चौथी दुनिया के संवाददाता श़फीक आलम ने प्रख्यात राजनीतिक सुधारक श्री भरत गांधी से वोटरशिप स्कीम पर लंबी बातचीत की. प्रस्तुत है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश…
सबसे पहले ये बताएं कि वोटरशिप स्कीम और यूनिवर्सल बेसिक इनकम में क्या फर्क है?
देखिए, प्रोफेसर जेएस मिल और कार्ल मार्क्स ये दोनों समकालीन थे. दोनों एक बात पर राजी थे कि राज्य गरीबों पर जुल्म ढा रहा है. मार्क्स कहते थे कि इस जुल्म को रोकने का तरीका ये है कि गरीबों को संगठित होकर राज्य पर कब्जा कर लेना चाहिए, लेकिन मिल ये कहते थे कि राज्य पर गरीब कब्जा कर लेंगे तो जुल्म दूसरों पर होने लगेगा. तो जो यूनिवर्सल बेसिक इनकम की सोच है या हमारी वोटरशिप की सोच है ये जॉन स्टूअर्ट मिल की परंपरा से अलग है. इसके जो दुनिया के सबसे बड़े वकील हुए, वो ब्राजील के एक सांसद सकलेसी थे. उन्होंने संसद में ताउम्र इसकी लड़ाई लड़ी. अंत में ब्राजील दुनिया का सबसे पहला देश बना, जिसने सन् 2003 में इसे लागू किया.
ब्राजील में ये प्रयोग कितना सफल रहा है
ब्राजील में ये प्रयोग सफल रहा, लेकिन उन्होंने ये अधिकार अमीरों को नहीं दिया. वोटरशिप और यूनिवर्सल बेसिक इनकम में यही अंतर है. हम ये कहते हैं कि वोटरशिप का अधिकार सबको है, चाहे वो टाटा हो चाहे बिड़ला हो, चाहे वो रिक्शा चलाने वाला हो. यूनिवर्सल बेसिक इनकम जो ब्राजील में लागू हुआ, उससे वहां भ्रष्टाचार बढ़ा. लेकिन भ्रष्टाचार के बाद भी जनता का जीवन सुखमय हुआ. आज ब्राजील सरकार उसको खत्म करने की स्थिति में नहीं है. वहां उत्पादन बढ़ा, जीडीपी बढ़ा, रोजगार के अवसर बढ़े. मार्केट में जो मंदी की समस्या दुनिया झेल रही थी, वह ब्राजील में छू तक नहीं गई, क्योंकि पैसा पब्लिक के पास था. ब्राजील मंदी का शिकार नहीं हुआ. वहां दरअसल उसका नाम वोटरशिप नहीं है. उसका नाम है डीमोग्रांट, यानि पब्लिक का ग्रांट. डेमोक्रेसी में एक फंडामेंटल ग्रांट होनी चाहिए.
आपने अपनी स्कीम का नाम वोटरशिप रखा है. ये सिर्फ वोटर से ही रिलेटेड क्यों है, ये यूनिवर्सल क्यों नहीं है, सबके लिए क्यों नहीं?
वास्तव में ये बात मेरे दिमाग में आई थी, जब हम मशीनों के पैसे को बांटने की बात करेंगे तो पैसा बच्चे को जन्म लेते ही देना होगा. बच्चा पैसा लेगा कैसे? उसका पैसा मां-बाप के पास जाएगा. मां-बाप के पास जाएगा तो भारत जैसे अशिक्षित देश में यहां कुछ मां-बाप ये सोचेंगे कि ज्यादा बच्चा पैदा करोगे तो ज्यादा वोटरशिप आएगी, तो उन्हें बच्चा पैदा करने का इंसेटिव मिल जाएगा. इसलिए मैंने वोटरशिप को वोटर से लिंक किया, नागरिक और बच्चे से नहीं.
वोटरशिप स्कीम कितना व्यावहारिक है? क्या ये संभव है? सरकार अगर करना चाहती है तो उसका जो भार होगा, व्यय कर पाएगी या नहीं कर पाएगी?
