समागम हमेशा ही सुखद होते हैं। मनुष्य की एक आकांक्षा हमेशा रहती है कि वह समागमों में शामिल हो। इसलिए छोटे बड़े समागम देश विदेश में होते रहते हैं। साहित्यिक और सांस्कृतिक समागम मगर कम होते हैं। विश्वरंग में समागम के अधिकांश मूल्य स्थापित हुए जो भोपाल में रवींद्र नाथ टैगोर यूनिवर्सिटी द्वारा किया गया। इसमें 50 देश और 1000 कलाकार और लेखक शामिल हुए।
विश्वरंग के आयोजन में मुझे यह अन्य रूप से उत्साहप्रद था कि कथेतर गद्य का सत्र संचालन एवं रचना पाठ का अवसर दिया गया।अचरज कि मुझे कथेतर सत्र के लिए चुना गया जबकि मैं कविताओं में ज्यादा रमा हूंँ। इसी कार्यक्रम में विमोचित विश्व रंग पत्रिका में मेरी कविताएं भी विशेष टैग (युवा काव्य परिसर में एक विश्वसनीय आवाज़) के साथ संपादक जी ने लेकर मुझे ऊर्जा दी। लेकिन यह भी कि मैं कुछ सालों से गद्य के कुछ फुटकर लेखन कर रहा हूं । बेशक मुझे गद्य में लिखते हुए भी एक सृजन सुख मिल रहा है,। त्रिलोचन ने लिखा है गद्य में लयों के सागर होते हैं सो कुछ अच्छी समीक्षाएं, संस्मरण और डायरी मैं पत्र पत्रिकाओं सोशल मीडिया पर प्रक्षेपित करता रहा । कदाचित इस पर ही लीलाधर मंडलोई जी की नज़र गई होगी ।कोरोना काल में मेरी सन्नाटा की डायरी जो दैनिक भास्कर में दस किश्तों में आई को भी उन्होंने पढ़ा था और सराहा था।तो मेरा एक मूल्यांकन सा होता रहा होगा और तदनुरूप यह एक अवसर था।वह भी श्री ओम थानवी,श्री अनिरुद्ध उमट,श्री शरद कोकास के साथ मुझे रखा गया।यही नहीं मेरे सत्र में सम्मुख श्रोता के रूप में श्री कृष्ण कल्पित,नवल शुक्ल,श्री निरंजन श्रोत्रिय,श्री देवीलाल पाटीदार, प्रेमचंद गांधी,प्रज्ञा रावत सहित अनेक बड़े नाम और साहित्य सखा उपस्थित रहे। वहां एक समृद्ध कथेतर गद्य गोष्ठी हुई। जब मुझे दृश्यों से कतिपय जिम्मेदार संगठन दृश्यों से हटा देखना चाह रहे थे मुझे यहां दृश्य बनाया गया मैं मंडलोई जी जिन्होंने मेरे 25 साला (सिल्वर जुबली) साहित्यिक जीवन में मुझे कभी भी उपेक्षित नहीं किया के प्रति दिल से कृतज्ञ हूं। मुमकिन है यह एक अनावश्यक क्रेडिट लाइन समझी जाये मगर यह आमद की है तो उसी भाव से आ गई।आना चाहिए। वैसे वहां सभी मेरे शुभचिंतक ही हैं।
मैंने देखा कि विश्वरंग पत्रिका में मेरी केलिग्राफी का भी इस्तेमाल कर लिया गया है जो हर पेज पर पृष्ठ क्रमांक के नजदीक विश्वरंग शब्द लिखा है उसे मंडलोई जी ने विशेष रूप से मुझसे लिखवाया था और उसका उपयोग भी किया। अच्छा लगा कि यह कला स्थान पा गई।
