यह मेरे पिताजी के स्कूल लिविंग सर्टिफिकेट की कापी है. मै कुछ और कागज ढूंढ रहा था, तो उसमें पिताजी के स्कूल लिविंग सर्टिफिकेट की कापी मिली. और तब पता चला कि यह तो उनके उम्र के सौ साल पूरे होने का समय है. हालांकि उन्हे इस दुनिया से विदा होकर बीस साल हो रहे हैं.
मतलब उनकी शताब्दी को शुरू होकर आज चार साल हो रहे है. अमूमन शताब्दी मनाने के लिए कोई महान व्यक्ति होना चाहिए ऐसी मान्यता है. और मेरे जीवन के शुरूआती दिनों में मेरे लिए वही महान व्यक्ति थे. क्योंकि पैदा होने के बाद मुझे तो मेरे संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों को कमअधिक प्रमाण में मेरे बचपन के दिनों में योगदान रहा है . लेकिन पिताजी का इसलिए ज्यादा है, की मैंने जब से आंख खोली वह मोटी खद्दर के कपड़ों में ही नजर आए. यहां तक कि उनके कोट हाथरुमाल तथा अंतरव्स्र भी खद्दर के ही देखा हूँ. और चाय, पान, सुपारी,खैनी तंबाकू तथा बीड़ी सिगरेट और शराब से कोसों दूर थे . दो समय का खाना छोडकर उन्हें और कोई चिज को खाते पिते नहीं देखा था. और आज भी मै 72 वर्ष का हो चुका हूँ, लेकिन मुझे भी इन सभी व्यसनों की एलर्जी जैसे ही हैं . इसलिए वह बचपन से ही मेरे आदर्श रहे हैं .
हमारा पुश्तैनी गांव, मालपुर-कासारे नाम का जिला धुलिया. महाराष्ट्र के उत्तरपस्चिमी दिशा का जिले का आखिरी हिस्सा, जिसके पस्चिमी दिशामे गुजरात का डांग जिला है. और उत्तर की तरफ (अब धुलिया जिले को विभाजित करने के बाद नंदुरबार जिल्हा बनाया गया है. ) जो मध्य प्रदेश के निमाड क्षेत्र के, बिचमे सातपूडा यह सीमा है और नर्मदा-तापी नदीया भी.
हमारे भी गाँव में भिल्ल आदिवासी और महार,चमार तथा दो-चार परिवार मुस्लिम समुदाय के, जो कोई खाटिक याने बकरा काटकर उसका मांस बेचने वाला. तथा एकाध रजई, गद्दा बना कर पिंजारी, अपनी उपजिविका चलाते थे. और अन्य पिछड़े वर्ग के लोग है. जिनमें लुहार, सुनहार, शिंपी याने कपडे सिलनेवाला. नाई बाल काटने वाले लोग, तथा लकड़ी के औजार बनाने वाले को सुतार बोला जाता है, और हल दराती तथा अन्य लोहे सामान की मरम्मत और कभी – कभी बनाना लुहार जाती के लोग और भढभुंजा चना, मुरमुरा, लाही बनाकर बेचने वाले भोई समाज का एकाध घर.
और मैंने अपने खुद के आंखों से बारह – बलुतेदार प्रथा को, चलते हुए देखा है. 1960 – 70 तक, जिसमें सिलाई वाले शिंपी से लेकर चमार, कुम्हार, लुहार तथा नाई सुतार और ब्राह्मण को भी देखा है. जो फसल तैयार होने के बाद हमारे खलिहान में उसमें से अपना हिस्सा लेने के लिए उस फसल के चारों ओर बैठकर, अपने लाए हुए कपड़े या बर्तन में अपने हिस्से का अनाज ले जाते थे. और साल भर उनसे हमारे घर के सभी बच्चों से लेकर बड़े तक के कपड़े सिलना, दाढी कटिंग नाई, शिंपी से कर लेते थे.