1965 में लालबहादुर शास्त्री जी ने जिला पंचायत के चेयरमैन को और डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर को एक फंड का हिस्सा दिया कि आप मिलकर विकास का काम करो. जब इंदिरा गांधी जी 1972 में आयीं तो इंदिरा जी ने कहा कि पैसा और नीचे जाना चाहिए. उन्होंने देशभर में ब्लॉक बनवाया. पैसा सीधे बीडीओ को और ब्लॉक प्रमुख के खाते में भेजा गया. जब राजीव गांधी जी 1985 में आए तो पंचायती राज कानून बना. पैसा गांव के प्रधान तक पहुंच गया. अब मैं ये कह रहा हूं कि पैसा सीधे परिवार तक दे दीजिए. वोटरशिप आंदोलन के कारण सिद्धांत रूप में मनमोहन सिंह सरकार ने माना कि जो सब्सिडी का पैसा हम लोगों को देंगे, बेनिफिशियरी के खाते में देंगे. फिर गैस सिलेंडर का पैसा लोगों के एकाउंट में जाने लगा. इसके बाद अब किसानों को फर्टिलाइजर का पैसा देने की भी बात चल रही है. राशन का पैसा अब लोगों के एकाउंट में दिया जाएगा. अगर मैं 2001-02 में ये आवाज देश में नहीं उठाता तो आज भी पुराने ढर्रे पर देश चल रहा होता.
आपके वोटरशिप स्कीम को सुभाष कश्यप और अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला ने कैसे देखा था और क्या बातें की थीं?
दरअसल 2005-06 में सैकड़ों सांसदों ने वोटरशिप स्कीम पर लिखित नोटिस दे दी तो सरकार के कान खड़े हुए. सरकार ने नोटिस जारी किया इलेक्शन कमीशन को, वित्त मंत्रालय को और कानून मंत्रालय को. इलेक्शन कमीशन ने ये लिखकर भेज दिया कि वोट का अधिकार आर्टिकल 26, 27, 28 में बेशर्त है. उसको शर्तों से जोड़ना भारत के संविधान के अनुच्छेद 326, 327, 328 का उल्लंघन है. अब चूंकि इलेक्शन कमीशन एक संवैधानिक संस्था है, वो लिखकर दे रही है कि अगर वोटरों को वोटरशिप मिलेगा तो संविधान का उल्लंघन हो रहा है. तब राज्यसभा सचिवालय के लिए जरूरी हो गया कि संविधान विशेषज्ञ से रिपोर्ट मंगाई जाए. इसके बाद डॉ. सुभाष कश्यप की रिपोर्ट मंगाई गई. डॉ. सुभाष कश्यप ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि वोटरशिप का जो पैसा देना है, वो वोटर के अधिकार को कम नहीं कर रहा है, वोटर के अधिकार को बढ़ा रहा है. भरत झुनझुनवाला ने अर्थशास्त्री दृष्टिकोण से उसकी विवेचना की.
उन्होंने ये लिखा कि विश्व अर्थव्यवस्था और उदारीकरण की मजबूरी में काम मशीनें कर रही हैं. बाजार के वैश्वीकरण के कारण हम मशीनों को नहीं हटा सकते. जब मशीन रहेगी तब बेरोजगारी भी रहेगी. अगर बेरोजगारी रहेगी, तो पैसा सीमित लोगों के हाथ में आ जाएगा तो मंदी आ जाएगी. भरत गांधी जी ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया. उनका कहना था कि अगर 6000 रुपया लोगों को मिलने लगा, तो गांव में पान या चाय की दुकान करने वाला, जो आज एक दिन में 100 रुपया कमा रहा है, वो एक दिन में 1000 रुपया कमाएगा. तो इस तरीके से किसान का फायदा, मजदूर का फायदा, दुकानदार का फायदा, व्यापारी का फायदा होगा.
इसपर एक बड़ा सवाल उठ सकता है कि अगर हम किसी को फ्री में पैसा देंगे, तो कोई काम नहीं करना चाहेगा.
