शब्दों की लड़ाई पहले भी होती थी, लेकिन जिस तरह आज शब्दों को लेकर लोगों का विश्वास, लोगों की समझ और लोगों का व्यक्तित्व तय किया जा रहा है, वैसा संभवत: पहले कभी नहीं हुआ. अंग्रेजों के जमाने में लड़ाई बहुत साफ़ थी. एक तरफ़ अंग्रेज थे, दूसरी तरफ़ भारत के लोग थे और देश की ताकतों में से बहुत सारी ताकतें अंग्रेजों के पक्ष में थीं. वे अंग्रेजी हुक्मरानों के साथ मिलते-जुलते थे. वैसे ही शब्द, वैसा ही पहनावा अख्तियार करते थे, जो अंग्रेजों को पसंद था. दूसरी तरफ़ वे लोग थे, जो उनसे लड़ाई लड़ रहे थे. उनकी भाषा, उनका पहनावा और उनके प्रतीक देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले सिपाहियों से मिलते-जुलते थे. अपने आप लोग यह तय करते थे कि वे अंग्रेजों के पक्ष में हैं या हिंदुस्तानियों के. मसलन, जब विदेशी कपड़ों की होली जली, तब बहुत सारे लोगों ने चौराहे पर जाकर विदेशी वस्त्रों की होली नहीं जलाई, बल्कि अपने मोहल्ले में ही आग जलाकर, विदेशी रूमाल जलाकर अपना समर्थन आज़ादी के आंदोलन को दिया.
आज़ादी के आंदोलन में जिन नारों का इस्तेमाल होता था, उनमें सबसे प्रमुख वंदे मातरम और भारत माता की जय का नारा था. और, तीसरा उस समय राष्ट्रगान बन चुका था, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा. अंग्रेजों के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई में बहुतों ने विद्रोह किया, जिनमें साधु-संन्यासी भी शामिल थे, जिस पर बंकिम चंद ने आनंद मठ लिखा. उन साधु- संन्यासियों के अंग्रेजों के प्रति विद्रोह और आज़ादी के आंदोलन को समर्थन का सबसे प्रमुख नारा वंदे मातरम था.
सामान्य तौर पर पूरे हिंदुस्तान में भारत माता की जय अंग्रेजों से लड़ने का सबसे शक्तिशाली नारा था. बेड़ियों में जकड़ी हुई भारत माता की तस्वीर और भारत का नक्शा, यह चित्र सारे देश में प्रचलित था तथा उसे आज़ाद कराने की कसम बच्चे से लेकर बूढ़े तक, जो आज़ादी के आंदोेलन को अपना समर्थन दे रहे थे, खा रहे थे. ये दो पवित्र नारे हमारी आज़ादी की विरासत की धरोहर हैं.
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लेकिन, आज 2016 में आज़ादी के ये दो नारे भारतीय जनता पार्टी के प्रतीक के तौर पर सामने आ गए हैं. जो लोग इस बारीकी को नहीं समझते हैं, उन्होंने भी यह स्थिति लाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है. 70 के दशक में कम्युनिस्टों या वामपंथी विचारधारा से लड़ने के लिए तत्कालीन जनसंघ से जुड़े संगठनों ने एक नारा ईजाद किया था, लाल गुलामी छोड़कर, बोलो वंदे मातरम. आज अपनी विचारधारा को राष्ट्रवाद की चाशनी में डुबोकर भारत माता की जय सारे देश में गूंज रहा है. और, विचारधारा विशेष यह प्रचारित कर रही है कि अगर आप भारत माता की जय बोलते हैं, तो आप उसी तरह भारतीय जनता पार्टी के समर्थक हो जाते हैं, जैसे आपने एक समय मिस्डकॉल देकर भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली थी और दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के सदस्य बन गए थे. भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह का कहना है कि दुनिया में सबसे अधिक सदस्य संख्या वाली पार्टी भाजपा है, जिसके 11 करोड़ सदस्य हैं. हालांकि, 11 करोड़ सदस्य बनने के बाद दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बुरी तरह दिल्ली में चुनाव हार चुकी है, बिहार में चुनाव हार चुकी है और अब उसके सामने असम, पंजाब, पश्चिम बंगाल एवं उत्तर प्रदेश हैं. देखना है, सबसे बड़ी पार्टी यहां पर क्या कमाल दिखाती है.
