हमारे कुछ दोस्तों ने बताया कि यूपी-बिहार में ज्यादातर किसानों को ठीक से मालूम ही नहीं कि ये कृषि कानून क्या बला हैं? वहां के हिंदी अखबारों में भी इन तीन कानूनों का वास्तविक और तथ्यपरक विवरण या सम्यक विश्लेषण नही छपा है। कानूनों की मूल प्रति छप भी जाय तो दुरूह सरकारी-अनुवाद(अंग्रेजी से हिंदी)की भ्रष्ट भाषा के चलते किसी आम आदमी के लिए उसे समझना एक दुष्कर कार्य है।
ऐसे दोस्तों का सुझाव था कि इन तीनों कानूनों को सहज हिंदी में इस प्रकार पेश किया जाना चाहिये कि आम आदमी भी समझ सके! मैं कृषि सम्बन्धी मामलों का विशेषज्ञ नही हूं लेकिन इन तीनों कानूनों को कई-कई बार पढ़ चुका था. इन पर कृषि मामलों के विशेषज्ञों के आलेख और विश्लेषण भी पढ़ चुका था। यूपी और बिहार के कुछ राजनीतिक और लेखक मित्रों ने इन कानूनों की जानकारी मांगी तो उन्हें समय-समय पर लेखादि भेजता भी रहा।
दोस्तों के सुझाव पर इन तीनों कानूनों के विविध प्रावधानों का विवरण देते हुए इनका एक संक्षिप्त विश्लेषण यहां पेश कर रहा हूं ताकि युवा-मित्र इसे अपने अपने इलाके के किसानों में भी पहुंचा सकें। एक भारतीय नागरिक, पत्रकार और किसान-पुत्र होने नाते मुझे यह जरूरी लगा। हमारे संविधान और बाद के कानूनों ने भी सबको जानने, सूचित होने और लिखने-पढ़ने का अधिकार दिया है।
इन तीनों कानूनों के तथ्यपरक विश्लेषण में मेरा अपना कुछ भी नही है। जो कुछ देश के शीर्ष कृषि विशेषज्ञों ने लिखा या बोला है, उन्हीं तथ्यों की रोशनी में मैंने यह संक्षिप्त टिप्पणी तैयार की है।
इसे पढ़िये और पढ़ाइये!
क्या हैं ये तीन कृषि कानून:
ये तीनों कृषि कानून खेती-बारी के व्यवसाय और बाजार को बिल्कुल नयी संरचना और रूप देने के लिए लाये गये है। जिस तरह बीते तीस सालों के दौरान कई क्षेत्रों को निजी-कारपोरेट के मातहत किया गया है और किया जा रहा है, उसी तरह से अब कृषि यानी खेती-बारी को भी किया जाना है। दुनिया के कई विकासशील या पिछड़े देशों में बड़ी विदेशी कंपनियों और सरकारों के दबाव में इसी तरह के कुछ कानून लाये गये थे।
उन-उन देशों की खेती कुछ बरसों बाद बर्बाद हो गई और किसान बेहाल हो गये। हमारे देश में ये तीनों कानून इसीलिए लाये गये हैं ताकि कृषि क्षेत्र का पूरा चेहरा बदल दिया जाय। खेती-बारी से ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की आबादी कम करनी है। खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य और कामकाज से सरकार को भी बाहर रखना है। भारतीय खाद्य निगम का काम क्रमशः सीमित होता जायेगा और देश-विदेश के बडे उद्योगपति व कारपोरेट हमारे खाद्यान्न बाजार को नियंत्रित और संचालित करेंगे। महज संयोग नही कि इन कानूनों के पास होने से पहले ही देश के कई राज्यों में बडे कारपोरेट घरानों ने भारतीय खाद्य निगम(FCI) से भी बड़े और आधुनिक तकनीक आधारित गोदाम आदि बनाने शुरू कर दिये थे।
अब देखिये क्या कहते हैं ये तीनों कानून:
इसमें एक कानून है: आवश्यक वस्तु अधिनियम का संशोधन। सन् 1955 के कानून को संशोधित करके इसे 2020 में लाया गया। दूसरा कानून विभिन्न राज्यों के कृषि उत्पाद मार्केटिंग कमेटी(APMCs) के कानूनो को बदलने के बारे में है और तीसरा ठेका-खेती(Contract Farming) को संस्थागत रूप देने के बारे में है। ये तीनों कानून मौजूदा कृषि उत्पादों के बाजार की संरचना पर से सरकार का नियंत्रण हटाने के मकसद से किये गए हैं। इन्हें सुधार कानून कहा गया है पर इनका विवरण देखिये तो समझने में ज्यादा कठिनाई नही होगी कि इनका मकसद किसानों की स्वतंत्र कृषि का विनाश करना है। देश और जनता को आत्मनिर्भर बनाने की बजाय उन्हें देश और विदेश के कारपोरेट पर पूर्ण निर्भर बनाना है।
क्या है पहला कानून?
आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020
यह अधिनियम 1955 में भारत में लागू किया गया था। तब इस नियम को लागू करने का उद्देश्य उपभोक्ताओं को आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता उचित दाम पर सुनिश्चित कराना था। इस कानून के अनुसार आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन, मूल्य और वितरण सरकार के नियंत्रण में होगा जिससे उपभोक्ताओं को किसी तरह की बेईमानी और जमाखोरी से बचाया जा सके। आवश्यक वस्तुओं की सूची में खाद्य पदार्थ, उर्वरक, औषधियां, पेट्रोलियम, जूट आदि शामिल थे। अधिनियम में संशोधन के बाद बने इस कानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटा दिया गया है। इस प्रकार, इन वस्तुओं पर जमाखोरी एवं कालाबाज़ारी को सीमित करने और इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने जैसे प्रतिबंध हटा दिए गए हैं।
अब इन वस्तुओं के व्यापार के लिए लाइसेंस लेना जरूरी नहीं होगा। कानून में इस तरह का बदलाव करके जरूरतमंदों को खाद्य सामग्री उपलब्ध करवाने के बजाए अधिक मूल्य पर उपज बेचने जैसी बेहतर संभावनाओं एवं भंडारण की मात्रा पर प्रतिबंध हटाना बेहद खतरनाक है। इस कानून से जमाखोरों को वैधता मिल जायेगी। इस संशोधन को उचित ठहराते हुए सरकार तर्क देती है कि किसान अपनी कृषि उपज को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बेचकर बेहतर दाम प्राप्त कर सकेंगे। इससे किसानों को व्यापार एवं सौदेबाजी के लिए बड़ा बाजार मुहैया होगा और उनकी व्यापारिक शक्ति बढ़ेगी। इसी प्रकार खाद्य पदार्थों के भंडारण की मात्रा पर प्रतिबंध हटा देने से भंडारण क्षेत्र (वेयर हाऊसिंग) की क्षमता बढ़ाई जा सकती है और इसमें निजी निवेशकों को भी आमंत्रित किया जा सकेगा।
देश में किसान परिवारों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत को देखते हुए ऐसे किसान गिने-चुने ही हैं जो अपना कृषि उत्पाद मुनाफे की तलाश में दूर-दराज के इलाकों तक भेज सकेंगे या जिनके पास इतने बड़े गोदाम हों जहाँ वो अपनी फसल का लम्बे समय तक भंडारण कर सकें। ज़ाहिर है इस संशोधन वाले कानून से केवल बड़े व्यापारियों और कंपनियों को ही फायदा होगा, जो खाद्य पदार्थों के बाजारों में गहराई तक पैठ रखते हैं और ये अपने मुनाफे के लिए खाद्य पदार्थों की जमाखोरी और परिवहन करके संसाधनविहीन बहुत सारे गरीब किसानों का नुकसान ही करेंगे।
कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा)
अधिनियम, 2020
यह मूल कानून सन् 1970 के दशक में लाया गया था। इसके जरिये राज्य सरकारों ने किसानों के शोषण को रोकने और उनकी उपज का उचित मूल्य सुनिश्चित करने के लिए ‘कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम’ (एपीएमसी एक्ट) लागू किया था। इस अधिनियम के तहत यह तय किया कि किसानों की उपज अनिवार्य रूप से केवल सरकारी मंडियों के परिसर में खुली नीलामी के माध्यम से ही बेची जाएगी। मंडी कमेटी खरीददारों, कमीशन एजेंटों और निजी व्यापारियों को लाइसेंस प्रदान कर व्यापार को नियंत्रित करती है। मंडी परिसर में कृषि उत्पादों के व्यापार की सुविधा प्रदान की जाती है; जैसे उपज की ग्रेडिंग, मापतौल और नीलामी बोली इत्यादि। सरकारी मंडियों या लाइसेंसधारी निजी मंडियों में होने वाले लेन-देन पर मंडी कमेटी टेक्स लगाती है।
भारतीय खाद्य निगम (फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया-एफसीआई) द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कृषि उपज की खरीददारी सरकारी मंडियों के परिसर में ही होती है। सन् 2020 के संशोधन के जरिये कृषि व्यापार की यह अनिवार्यता कि मंडी परिसर में ही उपज बेचना जरूरी है खतम कर दी गई। नए कानून के मुताबिक किसान राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित मंडियों के बाहर अपनी कृषि उपज बेच सकता है। यह कानून कृषि उपज की खरीद-बिक्री के लिए नए व्यापार क्षेत्रों की बात करता है जैसे किसान का खेत, फैक्ट्री का परिसर, वेयर हॉउस का अहाता इत्यादि। इन व्यापार क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म की भी बात की जा रही है। इससे किसानों को यह सुविधा मिलेगी कि वे कृषि उपज को स्थानीय बाजार के अलावा राज्य के अंदर और बाहर दूसरे बाज़ारों में भी बेच सकते हैं। इसके अलावा, इन नए व्यापार क्षेत्रों में लेन-देन पर राज्य अधिकारी किसी भी तरह का टैक्स नहीं लगा पाएंगे। कहने के लिए तो यह कानून मंडियों को बंद नहीं करता पर उनका एकाधिकार जरूर तोड़ता है।