विश्वरंग एक मेगा सांस्कृतिक आयोजन रहा। अकल्पनीय रूप से भव्य, विराट, समावेशी, अकादमिक, मनोरंजक और उत्प्रेरक। जहां साहित्य के वास्तविक साधक, सृजन शिल्पी अपनी सादगी में मौजूद थे, जहां कलाएं जैसे स्वयं विचरण कर रहीं थीं। जहां बस एक सकारात्मक और ऊर्जा दायक वातावरण था। जहां एक आनंद का उत्स था और जहां हर कोई हर कोई से बस छोटा और मित्र बनकर मिल रहा था। वहां बस गलबहियां थीं,बतकहियां थी,हाथमिलन थे, तस्वीरों की क्लिकें थीं, मुस्कानें ,ठिठोली और हास परिहास और साहित्यिक चर्चाएं थीं। परिचय करने और परिचित होने के उमंग भरे क्षण थे।मंच पर कला साधकों के सधे हुए वक्तव्य, कविताएं, ग़जलें, अनुभव,और गुंजन करते हुए मधुर संचालन थे। स्वयं संतोष चौबे, लीलाधर मंडलोई हर समय हंसते मुस्कुराते गले मिलते और सौजन्य संवाद करते हुए हर वक्त सुलभ थे।विनय उपाध्याय की अध्ययन सुलभ ,स्वर सधी आवाज़ वातावरण को और सत्रों को एक स्तर दे रही।थी बगैर लाउड हुए उनकी उद्घोषणाएं हमेशा ही चकित करतीं हैं।उधर मोहन सगोरिया भी सबकी सुन रहे थे। सबसे मुखातिब थे।राकी गर्ग के फोन हर बार सुविधा देने के लिए आते रहे। मैं चकित था इन इंतज़ामों के।भाई मनोहर बाथम ने भी पूरे समय मुझे स्नेह दिया।सभी से वह भी संबद्ध रहे।मौसमी परिहार ने भी मुझसे और मेरे परिवार से हाल पूछे और तस्वीरें लीं ।जी हां इतने भव्य कार्यक्रम की झलक दिखाने के लिए मैंने पत्नी मुक्ता और बेटी प्रशंसा को बस एक दिन साथ रखा था।वह शाम को मुझे छोड़कर विदिशा वापस चलीं गईं थीं।ऐसी जगह छोड़कर ही चले जाना चाहिए।प्रीति खरे ने उनके इस त्याग को एक ठहाके के साथ कहा कि मुक्ता जी ने तुमसे कहा होगा जा सिमरन जी ले अपनी जिंदगी। मुझे भी हंसी आ गई थी।
सत्रों का चुनाव एक मुश्किल काम होता।किस किस को देखिए और किस को छोड़िए दिमाग में चलता रहता। फिर भी अपनी दिलचस्पी के साथ ज़ाहिर है प्रिय लेखकों को सुनने का विकल्प चुना। लंच के पहले के सत्र भव्य होते और दुर्लभ होते।अशनीर ग्रोवर को सुनते समय ऐसा लगा कि कोई और स्टार्ट अप अपन भी करें कहां इस साहित्य में फंसे हैं।मनोज पहावा से इला जोशी की बातचीत बहुत ही प्रभावी लगी।इला जी का अंदाज़ ए गुफ्तगू दिल छू गया। और रसिका दुग्गल को सुनकर मुंबई जाने को मन होने लगा ।कार्यक्रम खत्म होते ही अपनी उम्र और अन्य कैफियत का ख्याल आया और सपना टूटा। साहित्यिक सत्र हमारे लिए इतनी प्राथमिकता पर होते कि हमने आस पास चल रहे बच्चों के कार्यक्रम, प्रकाशनों के काउंटर ढंग से देखें ही नहीं। मगर हां ये सभी बातें जीवन में काम आएंगी। जैसे बाहर विचरण के समय मंडलोई जी कह रहे थे।यह विश्वरंग हमारा स्टार्ट अप था।ये भाषा, ये तैयारी साहित्य में भी काम आ सकती है। किसी ने कहा भी है कि कवि के लिए कुछ भी अनुपयोगी नहीं होता।
सितारे शौरा इकराम और कवियों का कवि सम्मेलन और मुशायरा 18 सितंबर को था। इसमें शीन काफ़ निजाम का और यश मालवीय का पाठ ग़ज़ब था।बल्ली सिंह चीमा को हमने पहले और पत्र पत्रिकाओं में पढ़ा था, उन्हें सामने देखकर अच्छा लगा।अगली शाम किशोर गायिका मैथिली ठाकुर को भी सुना।