और नाई से बालों को काटने से लेकर डाढी – मुछे तराशने के काम होता था. वैसे ही लुहारों से खेती करने के औजारों की मरम्मत, और सुतार से लकड़ी के बैलगाड़ियों से लेकर हल इत्यादि बनाने का काम होता था. और चमार से चप्पल – जुतो का काम, और कुम्हार से मट्टी के बर्तन का. मतलब गांव के एक किसान परिवार को लगने वाले, हर जरूरी काम करने की व्यवस्था को, बलुतेदारी व्यवस्था बोला जाता था. अब शायद यह व्यवस्था रही नहीं.
लेकिन गांव में ज्यादा संख्या मराठाओकी है. पिताजी किसान संयुक्त परिवारमे पैदा हुए थे. शायद उस समय गाँव के सबसे ज्यादा पशुधन गाय बैल हमारे ही थे. जिनका सबसे प्रमुख उद्देश्य हमारे खेतों के लिए खाद और खेती करने के लिए बैल, दुध दोयम दर्जे की बात थी. क्योंकि मुझे जहाँ तक याद आ रहा, तब एक समय 10-12 गाये जनती थी. और उसमें से आधे से ज्यादा गाय अपने स्तनों को हाथ भी लगाने नहीं देती थी. दुध दोहना तो दूर की बात थी. और अन्य गायों के बछडे एक तरफ दुध पीते थे. और दूसरे तरफसे दुध दोहना होता था. तो बारह महीने हमारे घर में दुध,दही,मख्खन हमारी आवश्यकता से भी अधिक होता था. लेकिन तबतक बाजार नामके बिमारी से हमारा घर कोसो दूर था. मुझे याद है कि कभी भी दुध,दही या घी को बेचने की बात मैंने नहीं देखा है. यहां तक कि हमारे खेती के बाडमे आम के पेड़ों के आमो को भी कभी बेचा नहीं, मिलबाटकर खाये जाते थे. और इख की खेती के कारण रस और गुड बनाने के समय, जो भी कोई आता था वह तबीयत से गन्ने का रस और ताजा गुड खा – पीकर ही जाता था.
हमारे घर में जिस दिन छांछ बनाने का काम होता था, तो छांछ लेनेके लिए गांव की महिलाओं को बाकायदा कतार में खडे – खड़े, विनामुल्य छांछ बाटा जाता था. और कभी किसी के घर में दुध की आवश्यकता होती थी, तो वह भी दुध विना मुल्य ले जाते थे. और कभी-कभी दवा के तौर पर गाय के दूध का , घी भी.
इसी तरह साल भर के लिए आचार, पापड,बडी,सेवइयों के बनाने के लिए, लगभग पूरे मोहल्ले की औरतें आकर, विनामुल्य एक दूसरे के हाथ बाटकर यह सब काम, अहिराणी भाषा में गाने गाकर एक सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तरह निपटाने के लिए एक दूसरे की मदद करने चले आते थे. और हम बच्चों का मनोरंजन हो जाता था.
हमारे क्षेत्र में अहिल्याबाई होलकर के समय से, पाटस्थळ (कैनाल द्वारा सिंचाई) की व्यवस्था थी. और वह पूरे गाँव द्वारा मिलजुलकर सम्हाली जाती थी. जिसमें बिच-बिचमे गाद निकालने से लेकर, पानी की बटवारे का व्यवस्थापन सुचारू रूप से चलाने के व्यवस्था थी. लेकिन इतने सालों में खेती में बेतहाशा पानी के इस्तेमाल करने के कारण हमारी जमीन मर गई है. और सचमुच ही यह बात है, कि अब उस सफेदी वाले जमीन पर घास भी नहीं उगता है. भाक्रा-नानगल के जमीन जैसे ही. और इस बात का सज्ञान सभी बेतहाशा पानी का इस्तेमाल करते हुए खेती करने वाले लोगों के लिए एक नसिहत है .
सरकारी स्कूल शुरू नहीं हुए थे, साठ के दशक में, तो हमारे गाँव में मंदिर मे की मुर्तियोको हटाकर, उन जगहों पर स्कूल चलते हुए, मैंने खुद उस मे पढ़ाई करते हुए अपने अनुभव से देखा है. और मेरे ही सामने, जिला परिषद की व्यवस्था शुरू हुई. शायद 1960 तो उसके तरफसे बिल्डिंग का निर्माण स्कूलों के लिए भी देखा है.
