मंत्रायल ने गेहूं की कीमतों पर नियंत्रण के लिए 100 लाख टन गेहूं खुले बाज़ार में बेचने का फैसला किया है. बीपीएल और राशन कार्ड धारकों के लिए अतिरिक्त 50 लाख टन चावल आवंटित किया गया है. आलू और प्याज को आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत बुनियादी उत्पाद में शामिल किया गया है. इसके साथ-साथ एपीएमसी एक्ट में संसोधन, जमा खोरों के खिलाफ कार्रवाई के साथ-साथ राज्यों को अपनी कीमत निगरानी इकाई स्थापित करने की सलाह दी गई है.
नरेंद्र मोदी सरकार के एक साल पूरे हो गए. यहां हम मोदी सरकार के कृषि मंत्रालय और उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के एक साल के कार्यों पर नज़र डालेंगे. हालांकि एक साल का समय किसी नई सरकार के लिए कुछ बड़ा कारनामा कर दिखाने के लिए काफी नहीं होता है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपना कार्यभार संभालते ही अपने मंत्री परिषद की बैठक में अपनी सरकार का 10 सूत्री विज़न पेश किया था, इस क्रम में उन्होंने अपने मंत्रियों को उनके मंत्रालय के कार्यों से सम्बन्धित 100 दिनों का एजेन्डा तय करने, कार्यों की प्राथमिकता तय करने और लंबित मामलों को जल्द से जल्द निपटाने का निर्देश दिया था. आम तौर पर किसी नई सरकार से जनता को बहुत अपेक्षाएं होती हैं, लेकिन मौजूदा सरकार से ये अपेक्षाएं कुछ ज़्यादा ही हैं. इसकी वजह चुनाव प्राचार के दौरान गुजरात मॉडल के सफलता का प्रचार और खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से जुड़े देश के युवाओं (जिन्होंने 2014 के आम चुनाव मे सिर्फ और सिर्फ विकास के नाम पर वोट दिया था) की आशाएं हैं. साथ ही 1984 के बाद पहली बार किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ है. इसलिए इस बार मोदी सरकार पर गठबंधन धर्म के पालन का भी दबाव नहीं है. उन्हें अपनी सरकार की नीतियों को लागू करने की पूरी आज़ादी है. लिहाज़ा, यही वजह है कि उनके कार्यकाल के हर लैंडमार्क पर उनकी सरकार के कामों की जांच-परख होगी.
जहां तक कृषि का सवाल है तो देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का छठवां हिस्सा कृषि से आता है. कृषि से सम्बंधित एक वास्तविकता यह भी है कि पिछले आठ-दस वर्षों के दौरान पूरी दुनिया में खाद्यान के मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि हुई है. भारत भी इसके असर से बच नहीं पाया. तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद खाद्यान की कीमतों में वृद्धि का सिलसिला जारी है. चूंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, इसलिए यहां कृषि की अहमियत और भी बढ़ जाती है. यह अनुमान लगाया जा रहा है कि अगले दस-बीस वर्षों में भारत की जनसंख्या 150 करोड़ के पार हो जाएगी. इसलिए इतनी बड़ी आबादी तक अगर खुराक पहुंचाना है तो भारत को कृषि पर विशेष ध्यान देना होगा. खास तौर पर उस वक़्त जब संयुक्त राष्ट्र संघ की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सबसे अधिक भूखे लोगों की संख्या के मामले में भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है. बहरहाल, अगर किसानों की समस्याओं को देखा जाए तो वे आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई हैं. हालांकि, पिछले कुछ दशकों से भारत में खाद्यान की पैदावार दोगुनी हो गई है, लेकिन इसके बावजूद किसानों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ. किसानों द्वारा आत्महत्या, मौसम की मार के चलते फसल की बर्बादी, लगातार खेती की वजह से ज़मीन की उर्वरा शक्ति में कमी, कृषि ऋण के लिए किसानों का क्षेत्रीय साहूकारों पर आश्रित रहना, सिंचाई के लिए वर्षा पर अधिक निर्भरता, खेती में आधुनिक तकनीक का न्यूनतम इस्तेमाल और अनाज भंडारण की सुविधा का अभाव आदि ऐसी समस्याएं हैं, जिनसे किसान आज भी जूझ रहा है.
केंद्रीय कृषि मंत्री राधे मोहन सिंह ने अपने मंत्रालय के कार्य का लेखा-जोखा देते हुए एक अख़बार को बताया कि उनकी सरकार कृषि और उससे सम्बंधित क्षेत्र में संरचनात्मक बदलाव लाने के लिए वचनबद्घ है. उन्होंने कहा कि उनके मंत्रालय ने कुछ ऐसे कदम उठाये हैं, जो क्रियान्वयन के विभिन्न चरणों में हैं. उन्होंने यह भी कहा कि उनकी सरकार दशकों से उपेक्षा का शिकार इस क्षेत्र पर विशेष ध्यान दे रही है. इस सिलसिले में सिंचाई तंत्र को मज़बूत बनाने, मिट्टी स्वास्थ्य कार्ड (स्वायल हेल्थ कार्ड) बनाए, ताकि खेत की क्षमता के अनुसार फसल उगाई जा सके. आमदनी से जुड़े बिमा योजनाएं और एक बाधारहित राष्ट्रीय कृषि बाज़ार की स्थापना, इत्यादि शामिल हैं. ज़ाहिर है, इन योजनाओं का प्रतिफल एक-दो साल के अन्दर नहीं आएगा. दूसरे यह कि इनकी सफलता का दारोमदार बहुत हद तक भी मौसम पर आधारित है.
