केंद्रीय गृह सचिव जी के पिल्लई से एक मुलाकात
भारतीय प्रशासनिक सेवा में गोपाल कृष्ण पिल्लई ने परिवार की तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व किया था. वह 1972 में इस सेवा के लिए चयनित हुए. उनके दादा त्रावणकोर राज्य में राजस्व सचिव रहे हैं, जबकि पिता स्वास्थ्य मंत्रालय में सचिव रहे. गौरतलब है कि पिल्लई के ननिहाल पक्ष की पृष्ठभूमि भी प्रशासनिक सेवा की ही है.
प्रशासनिक शक्ति को इतने करीब से देखने वाले पिल्लई आज देश की सबसे शक्तिशाली प्रशासनिक कुर्सी पर इतनी शालीनता से बैठे हैं जिसका अंदाजा उनसे पहली मुलाकात में ही लग जाता है. शहरी, शालीन और मृदुभाषी पिल्लई ने बचपन से ही प्रशासनिक ढांचे के विस्तार और उतार-चढ़ाव को देखा है. आज प्रशासन से सीधे तौर पर उनका जुड़ाव सैंतीस सालों का हो चुका है.
जी के पिल्लई एक कर्मठ अधिकारी हैं. उनका सेवाकाल शानदार रहा है. अंजुम ज़ैदी से उनकी एक मुलाकात में ऐसे तमाम मुद्दों पर चर्चा हुई जो उनके जीवन के व्यक्तिगत पहलुओं को दर्शाते हैं. उनकी पसंदीदा किताबें, फिल्में, जीवनी पढ़ने के लिए उनका दीवानापन और संगीत में उनकी रुचि ख़ूब है. इन सब के बीच वह अपने शौक पूरा करने के साथ अपने काम को भी बखूबी अंजाम देते हैं. पेश है, अंजुम ज़ैदी से उनकी बातचीत के महत्वपूर्ण अंश
अपने नए ऑफिस में आपको कैसा लग रहा है?
स्वाभाविक है, अच्छा लग रहा है. मंत्रालय का विस्तार हो रहा है. समय के साथ-साथ बड़े होते इस मंत्रालय में चुनौतियां भी काफी बढ़ चुकी हैं. पहले जब मैं संयुक्त सचिव नॉर्थ-ईस्ट के पद पर था, तब मैं अकेले ही सब कुछ संभाला करता था, आज उस काम को करने के लिए कई और लोग हैं. इसकी वजह है कि काम बहुत बढ़ चुका है.
आप एक ऐसे परिवार से हैं, जिसकी तीन पीढ़ियां प्रशासनिक सेवा में रही, आप खुद पिछले कई सालों से प्रशासन का हिस्सा हैं. इतने लंबे अनुभव में आपने प्रशासन में क्या-क्या बदलाव देखे हैं?
यह सही है कि मेरी मां और पिता दोनों ही पक्ष के लोग प्रशासनिक सेवा में रहे हैं. मेरे पिता के समय में प्रशासनिक अमला बहुत छोटा हुआ करता था. बचपन में मैं पिता के साथ रायसीना हिल जाया करता था, उस समय वह स्वास्थ्य सचिव थे(1952-57). उन दिनों, सभी मंत्रालय नॉर्थ और साउथ ब्लॉक में ही थे. मंत्रालयों में महज़ एक सचिव, एक संयुक्त सचिव और एक उप-सचिव हुआ करते थे. उन दिनों सचिवों का कार्यकाल लंबा हुआ करता था और चालीस साल की उम्र तक वे सचिव बन जाया करते थे. उनके पास विभाग को सही दिशा देने के लिए अधिक व़क्त हुआ करता था. देश को नई-नई आज़ादी मिली थी, और सभी राष्ट्र निर्माण की नींव डालने में लगे थे. नई संस्थाएं बनाई जा रहीं थी, नए मेडिकल कॉलेज खोले जा रहे थे, चंडीगढ में पीजीई बन रहा था. प्रशासन में एक उत्साह था कि देश निर्माण को एक सही और सुनियोजित दिशा दी जाए.
