नागरिकता संशोधन बिल, जिसपर असम और पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों में घमासान चल रहा है, के तहत केंद्र सरकार ने अफगानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों, पारसियों और ईसाइयों को बिना वैध दस्तावेज़ के भारतीय नागरिकता देने का प्रस्ताव रखा है.

साथ ही 1955 के नागरिकता एक्ट के उस प्रावधान में भी संशोधन का प्रस्ताव है, जिसके तहत देशीकरण (नेचुरलाइजेशन) द्वारा नागरिकता हासिल करने के लिए आवेदनकर्ता आवेदन करने से 12 महीने पहले से भारत में रह रहा हो और उसने पिछले 14 वर्षों में से 11 वर्ष भारत में बिताए हों.

यह बिल उक्त तीन देशों के गैर मुस्लिमों के लिए 11 वर्ष की इस शर्त को 6 वर्ष करता है. इसके अतिरिक्त इस बिल में नागरिकता की कट-ऑफ लाइन 19 जुलाई 1948 से बढ़ाकर 31 दिसम्बर 2014 कर दी गई है.

दरअसल इस बिल में धर्म आधारित नागरिकता के प्रावधान की सबसे बड़ी खामी यह है कि यह धर्म के आधार पर भेदभावपूर्ण है, जो संविधान की धारा 14 का उल्लंघन है. इस धारा के तहत सबको समानता का अधिकार है, लेकिन केंद्र में मोदी सरकार ने अपने चुनावी घोषणापत्र में सताए गए हिन्दुओं को भारत में शरण देने की बात कहकर हिन्दू वोट के ध्रुवीकरण की कोशिश की है.

अब देखना यह है कि इस बिल को जेपीसी से आगे निकलने और संसद में पेश होने में कितना समय लगता है या फिर असम और पूर्वोत्तर के राज्यों के दबाव में यह बिल सर्द खाने में चला जाता है.

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