इस तर्क से सौ फीसदी सहमत होते हुए कि महिलाएं क्या पहने, क्या न पहने, यह महिलाओं को ही तय करने दें, के बावजूद एक आम आदमी (पार्टी नहीं) के नाते सहज जिज्ञासा मन में बाकी है कि फटी जीन्स का सौंदर्यशास्त्र आखिर है क्या? इसे पहनने के पीछे कौन सा फैशन या पाॅलिटकल स्टेटमेंट है? इस दलील को बाजू में रखें कि हमे यही अच्छा लगता है, एक अच्छे-भले कपड़े को फाड़कर उसे फैशन की तरह पहनना कपड़े की अवमानना है या उस बुनियादी मानवीय आवश्यकता की अवधारणा को ही खारिज करना है कि तन को ढंकने के लिए कपड़ा जरूरी है? या यह फैशन का वो चेहरा है, जो अपने आप में उन लोगों का मजाक उड़ाता है, जिनकी शरीर ढंकने के लिए पर्याप्त कपड़ा खरीदने की हैसियत नहीं है? अथवा यह अमीरी और गरीबी का ऐसा मिलन बिंदु है, जहां इंसान कपड़ा पहनकर भी उघाड़ा दिखना चाहता है?

ये तमाम सवाल दिमाग तब कौंधे, जब उत्तराखंड के नवनियुक्त मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने बाल अधिकार सुरक्षा से जुड़ी एक कार्यशाला में अपना ‘फटी जीन्स संस्मरण’ सुनाया। रावत इसे भारतीय संस्कारों जोड़कर यह बताना चाहते थे कि जो सुशिक्षित महिलाएं सार्वजनिक रूप से फटी जीन्स पहनकर घूमती हों, वो अपने बच्चों को क्या और कैसा संस्कार देंगी? इस वक्तव्य में अंतर्निहित भाव यह था कि शालीन और भारतीय संस्कारों के अनुरूप कपड़े पहनने वाली महिलाएं ही बच्चों को ‘अच्छे संस्कार’ दे सकती हैं, बाकी नहीं। हालांकि रावत यह भूल गए कि फटी जीन्स केवल महिलाएं ही नहीं, पुरूष भी शौक से पहनते हैं।

तो क्या अच्छे संस्कार देने की उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है? बहरहाल रावत का बयान वायरल होते ही महिलाएं और खासकर सेलेब्रिटी महिलाएं उन पर पिल पड़ीं। कुछ ने तो सोशल मीडिया पर फटी जीन्स पहने गर्व के साथ अपनी तस्वीरें पोस्ट करनी शुरू कर दी। ट्विटर पर ‘हैशटैगरिप्डजीन्स’ ट्रेंड होने लगा। कहा गया कि जिस मुख्यमंत्री की नजर महिलाअों की जीन्स पर होगी, वो राज्य का विकास क्या करेगा? एक युवती ने लिखा ‘फटी जींस नहीं, फटी मानसिकता की सिलाई की ज़रूरत है।’ एक दूसरी युवती का तंज था ”महिला को ऊपर से लेकर नीचे तक निहारने वाले ये खुद बड़े संस्कारी हैं? ऐसी घटिया बातें बोलकर भाजपाई क्यों अपने संस्कार प्रदर्शित करते हैं? एक अन्य युवती का प्रति प्रश्न था कि सारे संस्कारों की अपेक्षाएं महिलाओं से ही क्यों?बिग बी की नातिन नव्या नवेली ने ट्वीट किया ‘हमारे कपड़े बदलने से पहले अपनी सोच बदलिए।

‘ दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने तो रावत के कमेंट के जवाब में शाॅर्ट्स पहने अपनी तस्वीर पोस्ट कर दी। खास बात यह रही कि लगभग हर मामले में भाजपा की लाइन का समर्थन करने वाली अभिनेत्री कंगना रनौत ने फटी जीन्स मामले में कुछ अलग लाइन ली। उन्होंने सोशल मीडिया पर युवाअों से कहा कि आप अगर जीन्स पहनना (इसमें फटी जीन्स भी शामिल है) चाहते हैं तो मुझसे स्टाइल सीखें। कुछेक ट्वीट रावत के समर्थन में भी आए। लेकिन उनमें पुरूष ही ज्यादा थे। एक यूजर ने फटी जीन्स समर्थक महिलाओं को टारगेट करते हुए लिखा , ”क्या आप औरतों के फटी जींस पहनने की वकालत कर रही हैं? क्या ये हमारी हिंदू सभ्यता है? फटी जींस का समर्थन करने वाले लोगों शर्म करो!.