कम उम्र में सचिव बनने का अपना ही फायदा होता है. किसी को भी 6-7 साल का समय मिलता है, किसी विभाग या महकमे का संचालन करने का. साठ के दशक में हमने देखा है किस तरह से श्री एल.पी. सिंह ने लंबी समयावधि का फायदा उठाते हुए विभाग के लिए बेहतरीन काम किया. आज भी पूरा प्रशासन उनके किए कामों को याद करता है. वहीं आज कल कार्यकाल के अंतिम छणों में महज 2-3 साल के लिए लोग सचिव बनते हैं.
क्या आपको लगता है कि आज के दौर में ज्यादा चुनौतियां है और चुनौती कुछ ज्यादा और नया करने की है.
साठ के दशक में भी नक्सलवाद था, लेकिन उसकी शक्ल आज जैसी नहीं थी. आज नक्सलवाद भी आतंकवाद बन चुका है. यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में आज जैसे हालात नहीं थे. जम्मू-कश्मीर समस्या अस्सी के दशक की उपज है. आज ख़तरा काफी ज्यादा है. मुझे आज भी लगता है कि कश्मीर समस्या का हल प्रभावी प्रशासन के ज़रिए किया जा सकता है. शांति के समय में मैं गुलमर्ग और पहलगाम गया हूं. उस वक्त सुरक्षा की कोई ज़रूरत नहीं थी. माहौल में थोड़ा तनाव ज़रूर होता था लेकिन कोई भी असुरक्षित महसूस नहीं करता था. अमेरिका में हुए 9-11 हमलों के बाद से भारत में भी परिस्थिति बदली है. पहले अमेरिका के लिए आतंकवाद मुद्दा नहीं था लेकिन 9-11 हादसे के बाद उसका रुख़ बदल चुका है. पहले इसे आज़ादी की लड़ाई समझा जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है. आज यही वज़ह है कि लिट्टे का सफाया हुआ है. ज्यादातर देशों ने या तो लिट्टे पर प्रतिबंध लगा दिया था या फिर उसे किसी तरह की मदद देने से इंकार कर दिया था.
आपको नक्सलवाद से किस तरह के ख़तरे की आशंका है?
नक्सलवाद एक बड़ी समस्या है. समस्याएं बहुआयामी हैं. सबसे अहम बात यह है कि नक्सलवाद क़ानून-व्यवस्था की समस्या है. इसके साथ ही जनजातियों का मामला इससे जुड़ा है, ज़मीन पर अधिकार का मामला इससे जुड़ा है और इस तरह के कई मामले इस समस्या से सीधे तौर पर जुड़े हैं.
क्या आपको बुद्धदेव भट्टाचार्य और प्रकाश करात के विपरीत बयानों में किसी तरह के संवाद की आशंका दिखती है?
आप उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं और उनसे बात करनी भी ज़रूरी है. सभी को शांति और ख़ुशहाली की ज़िंदगी पसंद है. कोई नहीं चाहता कि उसे उसके अधिकारों से वंचित रखा जाए और तऱक्क़ीसे दूर किया जाए. जंगलों में बंदूकों के साथ जीना किसी को पसंद नहीं है.
आप अपने खाली व़क्त में क्या करते हैं?
मैं पढ़ना पसंद करता हूं. हर महीने खान मार्केट से एक किताब ज़रूर ख़रीदता हूं. मैं वैसे तो सबकुछ पढ़ता हूं, लेकिन जीवनी पढ़ने में मेरी कुछ विशेष रुचि है.
आपकी सबसे पसंदीदा किताब कौन सी है?
लियो टॉल्सटॉय की वॉर एंड पीस मेरी पसंदीदा किताब है, क्योंकि वह इंसानी रिश्तों के हर पहलू को टटोलती है. इसके अलावा मैं शेक्सपीयर भी पढ़ता हूं.
क्या आपने कुछ लिखने की भी कोशिश की है?
फिलहाल नहीं. रिटायरमेंट के बाद शायद लिखना शुरू करूं.