लेकिन, प्रश्न शब्दों का है. दबाव डालकर हर एक से भारत माता की जय बुलवाने की बात कहना एक राजनीतिक आंदोलन बन गया है. दूसरा वर्ग है, जो यह कहता है कि हम भारत माता की जय नहीं बोलेंगे. यह बहुत छोटी और सतही राजनीतिक लड़ाई है. इस लड़ाई ने आज़ादी के आंदोलन के दो नारों को उनकी उस गरिमा से नीचे गिराने का काम किया है, जो उन्हें आज़ादी के आंदोलन में मिली थी. आज़ादी के आंदोलन में और भी नारे थे, इंकलाब- ज़िंदाबाद था, जयहिंद था, पर अचानक राष्ट्रप्रेम और देशप्रेम का पर्याय ये दो नारे बना दिए गए हैं. यहीं भारत की आज़ादी के आंदोलन का महत्व ख़त्म करने की गंध आ रही है. आज़ादी के आंदोलन में क्या हम उन वर्गों का योगदान नकारना चाहते हैं, जिनकी वजह से आज़ादी आई या हम उन सारे शब्दों को भोथरा करना चाहते हैं, जो आज़ादी के आंदोलन के पर्याय बन गए थे. स़िर्फ एक शब्द को राष्ट्रप्रेम से जोड़ना और जो उसे न बोले, दूसरा शब्द बोले, वह राष्ट्रद्रोही! यह मानसिकता देश की अक्षुण्ण एकता को तोड़ने की बहुत ही घटिया कोशिश है.
हम यह साफ़ तौर पर मानते हैं कि देश के समझदार लोगों को खड़े होकर आज़ादी के आंदोलन का पर्याय रहे शब्दों की इज्जत और महत्व उन सबको समझाना और बताना चाहिए, जो इनसे खेलने की कोशिश कर रहे हैं.
दरअसल, वे कभी राष्ट्रभक्त तो हो ही नहीं सकते. यहां पर भारत सरकार की भी बहुत बड़ी भूमिका है. भारत सरकार आज़ादी के आंदोलन का इतिहास कभी पूरे तौर पर देश की जनता के सामने ला ही नहीं पाई. आज़ादी का आंदोलन या आज़ादी के बाद समस्याओं के विरुद्ध चले विभिन्न संघर्ष और आंदोलन भारत के विकास की सीढ़ियां हैं, जिनसे ग़ुजर कर आज भारत वहां पहुंचा है, जहां उसके सामने निराशा भी है और आशा भी.
इसलिए हमारा अनुरोध है कि हमें शब्दों को उनके उसी महत्व से जानना चाहिए, जिस संदर्भ में उनका इस्तेमाल होता है. भारत माता की जय, वंदे मातरम, इंकलाब-ज़िंदाबाद और जयहिंद, ये ऐसे शब्द हैं, जो बराबर महत्व के हैं और जिन्होंने आज़ादी के आंदोलन को उसकी पूर्णता तक पहुंचाने में अद्भुत सहयोग किया. अगर आज इन शब्दों की पुनर्प्रतिष्ठा में देश असफल रहता है, तो यह मानना चाहिए कि हम न अपने शहीदों के प्रति कृतज्ञ हैं, न आज़ादी के लिए लड़ने वालों के प्रति कृतज्ञ हैं और न आज़ादी के प्रति कृतज्ञ हैं. बल्कि, हम एक नकली सोच का गुब्बारा देखकर यह मान बैठे हैं कि सच्चाई यही है. जबकि सच्चाई कुछ और है, जिसे तलाशने वाले आज खामोश बैठे हैं. देखते हैं, यह खामोशी कब तक कायम रहती है.
हम यह साफ़ तौर पर मानते हैं कि देश के समझदार लोगों को खड़े होकर आज़ादी के आंदोलन का पर्याय रहे शब्दों की इज्जत और महत्व उन सबको समझाना और बताना चाहिए, जो इनसे खेलने की कोशिश कर रहे हैं. दरअसल, वे कभी राष्ट्रभक्त तो हो ही नहीं सकते. यहां पर भारत सरकार की भी बहुत बड़ी भूमिका है. भारत सरकार आज़ादी के आंदोलन का इतिहास कभी पूरे तौर पर देश की जनता के सामने ला ही नहीं पाई.
प्रश्न शब्दों का है. दबाव डालकर हर एक से भारत माता की जय बुलवाने की बात कहना एक राजनीतिक आंदोलन बन गया है. दूसरा वर्ग है, जो यह कहता है कि हम भारत माता की जय नहीं बोलेंगे. यह बहुत छोटी और सतही राजनीतिक लड़ाई है. इस लड़ाई ने आज़ादी के आंदोलन के दो नारों को उनकी उस गरिमा से नीचे गिराने का काम किया है, जो उन्हें आज़ादी के आंदोलन में मिली थी. आज़ादी के आंदोलन में और भी नारे थे, इंकलाब-ज़िंदाबाद था, जयहिंद था, पर…