फटी जीन्स के पक्ष-विपक्ष में मचे इस घमासान के बीच यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि जब मनुष्य ने नग्नता को ढंकने के लिए स्वयं कपड़े का आविष्कार किया और पारंपरिक परिभाषा में तन को उघाड़ने वाले वस्त्र को फटा कपड़ा कहा जाता है तब अच्छे भले कपड़े को फाड़कर तन दिखाने का क्या सौंदर्यशास्त्र है? कुछ साल पहले तक फटे और तन उघाड़ू कपड़े पहनना कंगाली और अभाव का लक्षण माना जाता था। यानी अच्छे और पर्याप्त कपड़े न होने या उसे अफोर्ड नहीं कर पाने के कारण लोग फटे चीथड़े पहनने को मजबूर हैं।

इसमें लाचारी थी, लेकिन किसी तरह का ‘विद्रोही’ या ‘लीक से हटकर दिखने’ का आग्रह नहीं था। हालांकि हमारे देश में प्राचीन काल में जब‍ सिले हुए कपड़े पहनने का चलन नहीं था, तब पुरूष और महिलाओं के शरीर का काफी हिस्सा खुला ही रहता था, लेकिन न तो उसे कभी अश्लील भाव से और न ही उसे संस्कारहीनता से जोड़कर देखा गया। तब उपलब्ध वस्त्र को फाड़कर पहनने का फैशन शायद ही रहा होगा। इस अर्थ में फटी जीन्स पहले दीवार बनाने और फिर उसमें छेद करने की कला है। फटी जीन्स के लिए हिंदी में कोई सटीक शब्द भले न हो, लेकिन अंग्रेजी में इसके कई पर्याय हैं, जैसे कि रिप्ड जीन्स, डिस्ट्रेस्ड जीन्स, डिस्ट्राॅयड जीन्स, टाॅर्न जीन्स वगैरा।

अमेरिका में जीन्स का आविष्कार 20 मई 1873 को मजदूरों के रफ-टफ कपड़े के रूप में हुआ था। लेकिन /आधुनिक रिप्ड (फटी) जीन्स कल्चर की शुरूआत यूके में एक सबकल्चर के रूप में 1970 में हुई, जब वहां युवाओं में ‘पंक आंदोलन’ ने जोर पकड़ा। यह आंदोलन मूलत: उपभोक्तावाद विरोध, व्यवस्था विरोध, कारपोरेट विरोध, तानाशाही विरोध और व्यक्ति स्वतंत्रता के आग्रह से उपजा था। जिसमें पारंपरिक ‘जेंटलमैन’ वाली सोच से खुली बगावत थी। इस आंदोलन का असर यूरोप, अमेरिका सहित विश्व के अनेक देशों में दिखाई दिया। जीवन के कई क्षेत्र, जिनमें संगीत, फैशन, खान पान खास तौर से शामिल थे, पंक विचार से प्रभावित हुए।

पंकवाद को मानने मतलब कुछ उल्टा-पुल्टा, अटपटा या लीक से हटकर करना था। फैशन में यह जीन्स को फाड़कर या काटकर पहनना, सेफ्टी पिन या रेजर को गहने की तरह धारण करना, अजीबो गरीब हेयर स्टाइल, सूती के बजाए रबर, प्लास्टिक या चमड़े के ऐसे कपड़े पहनना, जिससे कामुकता और सेक्स अपील झलकती हो। इस रिप्ड जीन्स ट्रेंड को एक ऐसे ‘पाॅलिटिकल स्टेटमेंट’ के रूप में देखा गया, जो समाज के पारंपरिक सोच के खिलाफ व्यक्ति के आक्रोश का द्योतक था। फटे हुए जीन्स में एक ‘यूथफुल लुक’ देखा जाने लगा। शायद इसीलिए कहा जाता है कि रिप्ड जीन्स पचास साल के पहले ही पहननी चाहिए, क्योंकि यह आपके जवान, बिंदास और बेफिकर होने का परिचायक है। यानी आप फटी जीन्स से या तो प्यार कर सकते हैं या नफरत। बीच का कोई रास्ता नहीं है।