आप अपनी शैक्षणिक योग्यताके बारे में बताएं?
मैं विज्ञान का छात्र रहा, लेकिन आईएएस परीक्षा के लिए समाजशास्त्र को चुना. मुझे उन लोगों से ज्यादा अंक मिले जिन्होंने समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर किया था (ठहाका लगाते हैं). मुझे लगता है कि इस उपलब्धि के पीछे की वजह यह है कि वे लोग काट-छांट कर पढ़ते थे, जबकि मैंने ज्यादातर मूल लेखकों की किताबें पढ़ी.
अपनी पत्नी से आपकी मुलाकात कहां हुई?
आईएएस अकादमी में पहली मुलाकात हुई और वहीं हमने शादी भी कर ली.
आपकी पसंदीदा हिंदी फिल्म कौन सी है?
गाइड और मुगले-आज़म मेरी पसंदीदा फिल्म है.
क्या आपने फिल्म स्लमडॉग मिलिनियर देखी है़?
हां, देखी है लेकिन मुझे कुछ खास पसंद नहीं आई.
क्या आपको संगीत पसंद है?
जी हां, खासतौर पर 50 और 60 के दशक के हिंदी गाने. फिल्में देखने के लिए हम ज्यादातर प्रगति मैदान के शाकुंतलम थिएटर जाते हैं. वहीं हमने कई अच्छी हिंदी फिल्में देखी हैं.
आपकी पत्नी भी प्रशासनिक सेवा में हैं. क्या आप घर पर ऑफिस की बाते करते हैं?
हां, कभी-कभी करते हैं. मैं अपना काम घर ले जाता हूं लेकिन मेरी पत्नी अपना काम घर नहीं लाती है. वह घर आने के पहले आसानी से कामकाज को निजी ज़िंदगी से दूर कर लेती है.
ऐसा क्यों है कि प्रशासनिक अधिकारियों के बच्चे नौकरशाही में अपना भविष्य नहीं देखते?
दरअसल, वे काफी नज़दीक से इस जिंदगी को देखते हैं और उन्हें अहसास हो जाता है कि यह ज़िंदगी इतनी आसान नहीं है. हमारे बहुत कम बच्चे इस सेवा में जाने की चाह रखते हैं. हालांकि पांचवे और छठे वेतन आयोग के बाद हालात बदल रहे हैं.
क्या आप पेंटिंग में रुचि रखते हैं?
जी हां. गृह मंत्रालय के अपने नए ऑफिस में जाने के बाद मैं अपनी पत्नी की एक पेंटिंग लगाने की सोच रहा हूं.
नई पीढ़ी का रुझान नौकरशाही की तऱफ क्यों नहीं हो रहा है?
नई पीढ़ी को ज़िंदगी में जल्द नतीजों की चाह रहती है. उनमें इस नौकरी को पाने के लिए ज़रूरी सब्र नहीं है. इसलिए वे दूसरी नौकरियों में अपना भविष्य देख रहे हैं.
क्या आप भविष्य में वेतन आयोग में और भी सुधार की संभावना देख रहे हैं?
पांचवें और छठे वेतन आयोग ने हमारे लिए थोड़ा-बहुत फायदा किया है. हम आज एक बेहतर जिंदगी जी सकते हैं. 1982 तक, एक संयुक्त सचिव को महज़ 2000 रुपए की बेसिक सैलरी मिलती थी. उस समय तो डीए भी नहीं मिलता था, लेकिन पैसा कभी भी हमारी प्राथमिकता नहीं रहा. मैंने बीस साल की नौकरी करने के बाद 1992 में अपना मकान बनाया, मुझे याद है कि उस वक्त गुड़गांव के डीएलएफ में मकान की बुकिंग कराने के लिए दस हज़ार रुपयों की ज़रूरत थी और हमारे पास उतने पैसे नहीं थे. आज की पीढ़ी सबकुछ जल्दी करना चाहती है. उन्हें मकान, कार और सभी ज़रूरी सामान नौकरी के पहले दिन ही चाहिए.
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