ये सवाल मुझे बहुत फेस करना पड़ता है. मैं केवल ये कहना चाहता हूं कि वोटरशिप का पैसा अगर पांच हजार, छह हजार लोगों के खाते में डाल दिया जाए तो इसके दो तरीके हैं. एक तो करके देखो. पहले देखो कि वो निकम्मा होता है या नहीं होता है. पहले देकर देखो. लेकिन आप कहें कि हम इतने पैसों का क्यों नुकसान करें, तो ब्राजील में देखो. ब्राजील में लोग निकम्मे हो गए क्या? ब्राजील की इकोनॉमी और बूम कर गई. नामीबिया में देखो, नामीबिया में तो 100 में 100 आदमी शराबी है. लेकिन, नामीबिया में चमत्कार हुआ. जब वोटरशिप का पैसा वहां मिलने लगा, तब वहां यूनिवर्सल बेसिक इनकम के रूप में बैलों का रेट आसमान छूने लगा. मतलब बैलों की कीमत बारह से पंद्रह गुना बढ़ गई और गाय ढूंढनी मुश्किल हो गई. बेचारे कुदाल फावड़ा से खेती करते थे, जब उन्हें पैसा मिला तो उन्होंने सबसे पहले सोचा हल और बैल से खेती करें. वहां लोग निकम्मे नहीं हुए, बल्कि ज्यादा उत्पादक हो गए.
आपने बताया कि संसद में अच्छे खासे सदस्यों का आपको समर्थन मिला. कांग्रेस पार्टी की नीयत भी इसमें साफ है, भाजपा की नीयत भी साफ है. मोदी सरकार ने एक यूनिवर्सल बेसिक इनकम का प्रस्ताव पेश किया है. उसमें और वोटरशिप में जो आपने प्रस्ताव रखा है, दोनों में क्या फर्क है? 1500 रुपए की प्रस्तावित राशि है यूनिवर्सल इनकम में.
पहले तो मैं शब्दों का फर्क बता दूं कि वोटरशिप स्वदेशी है और यूनिवर्सल बेसिक इनकम विदेशी है. ये विदेश से लाया हुआ शब्द है. दोनों में समानता ये है कि जरूरतमंद लोगों को कुछ नगद पैसा देना है, कैसे देना है, बिना काम के देना है और बिना किसी परीक्षा के देना है. वोटरशिप का भी यही मतलब है और यूनिवर्सल बेसिक इनकम का भी यही मतलब है. इसको कुछ लोग बीआई अर्थात बेसिक इनकम ही बोलते हैं. दोनों का मतलब यही है. मोदी जी के पास पहले से वोटरशिप शब्द
था. चूंकि उनको विदेश से ज्यादा प्यार है, वे शुरू से स्वदेशी के विरोधी हैं, इसलिए वो हमेशा कहते हैं मेक इन इंडिया. अब अर्थ देखिए, अर्थ ये है कि वोटरशिप और यूनिवर्सल बेसिक इनकम ये दोनों ही चीजें समानता में एक ही हैं कि लोगों को पैसा मिलने वाला है. लेकिन अंतर यह है कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम में सरकार तय करेगी कि किसको दें और किसको नहीं दें. वोटरशिप के मामले में सरकार का ये अधिकार समाप्त कर दिया गया है. ये कहा गया है कि वोटरशिप हर वोटर को मिलेगा, चाहे वो अमीर हो या गरीब. यूनिवर्सल बेसिक इनकम में किसको मिलेगा, किसको नहीं मिलेगा, यह जिले का कलेक्टर तय करेगा.
ऐसे में वह निश्चित रूप से भ्रष्टाचार करेगा. दूसरी बात, यूनिवर्सल बेसिक इनकम का यूरोपियन कंसेप्ट है कि एक डॉलर रोज दिया जाए. हम ये पूछते हैं कि किस अधिकार से एक डॉलर? लोकतंत्र में जनता चीजें तय करती है, सरकार तो प्रबंधक है. जनता मालिक है. हमें मालिक की भूमिका में छोड़िए. तो यूनिवर्सल बेसिक इनकम में लोकतंत्र के इस मूल सिद्धांत का पालन नहीं हो रहा है. इसमें सरकार के लोग ये कह रहे हैं कि मैं मालिक हूं और देश के गरीब, परेशान व बेबस लोग प्रजा हैं और प्रजा की जरूरत राजा तय करने जा रहा है एक डॉलर रोज. एक डॉलर रोज क्यों, दो डॉलर क्यों नहीं, आधा डॉलर क्यों नहीं? इस बात का कोई जवाब यूनिवर्सल बेसिक इनकम के सिद्धांतकारों के पास नहीं है.