कृषि क्षेत्र के लिए अगर पिछले बजट की बात की जाये तो इस में भी मिट्टी की उर्वरता को बचाए रखने के लिए जैविक खेती पर विशेष ध्यान दिया गया था, जिसके लिए पूर्वोतर के राज्यों को 125 करोड़ रुपये आवंटित करने की घोषणा की गई थी. अब उस पर कार्यान्वयन हो रहा है. उसी तरह चूंकि सिंचाई के लिए भारतीय किसान आज भी बारिश के ऊपर अधिक निर्भर हैं, इसलिए मौसम में बदलाव के चलते कम बारिश की वजह से खेती भी प्रभावित होती है. इसी के मद्देनज़र प्रति बूंद अधिक पैदावार के नारे के साथ प्रधानमंत्री ग्राम सिंचाई योजना के तहत सूक्ष्म सिंचाई और वाटरशेड विकास के लिए बजट में 5,300 करोड़ रुपये के आवंटन का प्रस्ताव रखा गया था.
पिछले साल मॉनसून की औसत से कम बारिश का पूर्वानुमान लगाया गया था. हालांकि मानसून देर से आया था, लेकिन बाद में हालात सुधर गए थे. इस पूर्वानुमान को देखते हुए सरकार ने आपदा योजना बनाई थी, जिसमें कम वर्षा वाले जिलों में किसानों को डीज़ल सब्सिडी, कम ब्याज दर पर कृषि ऋण, और खाद्यान्न की कमी होने पर इसकी आपूर्ति का प्रावधान था. इस साल भी मौसम विभाग ने कम बारिश की संभावना जताई है. ज़ाहिर है, ऊपर दर्ज सभी योजनाओं को कार्यान्वित करने में अभी समय लगेगा. इसलिए कृषि की सफलता और असफलता का सारा दारोमदार अब भी बारिश पर निर्भर है. खास तौर पर मानसून पर निर्भर है. बहरहाल, बारिश की कमी से निपटने के लिए सरकार ने योजना तो बना ली, लेकिन बेमौसम बारिश से कैसे निपटा जाए, इसके लिए सरकार के पास ़िफलहाल कोई स्पष्ट नीति नहीं है. इसकी मिसाल इस साल रबी फसल के दौरान बारिश की वजह से हुई बर्बादी में देखा जा सकता है. खास तौर पर मुआवजा वितरण में किस तरह का घालमेल हुआ, यह सब के सामने है.
बहरहाल, एक दूसरी अहम बात है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी भाषण में भी उठाया था. उसमें उन्होंने न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात की थी. उन्होंने कहा था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो समर्थन मूल्य तय करने का एक नया फॉर्मूला लाएगी. दरअसल, यह फॉर्मूला स्वामीनाथन समिति की शिफारिशों पर आधारित था. इस रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई थी कि समर्थन मूल्य तय करते समय किसान की फसल पर उसकी लागत के बाद पचास प्रतिशत मुनाफा दिया जाए, लेकिन इस बार सरकार ने जो समर्थन मूल्य तय किया है, उस में केवल 10 प्रतिशत का मुनाफा दिया गया है. इससे तो यही साबित होता है कि कृषि देश में सबसे अधिक जोखिम भरा व्यवसाय होने के साथ-साथ सबसे कम लाभ का व्यवसाय है. दूसरी तरफ किसानों की आत्म हत्याएं बदस्तूर जारी हैं. ऊपर से भूमि अधिग्रहण बिल पर बने गतिरोध से यह सन्देश जा रहा है कि सरकार किसान विरोधी है. बहरहाल, इजराइल से कृषि में सहयोग के लिए तीसरे दौर के समझौते के बावजूद भारतीय कृषि अब भी मौसमपर आश्रित है. कहने का अर्थ यह कि किसानों को अच्छे दिन के लिए अभी इंतज़ार करना पड़ेगा.
