियाणा, यूपी और राजस्थान में जाट समुदाय की राजनीतिक ताकत दिखाने की होड़ शुरू हो गई। जबकि आंदोलन में गैर अप्रासंगिक होते दिखे।

यह दौर भी करीब एक माह चला। आंदोलन के तीसरे चरण में बड़े पैमाने पर किसान महापंचायतों का आयोजन और आंदोलन को दिल्ली से बाहर के प्रदेशों में फैलाने की रणनीति पर काम शुरू हुआ। किसान एकता और सामाजिक नवाचार का संदेश देने के उद्देश्य से किसान महापंचायतो के पंडाल में शादी-ब्याह भी शुरू हो गए। इससे आंदोलन का आधार जरूर व्यापक हुआ, लेकिन उसी अनुपात में उसकी धार भी कम होने लगी। जनता में संदेश गया कि आंदोलन का असल मकसद मोदी और भाजपा का विरोध है न कि कृषि कानूनों की वापसी। बहरहाल आंदोलन को चलते हुए अब चार माह हो चुके हैं,लेकिन आंदोलनकारियों के हाथ कुछ नहीं लगा है, सिवाय मोदी सरकार को किसानों के प्रति असंवेदनशील होने के लिए कोसने के।

उधर पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद किसान आंदोलन सरकार की प्राथमिकता में बहुत नीचे चला गया है। दूसरी तरफ किसान आंदोलन के नेता भी इसे चुनाव वाले राज्यों तक ले गए हैं। उन्हें लगता है कि उनके आंदोलन को‍ मिल रहा समर्थन भाजपा की राजनीतिक ताकत और सत्ता हासिल करने की महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश साबित होगा। हालांकि जिन राज्योंंमे चुनाव हो रहे हैं, उनमें कृषि कानून का मुद्दा स्थानीय मुद्दों से ज्यादा अहम है, ऐसा नहीं लगता।

आंदोलनकारी किसानों ने यह भारत बंद’ तीसरी बार बुलाया है। पहले दो बार हुए बंद का भी कोई खास असर नहीं दिखाई दिया था। इस बार रेलें रोकी जाएंगी और कृषि कानूनों की प्रतियों की होली जलाई जाएगी। लेकिन हकीकत यह है कि इस आंदोलन की आत्मा से कुछ राज्यों के किसानों के अलावा बाकी लोगों से अपेक्षित जुड़ाव अभी भी बहुत कम है। हालांकि दिल्ली की सिंघु, गाजीपुर और टिकरी बाॅर्डर पर आंदोलनकारी किसान अभी भी बैठे हैं, लेकिन कब तक ? सरकार का यह प्रचार भी कुछ हद तक काम कर गया लगता है कि आंदोलन के पीछे कुछ निहित स्वार्थ काम कर रहे हैं।

इसी स्तम्भ में मैंने पहले भी लिखा था कि कहीं किसान आंदोलन का हश्र भी सीएए कानून के विरोध में दिल्ली में चले शाहीनबाग आंदोलन की तरह न हो। उसके पीछे महत्वपूर्ण तर्क यही था कि किसी भी आंदोलन को बहुत लंबा खींचने से उसके प्रति आम जनता की सहानुभूति और समर्थन सिकुड़ता जाता है। याद करें कि आजादी के आंदोलन में भी महात्मा गांधी ने चरम पर आए स्वतंत्रता आंदोलन को कई बार तब अचानक वापस ले लिया था, जब उन्हें लगता था कि आंदोलन पर से उनका नियंत्रण कम हो रहा है। तब कई आलोचक इस प्रतिगामी फैसला मानते थे, लेकिन लंबी लड़ाई को जीतने के लिए कई बार दो कदम आगे चलकर एक कदम पीछे भी खींचना पड़ता है।

अडि़यलपन से उतना भी हासिल नहीं हो पाता, जो आंदोलन की ताकत के हिसाब से प्राप्य होना चाहिए। फिर भी किसान आंदोलन का चौथा चरण इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के महीने भर बाद आने वाले नतीजे परोक्ष रूप से किसान आंदोलन का भविष्य भी तय करेंगे। भाजपा ने पश्चिम बंगाल विजय के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। अगर बंगाल की जनता ने सचमुच परिवर्तन के पक्ष में वोट दिया तो वहां ‘दीदी युग’ की समाप्ति हो सकती है। हालांकि राजनीतिक पंडित अभी भी मानने को तैयार नहीं है कि बंगाल में भगवा भाजपा को जिता सकता है। लेकिन ऐसा तो पहले असम और त्रिपुरा में लग रहा था।

नतीजा कुछ और आया। अनुकूल नतीजे आने पर भाजपा यह साबित करने में जुट जाएगी कि कृषि कानून विरोध के पीछे चंद लोग ही हैं। आम किसान को इससे खास लेना देना-नहीं है। यही बात वह नागरिकता संशोधन कानून लागू करने के बारे में भी कह सकती है। इसका अर्थ यही नहीं कि कृषि कानूनों को लेकर जायज शंकाएं खत्म हो जाएंगी, लेकिन आगे इस आंदोलन को पूरी ताकत से जारी रखना बहुत मुश्किल होगा। कहा यह भी जा रहा है कि कोरोना की दूसरी लहर का चरम अप्रैल-मई में आएगा।

किसान आंदोलन के नेताओं ने भी आंदोलनकारी किसानों को टीका लगवाने की मांग की है ताकि आंदोलन बेखौफ जारी रह सके। लेकिन संभावना इस बात की ज्यादा है कि जैसे कोरोना-1 की आड़ में सरकार ने शाहीनबाग आंदोलन के तम्बू उखाड़ दिए थे, कोरोना-2 में किसान आंदोलन के साथ भी वैसा ही कुछ न हो। हालांकि इस मामले में सरकार का कोई भी दमनकारी कदम उसे गंभीर परेशानी में भी डाल सकता है।

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल

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