वोटरशिप के सिद्धांतकार कहते हैं कि देश में औसत आमदनी का शत प्रतिशत लोगों के पास जाना चाहिए यानि मालिकों के पास. वोटरशिप भ्रष्टाचार मुक्त है, वोटरशिप सैद्धांतिक है और यूनिवर्सल बेसिक इनकम में भ्रष्टाचार बढ़ने की आशंका है, यूनिवर्सल बेसिक इनकम से गरीबी नहीं जाएगी, वोटरशिप से गरीबी और बेरोजगारी गारंटी से चली जाएगी. यूनिवर्सल बेसिक इनकम से गरीबी और बेरोजगारी नहीं जाएगी. आर्थिक विषमता कंट्रोल होगी वोटरशिप से और आर्थिक विषमता यूनिवर्सल बेसिक इनकम से कंट्रोल नहीं होगी. इसलिए जो स्वदेशी प्रस्ताव है, वो विदेशी प्रस्ताव से सौ गुना अच्छा है.
देश की जीडीपी पर नजर डालें तो उसमें सर्विसेज सेक्टर का हिस्सा सबसे ज्यादा है. आज भी एग्रीकल्चर सेक्टर लेबर इंसेंटिव है. तो क्या आपको लगता है कि समय आ गया है कि वोटरशिप तथा बेसिक इनकम जैसी स्कीम को अब लागू करना अनिवार्य हो गया है?
इस पर मेरी दृष्टि बिल्कुल साफ है. इसमें रत्ती भर कंफ्यूजन नहीं है. एक मशीन आती है. मोबाइल आया, उसने रोजगार दिया. आप ये तो नहीं कह सकते हैं कि मोबाइल ने रोजगार नहीं दिया. आज गली-गली मोबाइल बनाने वाले हैं, लेकिन मोबाइल ने जो टेलीफोन तार वाला सिस्टम था, उसे खत्म कर दिया. आप एक सर्वे करिए कि कितने लोगों को मोबाइल से रोजगार मिला और लैंडलाइन से जिनका फोन चलता था, कितने लोग टेलीफोन सेक्टर में काम करते थे, उन सब लोगों के काम खत्म हो गए. आप पाएंगे कि पांच लोगों को मोबाइल में रोजगार मिला, तो 95 प्रतिशत से भी ज्यादा लोगों का रोजगार चला गया. हर सेक्टर में यही हुआ है. आज जुलाहे हैं, पहले कपड़ा बनाते थे. कई करोड़ जुलाहों का कपड़े से रोजगार चलता था.
आज मशीन आ गई तो कई करोड़ जुलाहों का काम खत्म करके 10 हजार लोगों को नौकरी मिली. मेरा कहना है दोनों के बीच बैलेंस बनाइए. मैं स्पष्ट कहता हूं कि अगर मशीनों का इनकम आपने लोगों में नहीं बांटा, तो आनेवाले समय में भारी खून-खराबा होगा. इतना ही नहीं, विश्व बैंक की रिपोर्ट पढ़िए. वर्ल्ड बैंक ने साफ-साफ कहा है कि भारत में दो साल के अंदर 69 प्रतिशत रोजगार समाप्त हो जाएंगे. ये भरत गांधी की रिपोर्ट नहीं, बल्कि ये अथॉरिटी है वर्ल्ड बैंक. विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में ये भी लिखा है कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम संसार के सभी देशों को तत्काल लागू करना चाहिए, लेेकिन भारत में वोटरशिप स्कीम ही अंत में कारगर सिद्ध होगी.