bosssकुछ सवाल मन में उठते हैं, जो प्रधानमंत्री से जुड़े हैं, भारत सरकार की रणनीति से जुड़े हैं. ये सवाल पूछें, तो किससे पूछें? प्रधानमंत्री के पास तक हमारे सवाल पहुंच नहीं पाएंगे. भारतीय जनता पार्टी के लोग सवालों के ऊपर ध्यान नहीं देंगे और देश के लोग सवालों को अपने आपसे पूछते रहेंगे. लेकिन, कभी-कभी ऐसा लगता है कि ये सारे सवाल देश की गति रोक रहे हैं और देश का बेशक़ीमती वक्त बर्बाद कर रहे हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आख़िर अमेरिका क्यों गए? यह प्रश्न मेरे दिमाग में काफी गंभीरता से घूम रहा है. पांच दिनों तक अमेरिका और एक दिन आयरलैंड में क्यों रहे? हम अमेरिका की बात करें. प्रधानमंत्री का कार्यक्रम बनाने वाले लोगों ने उस समय कार्यक्रम बनाया, जब वहां रूस के ब्लादिमीर पुतिन एवं पोप की यात्रा होने वाली थी और ये तीनों एक साथ अमेरिका में थे. मैंने तलाशा कि अमेरिका के अ़खबारों में मोदी की यात्रा को लेकर क्या छपा है.

पाया कि मोदी की यात्रा को लेकर अमेरिकी अ़खबारों, अमेरिकी मीडिया में कोई उत्सुकता नहीं है और न उन्हें वहां कोई स्थान मिला. स्थान न मिलने को भी हम अनदेखा कर सकते हैं, लेकिन अगर अमेरिकी अ़खबारों में यात्राओं की तुलना होने लगे, तो फिर यह दु:खद स्थिति हो जाती है. प्रधानमंत्री वहां मार्क जुकरबर्ग से मिले. मार्क जुकरबर्ग फेसबुक के मालिक हैं.

पहली चीज यह देखने को मिली कि मार्क जुकरबर्ग को हटाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना चेहरा कैमरे के सामने पूरा दिखाने की कोशिश की. इस फोटो की चुटकी अमेरिकी अ़खबारों में काफी ली गई और हिंदुस्तान के सोशल मीडिया में तो यह वीडियो और फोटो वायरल हो गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डिजिटल इंडिया का नाम अमेरिका में फहराना चाहते थे कि वहां के लोग आएं और हिंदुस्तान में पैसे लगाएं, लेकिन अमेरिकी अ़खबारों ने भारत के मोबाइल फोन कॉल ड्रॉप का मज़ाक उड़ाया और अधिकांश ने लिखा कि यह भारत में एक बुरा सपना बन गया है.

हम भी देखते हैं कि कोई भी कॉल तीन बार ड्रॉप हुए बिना लगती ही नहीं है और जब पता लगाया तो मालूूम हुआ कि यह अरबों रुपये का खेल है. जिसे बात करनी है, वह दोबारा फोन लगाएगा. जो बात एक कॉल में पूरी हो सकती है, उसके लिए तीन कॉल लग रही हैं. लेकिन, इस पर भारत सरकार चुपचाप बैठी है और मोबाइल कंपनियों को पैसे कमाने की खुली छूट दे रही है. हम यह बिल्कुल नहीं कहते कि मोबाइल कंपनियां सरकारी अधिकारियों या मंत्रियों को विशेष सुविधाएं पहुंचा रही हैं, पर शक तो होता है. जेब से पैसे भारत के उस आम आदमी के जा रहे हैं, जो मोबाइल फोन इस्तेमाल करता है.

अमेरिकी अ़खबारों में सिलिकॉन वैली को रिझाने वाले नरेंद्र मोदी की चर्चा के साथ-साथ भारत में सेंसरशिप और निजता के हनन का खौफ भी चर्चा में रहा. पता नहीं, कौन अधिकारी या कौन मंत्री हैं, जो कुछ चीजें हवा में छोड़कर उसका परिणाम देखना चाहते हैं. पहले सोशल मीडिया, खासकर फेसबुक और ट्‌वीटर के ऊपर सेंसरशिप की बात सरकार की तऱफ से आई, लेकिन उसे सुप्रीम कोर्ट ने अवैध करार दिया और उसके बाद वाट्‌सऐप केऊपर अगर कोई संदेश आप भेज रहे हैं, तो उसे तीन महीने यानी 90 दिनों तक सुरक्षित रखने की बात सरकार की तऱफ से कही गई.

जब इसका देश में बहुत ज़्यादा विरोध हुआ कि यह लोगों की निजी ज़िंदगी में दखल है, तब इसे सरकार ने वापस लिया. पर लगता है कि यह टटोलने की कोशिश हो रही है कि भारत के नागरिकों की निजी ज़िंदगी में कैसे सरकार का दखल बढ़ाया जाए. भारत में मोदी अपने आलोचकों को परेशान कर रहे हैं, यह भी अमेरिकी अ़खबारों का विषय रहा और इसमें उदाहरण के रूप में संजीव भट्ट एवं तीस्ता शीतलवाड़ के मामले का उल्लेख हुआ.