आकाशवाणी के ज़माने से अब तक की मित्र अनिता दुबे की गांधी प्रदर्शनी, विदिशा के सुरेश राठौर की गोबर शिल्प सामग्री और गौंड आदिवासी चित्रों की प्रदर्शनी अच्छी लगी। विचरण के समय सुरेश राठौर ने मुझे पहचान लिया था।आकर बोले विदिशा नरेश का स्वागत। पहचान ही नहीं रहे भाई -समय ही ऐसा है-।वह दरअसल मेरे कविता संग्रह के नाम का उपयोग कर संग्रह की बधाई देते हुए एक मीठी उलाहना दे रहे थे।
मैं वहां अपने कविता संग्रह की पांच प्रतियां ले गया था,पचास प्रतियां भी ले जाता तो कम पड़ जातीं।जिनको ये संग्रह भेंट किये तवज्जो की एक उम्मीद में ही किये।रामा तक्षक जी ने मुझे भी अपना उपन्यास भेंट किया।यह हीर हम्मो नाम से आइसेक्ट पब्लिकेशन ने सुंदर छापा है। नीदरलैंड्स में रहते प्रवासी भारतीय रामा तक्षक जी बहुत अच्छे लेखक और इंसान हैं। वहां मेरे प्रिय कवि, अरूण कमल,मदन कश्यप, सुरेश ऋतुपर्ण, अरूण देव,नीरज खरे, मृदुला गर्ग, शीन काफ निजाम, जितेन्द्र श्रीवास्तव, कुमार अनुपम, महेश कटारे, प्रेमचंद गांधी, पंकज सुबीर,ममता कालिया, युवा कवि प्रांजल धर, अजय तिवारी,प्रियदर्शन,ओम निश्चल,यश मालवीय, अनूप सेठी, निरंजन श्रोत्रिय,अरूणाभ सौरभ, देवीलाल पाटीदार,इला जोशी, कांता राय,पुष्पेश पंत,हरि भटनागर, नीलेश रघुवंशी, संजय अलंग, त्रिलोक महावर आदि से मुलाकातें हुईं। आकाशवाणी के जमाने से दोस्त प्रीति खरे दीपक पगारे, इरशाद भी मिले।कुछ को तो बस देखते ही रह गए। कुछ तो ऐसे थे जिन्हें देख भी नहीं पाए बस मालूम हुआ कि वे मौजूद हैं। भेंट मुलाकातों इतना रसास्वादन मुमकिन भी नहीं था ।आखिर समय और क्षमता की भी सीमा है।या तो रात हो जाती या थके होते।तो ऐसा था यह असीम मेला।मेला में भी तो मेल ही होता है। यहां भी मेल का उत्सव था।
अनंत बातें लिखी जा सकती हैं मगर बस अभी इतनी ही।
ओ वाणी मुझसे खफ़ा न होना
कि मैंने तुमसे उधार ले लिये चट्टानों से भारी शब्द
-विस्लावा शिम्बोर्स्का
कहना यह है कि ऐसे आयोजनों के समर्थन ही होने चाहिए।उस स्वप्नदृष्टा की अथाह प्रशस्ति जिसने इस विराट संगमन को मुमकिन किया।उन सभी सहसर्जकों को मरहवा जिन्होंने दिन रात लगकर इसे पूर्णता दी।
मुझे भी विश्वरंग में शामिल होने का अवसर मिला। धन्यवाद जारी करने का मन है श्री संतोष चौबे जी, लीलाधर मंडलोई जी , मुकेश वर्मा जी, बलराम गुमास्ता जी ,राकी गर्ग जी को। मंडलोई जी को इक और टक ।
यह टक हमने अपने सत्र में ही सीखा। जब ओम थानवी जी ने अपने संस्मरण में कोपेनहेगन की भाषा में बताया कि वहां के लोग धन्यवाद के लिए टक शब्द का प्रयोग करते हैं।
धन्यवादों और कृतज्ञताओं के अनगिनत गुलदस्ते आप चारों को और समूची टीम को इसलिए मिल रहे हैं कि आपने अपने काम से प्रेम किया है। इश्क़ किया है। राहत इंदौरी याद आए। ये कलाप्रेमियों साहित्यकारों और आपके बीच का इश्क़ है।
आज हम दोनों को फुरसत है, चलो इश्क करें
इश्क दोनों की जरूरत है, चलो इश्क करें
इसमें नुकसान का खतरा ही नहीं रहता है
ये मुनाफ़े की तिजारत है, चलो इश्क करें
इस मुनाफ़े की तिजारत और बढ़े । उम्मीद और कामना है।