ये 20 जून 2005 की बात है, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यालय और ओड़ीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के कार्यालय समेत राज्य सचिवालय के विभिन्न विभागों में गहमागहमी थी. कारण था, पॉस्को का 52 हजार करोड़ रुपए का निवेश. दक्षिण कोरिया की ये दिग्गज कंपनी ओड़ीशा के जगतसिंहपुर जिले में 52 हजार करोड़ के निवेश से एक इस्पात कारखाना की स्थापना करने वाली थी.
इसके लिए प्रस्तावित जमीन के प्रभाव क्षेत्र में गोविंदपुर, ढिंकिया, नौगान, गड़कुजांग और पटनागढ़ गांव आने वाले थे. मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार 52000 करोड़ रुपए के इस विदेशी निवेश से गौरवांवित महसूस कर रही थी. ओड़ीशा की नवीन पटनायक सरकार भी इस विशाल निवेश में अपने लोगों के लिए रोजगार के अवसर देखी रही थी. देश और ओड़ीशा की प्रगति के लिए पॉस्को को एक सुनहरे सपने के रूप में देखा जा रहा था और इसकी स्थापना को ग्रामीणों की समृद्धि के रूप में पेश किया जा रहा था.
एक तरह से दोनों ही सरकारें खुद ही इस उपलब्धि का जश्न मना रही थीं. हालांकि गोविंदपुर, नुगन, ढिंकिया, गदकुजंगा और पटनागढ़ के लोग ये समझ नहीं पा रहे थे कि 52 हजार करोड़ रुपए का ये विदेशी निवेश उनके क्षेत्र को किस प्रकार विकसित करेगा. गांव वालों के मन में कई सवाल थे. वे सोच रहे थे कि जब सरकार उनके जल-जंगल-जमीन को पॉस्को को सौंप देगी, वे अपनी जमीनों से बेदखल कर दिए जाएंगे और उनकी आजीविका के स्त्रोत मछली, पान और फसलें नष्ट हो जाएंगी, तो फिर इससे किस प्रकार उनका विकास होगा, वे कैसे समृद्ध होेंगे, किस तरह से प्रगति करेंगे.
बसाने के सपने के साथ उजाड़ गया पॉस्को
पॉस्को के खिलाफ लड़ाई में बुजुर्ग नारायण मंडल ने अपने दो बेटों दुला (37) और बुला (33) को खो दिया. बुला अपने पीछे अपनी विधवा और 18 महीने की एक बेटी को छोड़ गया. इसी संघर्ष में पांच बेटियों के पिता 49 वर्षीय लक्ष्मण परमणिक लकवाग्रस्त हो गए. 2 मार्च को एंटी पॉस्को विद्रोह में 52 वर्षीय नारायण शाही और मानस जेना की मृत्यु हो गई. मरते समय मानस अपने दो महीने के बेटे को भी नहीं देख पाए थे.
57 वर्षीय गुरेई दास को भी उस समय भयंकर पुलिस प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा था. उस अपराध का भागी कौन बनेगा, जो नारायण मंडल, उनके दोनों मृत बेटों और उनकी विधवा पत्नी के साथ हुआ. मानस और दुर्योधन के परिवार वालों, उनकी विधवा, अपंग लक्ष्मण परमणिक और गुरेई दास को मुआवजा कौन देगा. क्या सरकार आश्रय विहिन हो चुके पोस्टमास्टर बाबाजी सामंतरे को उनकी प्रतिष्ठा वापस लौटा सकती है. इलाके में ऐसे ही सवाल तैर रहे हैं.
अब 12 साल बाद लोग इस क्षेत्र के विकास को लेकर पॉस्को और सरकार द्वारा किए गए के थोथे वादों के खिलाफ एकजुट होने लगे हैं. ग्रामीणों का कहना है कि पॉस्को के रास्ते विदेशी निवेश लाने की कोशिश में सरकार ने यहां के मेहनती लोगों को खोखले सपने दिखाए और फिर यहां आतंक और संहार का वातावरण तैयार कर दिया. सैकड़ों लोगों को झूठे मुकदमों में फंसाया गया और आम लोगों की आवाज दबाई गई.