मोदी फेसबुक पर अपनी मां को याद करके रोए. मार्क जुकरबर्ग के सवालों ने उनकी आंखों में आंसू ला दिए. लेकिन, नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स नामक किताब लिखने वाले नीलांजन मुखोपाध्याय ने कहा कि उन्हें तो कोई ऐसा सुबूत नहीं मिला, जिससे पता चले कि मोदी की मां दूसरों के घर पर काम करती थीं. अमेरिकी अ़खबारों में इसे प्रधानमंत्री मोदी की ग़लत बयानी के रूप में देखा गया और मोदी का अपनी पत्नी से अलग रहना भी अमेरिकी अ़खबारों में चर्चा का विषय बना.

दरअसल, नरेंद्र मोदी से जुड़ी ज़्यादातर खबरें सिलिकॉन वैली से संबंधित हैं और एशिया पेसिफिक की श्रेणी में कोई फ्रंट पेज स्टोरी किसी अ़खबार ने नहीं की. वहीं पोप और पुतिन से संबंधित खबरें अमेरिकी अ़खबारों के प्रथम पेज पर मौजूद दिखाई दीं.

न्यूयार्क टाइम्स में सिलिकॉन वैली से संबंधित खबरें छपी हैं. उसके बिजनेस पेज पर एक हेडिंग है, Narendra Modi, Indian Premier, Courts Silicon Valley to Try to Ease Nation’s Poverty. और, दूसरी हेडिंग उनके सिलिकॉन वैली के अगले दिन के कार्यक्रम से संबंधित है. यह भी बिजनेस पेज पर है. इसके अलावा न्यूयार्क टाइम्स में मोदी के दौरे से संबंधित कोई खबर नहीं है. जबकि पोप और पुतिन अमेरिकी अ़खबारों या जिन अ़खबारों का हम जिक्र कर रहे हैं, उनके फ्रंट पेज पर मौजूद हैं. उनसे संबंधित ज़्यादा खबरें फ्रंट पेज पर हैं. वाल स्ट्रीट जर्नल के अमेरिका, यूरोप व एशिया संस्करण में ओबामा एवं मोदी की अगले दिन की मीटिंग और सिलिकॉन वैली की एक छोटी-सी खबर के अलावा कोई कवरेज नहीं है.

जबकि पुतिन और पोप, दोनों फ्रंट पेज पर मौजूद हैं. यूएसए टुडे अ़खबार मोदी की जुकरबर्ग से मुलाकात और सिलिकॉन वैली से संबंधित खबरें छापता है, लेकिन पुतिन और पोप, दोनों को फ्रंट पेज पर जगह देता है. लॉस एंजेल्स टाइम्स पोप फ्रांसिस और नरेंद्र मोदी के अमेरिकी दौरे का तुलनात्मक अध्ययन करता है और हल्के-फुल्के अंदाज़ में चुटकी भी लेता है. उसका मानना है कि पोप फ्रांसिस और नरेंद्र मोदी का अमेरिकी दौरा एक-दूसरे से बिल्कुल अलग चरित्र का रहा.

इस अ़खबार का मानना है कि पोप फ्रांसिस और भारतीय प्रधानमंत्री एक ही समय पर अमेरिका के दौरे पर थे. अ़खबार लिखता है कि दोनों एक अरब से अधिक लोगों का नेतृत्व करते हैं और दोनों भीड़ खींचने वाली शख्सियत हैं. मजे की बात यह कि दोनों जगह आंसू थे, जलवायु परिवर्तन पर बात थी, महिलाओं से संबंधित मुद्दे थे, लेकिन इसके बावजूद उनके दौरे के जो फर्क़ थे, अगर उन्हें ध्यान पूर्वक देखें, तो वे बहुत कुछ इशारा करते हैं.

ओबामा पोप की अगुवाई करने एयरपोर्ट गए और मोदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में गले लगाया. दरअसल, ओबामा और उनकी पत्नी मिशेल ओबामा ने प्रोटोकॉल तोड़कर पोप फ्रांसिस का मेरीलैंड में जाकर अभिवादन किया. पोप ने बेघर लोगों, किसी भी तरह के दुर्व्यवहार के शिकार लोगों और कैदियों के साथ समय बिताया. जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गूगल, फेसबुक और एप्पल के साथ समय बिताया. यहां ध्यान देने की बात यह है कि पोप ऐसे पहले धार्मिक नेता हैं, जिन्होंने अमेरिकी कांगे्रस के संयुक्त सत्र को संबोधित किया. पोप को सुनने के लिए फिलाडेल्फिया में 10 लाख लोग मौजूद थे.