यह नियम इसलिए भी गलत है कि यह संविधान में निहित राज्य सरकारों के अधिकार की अवमानना करता है। सत्तर के दशक में कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) को राज्य सरकार की विधानसभाओं ने बनाया था और अब इस नए कानून से कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) निरस्त हो गए हैं और केंद्र सरकार ने इन्हें निरस्त करते समय राज्य सरकार से बात करना भी जरूरी नहीं समझा। केंद्र सरकार राज्य सरकारों से सलाह लिए बिना उन्हें कैसे खत्म कर सकती है? 2003 में जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार थी तो यह निर्णय लिया गया था कि निजी कंपनियों को मंडी परिसर के बाहर कृषि उपज खरीदने की अनुमति दी जानी चाहिए। लेकिन इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, केंद्र सरकार ने केवल एक मॉडल अधिनियम तैयार किया और उसके मुताबिक राज्य सरकारों को मंडी अधिनियम में संशोधन करने की सलाह दी।
इसके विपरीत मोदी सरकार ने हर क्षेत्र में राज्य सरकारों के अधिकारों को सीमित कर दिया है। इन बदलावों से कॉरपोरेट को कृषि उपज की सीधी खरीद की सुविधा होगी, जिस पर किसी हद तक कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) होने की वजह से राज्य सरकार का कुछ तो नियंत्रण था। कॉरपोरेट घरानों और बड़े व्यापारियों को खरीद-फरोख्त की खुली छूट मिल जाने से वे उन जगहों से ही किसानों की उपज खरीदेंगे जहाँ लेन-देन के लिए कोई शुल्क या टैक्स नहीं लिया जाएगा। शुरुआत में कंपनियों द्वारा किसानों को लुभाने के लिए कुछ आकर्षक मूल्य के प्रस्ताव दिए जाएंगे लेकिन बाद में फसल के दामों पर पूरा नियंत्रण कंपनियों और व्यापारियों का हो जायेगा।
इस नए कानून का यह दुष्परिणाम होगा कि सरकार द्वारा अधिसूचित मंडियों में लेन-देन कमतर होने से व्यापार कम होने लगेगा और अंततः धीरे-धीरे सरकारी मंडियों का विघटन होता जाएगा और साथ ही साथ एफसीआई द्वारा खरीद भी खत्म हो जाएगी। इसके अनेक उदाहरण दूसरे क्षेत्रों में देखे जा चुके हैं। देश भर के कृषि बाजार पर सरकारी एकाधिकार के बजाय कॉरर्पोरेट का एकाधिकार होगा और किसान निजी कंपनियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दया पर निर्भर हो जाएंगे। कृषि उपज के अंतरराष्ट्रीय बाजारों में आते उतार-चढ़ाव और अनुचित व्यापार के परिणामों से देश के किसानों को बचने के लिए कोई और जरिया भी नहीं होगा।
मूल्य या कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर करार (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अधिनियम, 2020
इस कानून का मकसद अनुबंध या ठेका खेती के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक संस्थागत ढांचा तैयार करना है। ठेका या अनुबंध खेती में वास्तविक उत्पादन होने से पहले किसान और खरीददार के बीच उपज की गुणवत्ता, उत्पादन की मात्रा, उसके स्वरूप एवं मूल्य के सम्बंध में अनुबंध किया जाता है। बाद में यदि किसान और खरीददार के बीच में कोई विवाद हो तो इस कानून में विवाद सुलझाने के प्रावधान शामिल हैं। सबसे पहले तो एक समाधान बोर्ड बनाया जाये जो कि विवाद को सुलझाने का पहला प्रयास होगा। यदि समाधान बोर्ड विवाद न सुलझा सके तो आगे इस विवाद को सबडिविजनल अधिकारी(SDM रैंक ) और अंत में अपील के लिए कलेक्टर के सामने ले जाया जा सकता है लेकिन विवाद को लेकर अदालत में जाने का प्रावधान नहीं है।
विधेयक विवाद सुलझाने की बात तो करता है लेकिन इसमें खरीद के अनुबंधित मूल्य किस आधार पर तय होंगे इसका कोई संकेत नहीं है। एक बड़ी कम्पनी तरह-तरह के दबाव बनाकर छोटे किसान से कम से कम मूल्य पर अनुबंध कर सकती है। चूँकि कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) को आधार नहीं बनाते हुए आस-पास की सरकारी या निजी मंडियों के समतुल्य मूल्य देने की बात की है, इसलिए जरूरी नहीं कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) हासिल हो। कानून की भाषा की पेचीदगियों से किसान को गफलत में डालकर कंपनियां अपने मुनाफे को सुनिश्चित करने वाला मूल्य अनुबंध में शामिल करवाएंगी।
इस कानून के बदले भारतीय किसानों ने अपनी सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) की बात कानून का हिस्सा बनाने की मांग की है जो सौ फीसदी सही है! सरकार कहती है कि वह वादा करती है कि MSP खत्म नहीं होगा। पर भारत या दुनिया का कोई लोकतांत्रिक देश सिर्फ किसी सरकार या नेता के वादे या भाषण से नहीं चलता, इसके लिए कानून की जरूरत होती है। किसान यही कह रहे हैं।
उर्मिलेश
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