काफी लोगों को मूर्तिया हटानेका मामले को लेकर आश्चर्य हुआ होगा. तो उन्हें बता दूँ कि हमारे गाँव पर महात्मा ज्योतिबा फुले जी के सत्यशोधक समाज का प्रभाव होनेके कारण हमारे गाँव में मंदिर और ब्राह्मणों द्वारा किया जाने वाला कर्मकांड नहीं के बराबर था. और तीन या चार ब्राह्मणों के घर थे. तो वह भी खेती करने के काम में थे. कुछ शिक्षक या पटवारी के नौकरी में भी थे.
मैंने पैदा हुआ तबसे (25 दिसंबर 1953 ) मेरे गाँव में एक भी धार्मिक अनुष्ठान या पुजा-पाठ देखा नहीं है. हाँ नदी के दुसरी तरफ के कासारे नाम के गाव में, बिचमे एक नदी है नाम पांझरा के परली तरफ के गाँव में मंदिर और ब्राह्मणों द्वारा किया जाने वाला कर्मकांड जारी था. लेकिन हमारे गाँव की शादीया तक ज्योतिबा फुले द्वारा रचित मंगलाष्टक गाकर और वह भी गैर ब्राह्मणों द्वारा शादिया संपन्न होती थी.
गाँव के पढे लिखे लोगों मे, पिताजीका शुमार था. उस समय के लिए वह सातवीं फाइनल पास. याने आराम से शिक्षक की नौकरी कर सकते थे. लेकिन हमारे खेती-बाडी और गोपालन के कारण, वह खेती करने के काम में लगे रहे. वह चार भाई और दो बहनों के परिवार मे, बडी बहन के बाद लडकोमे सबसे बडे होने के कारण भी उनको घर की जिम्मेदारी का वहन करना पडा है. मैंने आँखे खोली तबसे देखा उनके शरीर पर खादी छोडकर कोई दूसरा वस्त्र नहीं था.
और हमारा गाँव, सत्यशोधक समाज के प्रभाव का होने के कारण, कांग्रेस विरोधी, यानी हमारे अहिराणी भाषा में गाँव पार्टी और राव पार्टी तो गाँव पार्टी कांग्रेस और राव यानी जिन्हें अंग्रेजों द्वारा राव,सर के खिताबों से नवाजा जाता था. इसलिये उन्हें राव पार्टी कहाँ जाता था.
तो पिताजी गाँव पार्टी के, मतलब कांग्रेस के कमिटेड सदस्य थे. और संपूर्ण गाँव में एक मात्र वही थे. जो चुनाव में कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार और बुथ एजंट की भूमिका में मरते दम तक बहुत ही लगन से कांग्रेस मे बने रहे.
और एक जूनून था कि आदिवासी की जमीन, गैरआदिवासियोने दखल करने के मामले में वह अपनी जेब से पैसे खर्च कर के, कोर्ट में केसेस लढते रहे. शायद महिने के आधे दिन उनका समय उसी काममे जाता था. और घरवालों को उनके इस काम में बिल्कुल भी रुचि नहीं थी. लेकिन वह घर के सब से बड़ा बेटा होने के कारण, कोई जोर से बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे. हल्के – फुल्के स्वरों में पिठ पिछे बोलते थे. “कि घर की भाकर खाकर आदिवासीयो की भलाई में लगे रहते हैं. ” यह हमारे देश की आज़ादी के तुरंत बाद ही की परिस्थितियों का वर्णन कर रहा हूँ. और शायद यही सब कुछ देखने के बाद साने गुरुजी ने आत्महत्या करने का निर्णय लिया होगा .
शायद 62-63 के चुनाव में, मै भी उनके साथ प्रचार के लिए गया था. तो पडोसी गाँव में एक चुनाव सभा पर पथराव हुआ था. तो मेरे बाहे तरफ की आंखके भौवो के कोने में पत्थर लगकर, मै खून से लथपथ हो गया था. मेरी आँख कुछ सेंटीमीटर से बची. अन्यथा जिंदगी भर, मोशेदायान जैसे मेरे भी एक आंख को ढकने की नौबत आई होती.
जहाँ तक याद आ रहा है, कि यह विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जगह कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार जितकर जाते रहे. साक्री विधानसभा नाम है. लेकिन लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार जितकर जाते रहे.