अब उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के एक साल के कार्य पर नज़र डालते हैं. प्रधानमंत्री के आदेश पर इस विभाग के मंत्री रामविलास पासवान ने भी अपने 100 दिनों के कार्य का एजेंडा तैयार किया था, जिसमें अनाज भंडारण की सुविधाओं में विस्तार को प्राथमिकता दी गई थी. अपने चुनाव प्रचार में नरेन्द्र मोदी ने इस मुद्दे को बड़े जोर-शोर से उठाया था. खास तौर पर सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का भी हवाला दिया था, जिसमें कहा गया था कि सड़ रहे अनाज को वितरित कर दिया जाए, लेकिन यूपीए सरकार ने इस पर अमल नहीं किया था. भारत में खाद्यान्न का भंडारण एक बहुत बड़ी समस्या है. हर साल, खास कर बरसात के मौसम में स्टोरेज सुविधाओं के अभाव के कारण बड़े पैमाने पर अनाज सड़ जाते हैं. यह समस्या कई सालों से जस की तस बनी हुई है. 2014 में फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एफसीआई) ने यह अनुमान लगाया था कि जून के महीने में जब मानसून अपने शबाब पर होगा तो 231.82 लाख टन गेहूं तीन राज्यों में खुले आसमान के नीचे पड़ा हुआ होगा. इसीलिए एफसीआई ने राज्यों को ग़रीबों में अनाज वितरण की आवंटन सीमा बढ़ा कर 750 लाख टन करने की सिफारिश की थी. उपभोक्ता मामले विभाग, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के भंडारण की सुविधा बढ़ाने को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. इस सम्बन्ध में एफसीआई निजी क्षेत्र के सहयोग से अपने भंडारण के सुविधा को विस्तार देने का प्रस्ताव रखा है. ज़ाहिर है, इस प्रस्ताव के कार्यान्वयन पर समय लगेगा. एक बार फिर मानसून सिर पर है, अब देखना यह है कि अनाज को सड़ने से बचाने के लिए सरकार कौन सा उपाय करती है?
इस विभाग के मंत्री रामविलास पासवान ने यह घोषणा की कि संसद के मानसून सत्र में भारतीय मानक ब्यूरो (बीएसआई) अधिनियम 1986 में संसोधन प्रस्ताव लाया जाएगा, जिसके तहत मौजूदा 102 वस्तुओं के बजाए 2300 वस्तुओं के लिए बीएसआई मानक अनिवार्य होगा. मंत्रालय द्वारा उपभोक्ता संरक्षण कानून में सशोधन कर एक उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण बनाने का प्रस्ताव रखा गया है. भ्रमित करने वाले विज्ञापनों और दूसरे उपभोक्ता मामलों की शिकायत के लिए ऑनलाइन पोर्टल बनाया गया है. साथ ही एक एकीकृत राष्ट्रीय हेल्पलाइन भी गठित की गई है. आवश्यक वस्तुओं की कीमतों पर निगरानी रखने के लिए प्राइस मॉनिटरिंग सेल स्थापित की गई है.
मंत्रायल ने गेहूं की कीमतों पर नियंत्रण के लिए 100 लाख टन गेहूं खुले बाज़ार में बेचने का फैसला किया है. बीपीएल और राशन कार्ड धारकों के लिए अतिरिक्त 50 लाख टन चावल आवंटित किया गया है. आलू और प्याज को आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत बुनियादी उत्पाद में शामिल किया गया है. इसके साथ-साथ एपीएमसी एक्ट में संसोधन, जमा खोरों के खिलाफ कार्रवाई के साथ-साथ राज्यों को अपनी कीमत निगरानी इकाई स्थापित करने की सलाह दी गई है. साझा अंतरराज्यीय बाज़ार की स्थापना. गन्ना किसानों की लंबित भुगतान की समस्या से निपटने और चीनी उद्योग को गतिशील बनाने के लिए क़दम उठाये गये हैं. एफसीआइ के कार्यों के निपटारे के लिए एक उच्च स्तरीय समिति गठित की जा रही है. इसके अतरिक्त 16 और राज्यों को खाद्य सुरक्षा अधिनियम में शामिल कर लिया गया है. इससे पहले केवल 11 राज्य इसमें शामिल थे. इस मंत्रालय द्वार उठाये गए अधिकतर नये क़दमों का लाभ तुरंत नहीं ज़ाहिर होगा. इनमें बहुत से फैसले ऐसे हैं, जिन पर अमल होना बाकी है. इसलिए इस मंत्रालय के कार्य को असल पड़ताल के लिए कुछ समय और दिया जाना चाहिए.
मंत्रालय के कार्यों में चीनी उद्योग पर विशेष जोर दिया गया है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में चीनी उद्योग को बहुत नुकसान हुआ है, जिसकी मार गन्ना किसानों पर भी पड़ा है. साथ ही देश में फैले सहकारी क्षेत्र की गन्ना मिलें तो बंद होने के कगार पर आ पहुंची हैं. इस सम्बन्ध में चौथी दुनिया ने मराठवाड़ा की सहकारी क्षेत्र की चीनी मीलों को बंद किये जाने की साजिश पर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की है.
कुल मिलाकर देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि कृषि मंत्रालय और उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय को अभी काफी दूरी तय करनी है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस अच्छे दिनों का सपना लोगों को दिखाया था, उसको पूरा होते देखने के लिए लोगों को अभी इंतज़ार करना पड़ेगा.