मोदी को सुनने के लिए सैप सेंटर सैन जोस में, जो कैलिफोर्निया में है, 18 हज़ार लोग आए थे और उनमें अधिकतर लोग भारतीय मूल के थे. जबकि इससे ठीक एक दिन पहले तक़रीबन 80 हज़ार लोग, जिनका लॉटरी में नाम निकला था, वे न्यूयार्क के सेंट्रल पार्क में पोप के आने का इंतज़ार कर रहे थे. अमेरिकी जनगणना के अनुसार, वहां तक़रीबन सात करोड़ लोग कैथोलिक हैं और 28 लाख से अधिक लोग भारतीय मूल के हैं. इसका मतलब 28 लाख लोगों में से स़िर्फ 18 हज़ार लोग नरेंद्र मोदी को सुनने के लिए पहुंचे. जलवायु परिवर्तन पर पोप ने मार्टिन लूथर किंग का हवाला दिया, तो मोदी ने गांधी जी का. और, अ़खबार कहता है कि यहां दोनों नेताओं ने शांति पसंद नेताओं को उद्धृत किया. पोप ने अपने प्रवचन से जॉन बोहेनर को रूला दिया और वहीं दूसरी तऱफ मोदी को मार्क जुकरबर्ग ने एक सवाल करके रूला दिया. अ़खबार इस नतीजे पर पहुंचा कि पोप का प्रवचन सुनकर बहुत सारे लोग अपने आंसू पोछते नज़र आए, जबकि मार्क जुकरबर्ग के सवाल पर स़िर्फ मोदी की आंखों में आंसू आए.

मोदी के कैलिफोर्निया के कार्यक्रम और फेसबुक पर उनके इंटरव्यू के दौरान विरोध करने वाले मौजूद थे. कुछ प्रदर्शनकारियों ने जुकरबर्ग को मोदी से हाथ मिलाने के बाद हाथ सा़फ करने के लिए सैनेटाइज़र की 250 बोतलें भेजीं. वहीं पोप द्वारा जुनिपेरो सेर्रा, जिनके ऊपर अफ्रीकी गुलामों को प्रताड़ित करने का
आरोप था, को सेंटहूड दिए जाने के बावजूद कोई बड़ा विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ. हां, पोप के एक कार्यक्रम में विरोध हुआ, वह भी एक टेंट को लेकर, जो स्टेज के सामने खड़ा कर दिया गया था और जिसकी वजह से लोग पोप को नहीं देख पा रहे थे.

सवाल स़िर्फ एक है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की यात्राओं का आयोजन भारत सरकार इसलिए कर रही है कि उसे हिंदुस्तान में उनकी तस्वीर चमकानी है या इसलिए कि अमेरिका के सामने हिंदुस्तान का अच्छा चेहरा रखना है और हिंदुस्तान में एनआरआई का इंवेस्टमेंट लाना है. भारत में एनआरआई का इंवेस्टमेंट लगभग नहीं हुआ है. प्रवासी भारतीय दिवस कार्यक्रम शुरू हुए एक दशक से भी ज़्यादा समय बीत चुका है, नरेंद्र मोदी भी इसे बहुत तेजी के साथ प्रमोट कर रहे हैं, लेकिन एनआरआई ने हिंदुस्तान में कोई ज़्यादा इंवेस्टमेंट नहीं किया. तब किस इंवेस्टमेंट की बात कही जा रही है? हमारे देश की कंपनियां काम करना चाहती हैं. हमारे देश की कंपनियां काम न करें और विदेशी कंपनियों को हम आमंत्रित करें, अगर यह हमारा उद्देश्य है, तो शायद यह सही उद्देश्य नहीं है.

पर इन सारी स्थितियों में एक सवाल है और वह सवाल है कि अगर देश में बिजली नहीं होगी, तो हमारी कोई योजना चल पाएगी या नहीं? जब हम सरकारी आंकड़े देखते हैं कि पिछले डेढ़ साल में हमने पावर सेक्टर या बिजली उत्पादन के क्षेत्र में क्या किया, तो उसके कोई भी सही आंकड़े नहीं मिलते और न उत्साहित करने वाली कोई तस्वीर मिलती है. दूसरी तऱफ जितनी योजनाएं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर शुरू हुईं, उनके बारे में ज़मीन पर कोई उत्साहजनक छाप नहीं दिखाई देती. मैं चाहता हूं कि इसके ऊपर मीडिया बात करे, लेकिन अ़फसोस की बात यह कि मीडिया हिंदुस्तान में नरेंद्र मोदी की छवि बनाने के लिए उनके अमेरिकी दौरे को विश्व विजय करने वाले योद्धा के अमेरिकी फतह के रूप में पेश कर रहा है. हम खुद को धोखा दे सकते हैं, लेकिन विश्व को धोखा नहीं दे सकते.

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