लेकिन आज लगभग परिवार वही है, जिनके पूर्वज सत्यशोधक और बाद में कम्युनिस्ट और कांग्रेस के थे. उसी घर के आज के प्रतिनिधि भाजपा की तरफ से विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बैठे है. और उनमें से एक लोकसभा सदस्य मेरे रिस्तेदार और बचपन के मित्र डॉ. सुभाष भामरे है. और उसके पिताजी शुरूआत मे कम्युनिस्ट पार्टी के, बाद में कांग्रेस और फिर अंत में कमुनिस्ट कॉम्रेड गोविन्द पानसरे के उपस्थिति में घर वापसी की थी.
और जब बेटा 2014 के चुनाव के बाद, संसद में चुनकर गया तो बहुत अभिमान से कह रहे थे, “कि चलो आखिर में हमारे परिवार से कोई तो संसद में गया. ” हालांकि सत्तर के दशक में डाॅ. सुभाष की माँ गोजरबाई भामरे विधानसभा में कांग्रेस की तरफ से विधायक रही है. और मैके से वह खैरनार परिवार की ही थी.
1936 साल के फैजपूर कांग्रेस के अधिवेशन जोकि कांग्रेस के इतिहास में पहली बार गाँव में हुआ अधिवेशन था. उस अधिवेशन में पिताजी पंद्रह साल के उम्र में सानेगुरुजी के सेवा पथक बादमे राष्ट्र सेवा दल के रूप में 1941 में शुरू हुआ एक स्वयंसेवक के रूप में भाग लिये थे.
और 1942 मे, भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान चिमठाना खजाने की घटना में शामिल लोगों में, एक सदस्य थे. जिसके नेतृत्वकारी भूमिका में उत्तमराव पाटील और कमलताई पाटील तथा उनके छोटे भाई शिवाजीराव पाटील प्रसिध्द फिल्म अभिनेत्री स्मिता पाटील के पिताजी तथा चाचा- चाची के साथ एक सिपाही रहे हैं.
दो समय का खाना छोड़कर, उनके और कोई शौक नहीं थे. शायद उन्हें बचपन से ही उन्हें इस तरह देखते हुए, मैंने भी खद्दर से लेकर किसी भी तरह के व्यसन मे न फसने की वजह मेरे जीवन के शुरू आती दिनो के वही हीरो रहे साने गुरूजी,गाँधी,विनोबाजी,एस एम जोशी, जेपी,लोहिया तथा डॉ. बाबा साहब अंबेडकरजी सब राष्ट्र सेवा दल मे 1965 – 66 के दौरान आने के बाद.
सातवीं कक्षा के बाद मुझे गाँव में अगले पढाई के लिए स्कूल नहीं होने के कारण छोटी बुआजी जो, हमारे ही तालुका के बगल वाले शिंदखेडा तालुका के गाँव मे 1965 -66 के समय मे जाना पडा. जाने के बाद सबसे पहले, मेरे स्कूल के भूगोल विषय के श्री. बी बी पाटील नामके शिक्षक की वजह से संघ की शाखा में जाने लगा लेकिन कुछ ही समय में मेरे मुसलमान मित्रों को भी शाखामे शामिल करने के, मेरे आग्रह के कारण मुझे संघ से निकाल दिया गया.
तो उसी गाँव में एक और शाखा चल रही थी जो की राष्ट्र सेवा दल की थी. जिसमें हिंदू,मुस्लिम,दलित हो या आदिवासी और लडकियों को भी प्रवेश था . तो मुझे जल्द ही सेवा दल की शाखा में प्रवेश मिल गया. और थोडे ही समय में शाखा नायक. और उसी साल राष्ट्र सेवा दल के, मध्यवर्ती के पुणे स्थित मुख्यालय के प्रांगण में एक सप्ताह से भी ज्यादा समय के दस्तानायक-शाखानायक शिबिर ने मेरे जीवन की आगे की दिशा निश्चित होने मे मदद हुई है.