एंटी पॉस्को मूवमेंट के नेता अभय साहू और मनोरमा खतुआ का कहना है कि जल्द से जल्द लोगों को उनकी जमीनें लौटाई जाए और सैकड़ों ग्रामीणों पर किए गए फर्जी मुकदमों को बिना किसी शर्त वापस लिया जाय. जिन लोगों की जमीनें अनुपयोगी रह गईं उन्हें और उन नौजवानों को सरकार हर्जाना दे, जो दूसरे शहरों में जाकर नौकरी करने को विवश हुए. साइक्लोन प्रभावी इस क्षेत्र में प्रशासन ने व्यापक स्तर पर पेड़ों की कटाई की है, सरकार को चाहिए कि वो बिना देर किए जल्द से जल्द वृक्षारोपण का काम शुरू करे.
अगर ऐसा नहीं किया जाता है, तो सरकार को एक और बड़े आंदोलन के लिए तैयार रहना होगा. पॉस्को के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे कई लोगों पर किए गए केस आज 12 साल बाद भी पेंडिंग हैं. इस मामले में मनोरमा खतुआ पर 39, संजू मंत्री पर 18, दलित महिला शांति दास पर 24, अहल्या बेहेरा पर 8, मंजू सामंतरे पर 11, अजय दास पर 54, सूरा दास पर 18 और बाबाजी सामंतरे पर 30 फर्जी मुकदमे दायर किए गए थे. आज इनकी व्यथा सुनने वाला कोई नहीं है.
पूर्व पोस्टमास्टर बाबाजी सामंतरे अपनी जमीन और भावी पीढ़ी के अधिकारों की रक्षा के लिए एंटी पॉस्को मूवमेंट को सपोर्ट करते रहे हैं. इसी कारण उन्हें एक झूठे मुकदमे में फंसाकर उनकी सेवा बर्खास्त कर दी गई. सरकार की तरफ से इस उत्पीड़न का बाबाजी को बहुत आघात लगा. आज 12 साल बाद उन्हें 30 में से 10 मुकदमों में बेल मिल चुका है. इन मुकदमों में बेल लेना बहुत ही खर्चीला है. बाबाजी कहते हैं कि मेरे लिए अब इस उम्र में एक कोर्ट से दूसरे कोर्ट का चक्कर लगाना बहुत ही मुश्किल है.
स्थानीय पुलिस अब कुछ सहयोग कर रही है. अब जजों को भी समझ आ गया है कि मुझे किस तरह से झूठे मुकदमों में फंसाया गया. न्यायालय एक दिन अवश्य ही मुझे निर्दोष साबित करेगी. उसके बाद मैं अपने डिपार्टमेंट और राज्य सरकार पर केस करूंगा, जिन्होंने साजिश के तहत मुझे फंसाया. बाबाजी कहते हैं, हम अपनी जमीनें लैंड बैंक में नहीं रहने देेंगे, सरकार को हमें हमारी जमीनें वापस करनी पड़ेगी. ये लैंड बैंक किसके लिए बनाया जा रहा है?
वे भी बर्बाद हो गए जिन्होंने पॉस्को पर भरोसा किया
अब इसे लेकर भी सवाल उठ रहे हैं कि पॉस्को द्वारा प्रोजेक्ट वापस लिए जाने के बाद किस तरह से उन 52 परिवारों के साथ विश्वासघात किया गया और उन्हें विस्थापित छोड़ दिया गया, जिन्होंने सरकार और पॉस्को पर भरोसा किया था. 12 साल बाद अब पॉस्को तो वापस जा चुका है, लेकिन उन 52 परिवारों को कौन हर्जाना देगा, जो आज जिंदा लाश बनकर रह गए हैं. आज उनका दुख सुनने वाला कोई नहीं है.