तो क्या रिप्ड जीन्स सचमुच इतनी दिलकश और जरूरी चीज है? दरअसल यह फटे में सुंदरता खोजने जैसा है। यह विवस्त्र और सवस्त्र होने के बीच की अवस्था है, जो सामाजिक मर्यादा और शिष्टता को भी अपने ढंग से देखती और पारिभाषित करती है। मजे की बात यह है कि सामान्य (साबुत) जीन्स से रिप्ड जीन्स काफी महंगी होती है। कारण कि व्यवस्थित सिली हुई जीन्स को करीने से यूं काटना या फाड़ना पड़ता है कि वह देह दर्शना तो हो, लेकिन फिल्म के प्रोमो की तरह। 90 के दशक में भारत में कामकाजी महिलाओं में जीन्स की लोकप्रियता इसलिए बढ़ी थी कि वह शरीर को (तंग ही सही) को पूरी तरह ढंकने वाली और ज्यादा कम्फर्टेबल थी।

साड़ी के पल्लू या सलवार-कुर्ते के दुपट्टे की तरह उसमें बार-बार सम्हालने जैसा कुछ नहीं था। वह एक तरह से महिलाओं का पुरूषों की तरह निश्चिंत परिधान था। अलबत्ता रिप्ड जीन्स उस वस्त्र स्वातंत्र्य की आधुनिक और विवादित कड़ी है। पश्चिम में इसे ‘ग्रंज एस्थेटिक्स’ कहा जाता है। ग्रंज यानी गंदा,घटिया या बेहूदा। या यूं कहें कि बेहूदगी में भी सौंदर्यान्वेषी दृष्टि। इसकी शुरूआत 1980 से मानी जाती है, जब फटेहाल गरीब कलाकारों के कपड़े आदि पहनने की मजबूरी को एक नए फैशन स्टाइल के रूप में स्वीकार किया गया। नतीजा यह हुआ कि लोग अनाप- शनाप पैसा देकर फटे जीन्स पहनकर खुद को ज्यादा आधुनिक और ‘कान्फीडेंट’ महसूस करने लगे।

जिसे कभी हिकारत से देखा जाता था, वही आधुनिकता का परिचायक बन गया। परंपरावादी कुछ भी सोचें, युवाओं में इसकी दीवानगी है। आज भारत में जीन्स (जिसमें रिप्ड जीन्स भी शामिल है) का बाजार करीब 54 हजार करोड़ रू. का है और हर साल 6 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। यहां तक कि देश में ‘संस्कारी जीन्स’ बेचने वाले बाबा रामदेव के यहां भी ‘रिप्ड जीन्स’ उपलब्ध है। बकौल बाबा फर्क इतना है कि यह उतनी ही फटी होती है, जितनी संस्कार में गुंजाइश है।
कहने का आशय इतना कि मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने फटी जीन्स में हाथ डालकर नया पंगा मोल ले लिया है। उनके पक्ष में महिलाओं के बयान अभी नहीं दिखे हैं।

यह सवाल यह है कि फटे जीन्स अथवा अजीबोगरीब कपड़े पहनने का सामाजिक संस्कारों से कोई सीधा सम्बन्ध है या नहीं? या यह केवल दिमागी फितूर है? इसका ‍िनश्चित और सर्वमान्य उत्तर देना कठिन है। क्योंकि हर फैशन चाहे वह कपड़ों का ही क्यों न हो, समय सापेक्ष होता है। कपड़े का काम मूलत: नग्नता को ढंकना है, लेकिन नग्नता की परिभाषा, दृष्टिकोण और सामाजिक स्वीकार्यता भी वक्त के हिसाब से बदलती रहती है। ज्यादातर का मानना है कि नग्नता शरीर में में नहीं दृष्टि में होती है। महिलाएं वस्त्र जो चाहें पहने, लेकिन सामाजिक शिष्टता की मर्यादा भी खुद तय करें तो बेहतर हो।

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल

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