उसी शिबीरसे सीधा मध्यप्रदेश के हरदा,पिपरिया,भोपाल और रीवा में राष्ट्र सेवा दल के शिबिर प्रशिक्षक की हैसियत से, शायद पंद्रह साल के उम्रमें. फिर क्या ? अमरावती के होमियोपैथिक मेडिकल कॉलेजकी शिक्षा समाप्त होने के बाद 1973 से राष्ट्र सेवा दल के पूर्ण समय कार्यकर्ता उम्र का बीस साल का था मै. और वह निर्णय पिताजी को बहुत नागवर लगा. उसपर उनके साथ काफी बहस होनी शुरू हो गयी थी. आखिरी बात मैंने कहा कि “आपने मेरे पढाई के लिए काफी पैसा खर्च किया है. तो मै अपने पुस्तैनी संपत्ति का अपना हिस्सा कभी भी नहीं मांगूंगा ” ऐसा पिताजी को कहा. और मै उस बात पर आज भी अटल हूँ.
फिर आपातकाल में जेल 1976 के अक्तूबर माह में, अंडरग्राउंड था. लेकिन किसी के कारण पुलिस को खबर होने से पकड़ा गया. तो बडोदा डायनामाईट के केस में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था. लेकिन कोर्ट में सुनवाई होने के कारण, और मेरे वकिलसाहेब बहुत ही काबील होने के कारण, उन्होंने बहुत ही मेहनत से मेरे उपर लगे आरोपों को खारिज करवाने में अपनी भूमिका बखुबी निभाने के कारण मुझे कुछ दिनों बाद रिहा करना पडा. और मै फिरसे अंडरग्राउंड, आपातकाल खत्म होने की विधिवत घोषणा होने तक.
और पिताजी कांग्रेस के और मै राष्ट्र सेवा दल के कारण, मै कांग्रेस विरोधी तो पिताजी के साथ, इस बात पर काफी बहस होनी शुरू हो गई थी. जिसे लगभग पूरे मोहल्ले या गाँव के लोग सुनते थे. शायद मेरी याददाश्त ठीक है तो मेरे गाँव में एक मै ही था. जो अखबार,पत्रिका तथा कुछ किताबें पढने वाला होने के कारण, पिताजी के साथ बहस मे मेरा ही पलडा भारी होता था. फिर पिताजी के पास आखिरी तिर होता था, तुम्हारे राष्ट्र सेवा दल के सभी नेता ब्राह्मण ही है. तो मै जवाब देता था “कि वह खुद गैर ब्राह्मणों को शामिल करने के लिए पूरी कोशिश कर रहे हैं. और मेरे जैसे को जिस तरह से सभी नेता आप जैसा ही, पिता जी के जैसे मेरे साथ स्नेह करते हैं और आपकी नेता इंदिरा गाँधी भी तो ब्राम्हण है.
फिर जेपी आंदोलन के समय भी वह जेपी सरकारी कर्मचारीयोको भड़काने का आरोप करते थे. तो मैंने “कहा गलत आदेश या अपने संविधान के खिलाफ या गैर कानूनी आदेश मत मानो कहते हैं.” लेकिन मुझे आज पीछे मुड़कर देखने से लगता है कि भले मेरे और पिताजी के राजनीतिक मतभेद थे, लेकिन कभीभी उन्होंने मुझे डांट डपट या अपने पिताजी होने के बावजूद, अपने आप को जब्त करके मेरे साथ एक मित्र जैसे ही व्यवहार किया है. वह भी आजसे साठ – सत्तर साल पहले.
आज उनके जाने को बीस साल बाद लगता है “कि वह सही मायनों में डेमोक्रेटिक टेंपरामेंट के थे. लेकिन अब हमारे गाँव में, मंदिर और ब्राह्मणों द्वारा किया जाने वाला कर्मकांड बदस्तूर जारी है. और सबसे बड़ी हैरानी की बात वह मतदाता संघ उनके जाने के बाद लगातार जनसंघ और उसके नये एडिशन बीजेपी के ही लोग चुनाव जीत रहे हैं . हालाँकि यह वही परिवार के लोग है. जो पहले कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार बनकर जितकर जाते रहे. फिर कांग्रेस पार्टी के, और अब बीजेपी के. और हमारे रिश्तेदार है. मै जो बार – बार बोलता – लिखता रहता हूँ कि हमारे घर भी हिंदू-मुस्लिम के खेल में शामिल हो गए हैं.