अपनी वासभूमि से बेदखल होने के बाद अब वे शरणार्थी जैसी जिंदगी गुजार रहे हैं. अब उनमें इतनी ताकत नहीं बची है कि वे इस विकास के बदरंग चेहरे का सामना कर सकें. प्रो-पॉस्को एक्टीविस्ट रहे तमिल प्रधान कहते हैं कि अब हम राज्य सरकार और केंद्र सरकार की साजिश के बारे में जान चुके हैं. हमें उन दोमुंहे नेताओं की सच्चाई पता चल चुकी है, जिन्होंने ग्रामीणों को बर्बादी की तरफ ढकेला. राज्य सरकार लैंड बैंक की प्रक्रिया को खत्म करे और ग्रामिणों की उनकी जमीनें लौटाए.
सरकार को निर्दोष लोगों और उनकी आजीविका से खेलना बंद करना होगा. चंदन मोहंती उस समय उन 52 परिवारों में सबसे आगे थे, जिन्होंने पॉस्को प्रोजेक्ट का समर्थन किया था और प्रोजेक्ट के लिए अपनी जमीनें प्रशासन को सौंप दी थी. लेकिन वे ही चंदन मोहंती अब 12 साल बाद कहते हैं कि जिस सरकार ने हमारा संरक्षक बनने का दावा किया था, वो हमारी विनाशक बन गई. सरकार पर भरोसा कर के सुखद भविष्य के लिए हमने अपना सुख-चैन दफन कर दिया, लेकिन आज शरणार्थी की जिंदगी जी रहे हैं.
एक तरह से हमने अपना वर्तमान और भविष्य सरकार के हाथों गिरवी रख दिया है और शरणार्थी शिविरों में जिंदा लाश बनकर रह रहे हैं. मोहंती कहते हैं कि जिलाधिकारी सत्यव्रत मल्लिक ने जब हमें शरणार्थी शिविर से बाहर निकलने का आदेश दिया, तब हमें पता चला कि विकास का असली मतलब क्या होता है. अब बिना देर किए सरकार को लैंड बैंक बनाने का विचार त्याग कर ग्रामीणों को उनकी जमीनें वापस करनी चाहिए. हमें सरकार के विकास और लैंड बैंक की जरूरत नहीं है.
एक और आंदोलन की आहट
पॉस्को को बंद करने की आधिकारिक घोषणा के बाद भी स्थानीय आबादी का संघर्ष और विद्रोह खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है. इसका कारण है, पॉस्को के लिए अधिग्रहित की गई जमीनों का लैंड बैंक बनाने के संबंध में मुख्यमंत्री की टिप्पणी. मुख्यमंत्री के अनुसार, अधिग्रहित भूमि को लैंड बैंक के रूप में रखा जाएगा.
लेकिन पॉस्को परियोजना के बंद होने के बाद अपनी जमीनों को वापस पाने का सपना पाले लोग लैंड बैंक की इस घोषणा से गुस्से में हैं. लैंड बैंक की घोषणा ने बारह साल पहले शुरू हुए विद्रोह की आग को फिर से जला दिया है. स्थानीय लोगों और दलों का मानना है कि अपनी जमीन और आजीविका बचाने के लिए 12 साल पहले जो लड़ाई लोगों ने लड़ी थी, वो एक बार फिर शुरू हो सकती है और निकट भविष्य में एक और हिंसक आंदोलन सामने आ सकता है.
इस प्रोजेक्ट के कारण प्रभावित हुए क्षेत्र के सभी लोगों की जुबान पर यही सवाल है कि नवीन पटनायक सरकार ने 12 साल पहले पॉस्को के नाम पर इनसे जमीन लिया था, लेकिन अब किनके लिए लैंड बैंक की बात की जा रही है? लोगों का कहना है कि पॉस्को प्रोजेक्ट बंद तो हो गया, लेकिन इसने हमें भूमिहीन बना दिया.