भारत की बीजेपी लगभग पुरानी कांग्रेस के और वर्तमान समय में बंगाल ,आसामका चित्र से साफ दिखाई देता है कि तृणमूल कांग्रेस के, और कम्युनिस्ट पार्टी के लोग बिजेपिमे कितनी आसानी से कपड़ों को बदलने जैसे पार्टी बदलते रहते हैं. शायद आज की बीजेपी, आधी से अधिक संख्या में कांग्रेस के लोगों के शामिल होने से लगभग कांग्रेसमय हो चुकी है.
जो की पिताजी ने, शायद ग्राम पंचायत का भी चुनाव नहीं लडा था. और पार्टी से पैसे मिलते हैं. यह बात भी शायद तब नहीं थी. या होगी भी तो, उन्होंने कभी नहीं लिया, यहा तक कि स्वतंत्रता सेनानी की सहुलियत भी नहीं लिया है. और शायद मेरे जेहन में उनके ही असर के कारण मैंने भी आपातकाल के बाद जेल में गये हुए लोगों को दी जाने वाली पेंशन की मैने 1977 से ही मुखालिफत की है. मेरे पिताजी भी कोई बहुत बडे नेता नहीं थे. लेकिन कांग्रेस जैसे सत्ताधारी पार्टी के कमिटमेंट वाले लोगों में से एक थे. और मै भी कोई बडी हस्तियों मे शुमार नहीं हूँ. लेकिन एक सुकून मिलता है “कि जैसे उन्होंने अपने जीवन में कभी कोई समझौता नहीं किया वैसे ही मैंने भी अभितक नहीं किया.
1977 के समय जनता पार्टी बनने के बाद मुझे महाराष्ट्र के जनता पार्टी के महासचिव से लेकर अमरावती लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी के उम्मीदवार बनने के लिए, पार्टी के महाराष्ट्र के अध्यक्ष श्री. एस. एम. जोशी जी की तरफ से, कितना आग्रह हुआ था. लेकिन मैंने कहा कि “नहीं अण्णा मुझे जयप्रकाश नारायण के धुनि युवकों की जमात में शामिल होना है. और वर्तमान संसदीय राजनीति के बारे में मेरे कुछ मतभेद है. इसलिए मैं चुनाव में शामिल होने से लेकर, पार्टी के महासचिव बनने की आपकी इच्छा को पूरा करने के लिए तैयार नहीं हूँ.”
और उसके बाद हमारे अमरावती के अन्य साथियों की मदद से महाराष्ट्र में जयप्रकाश नारायण के धुनी युवाओं का पहला शिबीर 1977 के मई माह में एक सप्ताह का आयोजन किया. और उसके बाद महाराष्ट्र छात्र युवा संघर्ष वाहीनी की स्थापना करने के बाद उसके लिए संपूर्ण महाराष्ट्र में फैलाने के काम में जुट गए.
फिर 1979 में शादी हुई. तो हाऊस हजबंड के भुमिका में दस साल. (1979 – 89 ) कलकत्तावासी रहते हुए गुजर गए थे. और उसके दस साल बाद 1989 के अक्तूबर में भागलपुर दंगे की भयावह शुरुआत देखने के बाद मुझे लगा कि ” भारत के आनेवाले, पचास वर्षों तक सांप्रदायिकता के इर्द-गिर्द ही संपूर्ण राजनीति घुमने वाली है. और रोजगार, महंगाई, भ्रष्टाचार, विस्थापन से लेकर, दलित तथा आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों के, सभी अत्यंत महत्वपूर्ण सवाल हाशिये पर चले जायेंगे. आज गत पैतीस साल हो रहे. मै उसीके खिलाफ काम करने की कोशिश कर रहा हूँ. मैं कितना कामयाब हूँ ? यह बात दिगर है. लेकिन मै मुकदर्शक नही हूँ. अपने क्षमता के अनुरूप, जो भी संभव है मै कोशिश कर रहा हूँ. और यही मेरी पिताजी के शताब्दी वर्ष में मेरे तरफ से विनम्र अभिवादन.