अब सरकार उन जमीनों का लैंड बैंक बनाकर हमारी जीविका पर कुठाराघात कर रही है. 61 वर्षीय दुखी, 56 साल की विकलांग गुरई दास, 72 साल के बाबाजी सामंतरे, पूरी तरह से लकवाग्रस्त लक्ष्मण पारामणिक और अपने दोनों बेटों को खो चुके बुजुर्ग नारायण मंडल जैसे सैंकड़ों ग्रामिण अब लैंड बैंक से अपनी जमीनें बचाने की लड़ाई के लिए तैयार दिख रहे हैं.
हालांकि किसान अब भी सरकार से गुहार लगा रहे हैं कि लैंड बैंक बनाने की प्रक्रिया को बंद कर, उन्हें उनकी जमीनें उन्हें लौटा दी जाय. ढिंकिया, गोबिंदपुर, नौगान, गड़कुजांग और पटनगढ़ के प्रभावित किसान अब 12 साल बाद अपनी जमीनों को वापस पाने के लिए एकजुट हो रहे हैं. पॉस्को से छुटकारा पाने के बाद अब वे लैंड बैंक के मुद्दे पर अपनी लड़ाई जारी रखना चाहते हैं. इस मामले में किसी भी फैसले के प्रति उन्होंने सरकार को भी आगाह कर दिया है.
प्रशासन की ज्यादती से परेशान लोग
12 साल बाद अब यहां लोगों को एक नई समस्या का सामना करना पड़ रहा है. एक ग्रामीण रमेश जेना के पान के बगीचे को स्थानीय प्रशासन और ओड़ीशा औद्योगिक निगम (आईडीसीओ) ने जानबूझकर बर्बाद कर दिया और उन्हें कोई मुआवजा भी नहीं दिया गया. इसी तरह, किशोर बर्धान के दो बड़े पान बगीचों को पुलिस की मदद से उजाड़ दिया गया. हालांकि बाद में उन्हें प्रशासन की तरफ से मुआवजे के रूप में 1,60,000 का चेक दिया गया और बाकी का पैसा बाद में देने का वादा किया गया.
लेकिन बर्धान को उसके बाद कुछ नहीं मिला. एक-दो ही नहीं, सैकड़ों लोग इस तरह की अमानवीय घटना की शिकायत कर रहे हैं. अब लोग ये मांग कर रहे हैं कि सरकार ऐसी शिकायतों की जांच कराए. ये भी कहा जा रहा है कि आईडीसीओ के कुछ भ्रष्ट अधिकारी मुआवजे का पैसा गबन कर गए, जिससे पीड़ितों तक मुआवजे की राशि नहीं पहुंच पाई. ऐसी भी घटना सामने आई थी जिसमें अधिकारियों ने उन पान के बगीचों की बर्बादी के एवज में देने वाले मुआवजे का वाउचर बनाकर पैसा उठा लिया, जो हैं ही नहीं.
इस पूरे मामले से समझा जा सकता है कि विकास की सुंदर तस्वीर विदेशी पैसे के गलत निवेश से किस प्रकार बदरंग हो सकती है. 52 हजार करोड़ का एक प्रोजेक्ट किस प्रकार से विकास की जगह विनाश का कारण बन गया, ये इसका कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है. अब समय है ये समझने का कि विकास के नाम पर किया गया कॉर्पोरेट इनवेस्टमेंट किस प्रकार से लोगों को विनाश के केंद्र में ले जाकर खड़ा कर देता है.
पॉस्को की तरफ से लोगों को प्रति एकड़ कितना कम मुआवजा दिया गया है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि वो इनके पान के बगीचों से होने वाली महज छह माह की कमाई के बराबर है. लोग अब उन मुआवजों के पैसों को वापस करने की तैयारी में हैं. अब समय आ गया है कि वहां के जल-जंगल-जमीन और लोगों की आजीविका के साधनों जैसे, पान के बगीचों, मछली पालन और फसलों की सुरक्षा की जाय और सरकार उन्हें उनकी जमीनें वापस करे. अगर ऐसा नहीं होता है, तो लोगों का आक्रोश एक बड़े जन आंदोलन का रूप ले सकता है.