सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
अहमद फ़राज़

कुछ लोकोक्तियों में शहरों के नाम भी जुड़ जाते हैं।विदिशा के पिछले नाम भेलसा को भी यह सिफ़त हासिल हुई है।किसी को सामर्थ्य की कसौटी पर कसने के लिए लगभग व्यंग्य में कहा जाता है तुम क्या भेलसा की तोप हो।अपनी अनेक अलहदा विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध इस शहर के बारे में क्या ही कहा लिखा जाए।याद आता है कि अपनी पहली दूसरी कक्षाओं में पढ़ते समय स्कूल में हमारे गुरूजी जो सवाल करते थे।उनके उत्तर मेरी तोतली बोली में बड़े मजेदार होते थे अपने गांव का नाम क्या है ?-मैं कहता कांकल, तहसील -कुलवाई और जिला भेलचा।वास्तविक नाम थे काँकर कुरवाई और भेलसा।।कुछ वर्षों बाद उन्होंने सिखाया हमारे जिले का नाम अब हो गया है विदिशा।हमें गुरूजी ने इस तरह सिखाया ये छोटा सा भूगोल।
विदिशा वासी होते हुए अब यह विदिशा मेरे लिए एक गर्वोक्ति का शहर है।कारण है इस शहर या अंचल की माटी में उपस्थित मातृत्व का भाव।जो रहवासियों या सैलानियों को वात्सल्य देता है।यहां की झिरों में बेतवा का सलिल है जो प्यासे कंठों से गुजरते हुए मीठी सी तृप्ति का अनुभव कराता है। यहां की हवा में सहकारिता का गुण है। विशिष्टता में पगी यह ज़मीं, आबोहवा में मिलकर इस शहर का सुभीता सांस्कृतिक वातावरण भी रचती है।


विदिशा शब्द के मायने तलाशते समय शब्द पहेलियों के शौकीन कभी इसे विशिष्ट दिशा वाला शहर,कभी विप्रीत दिशा वाला शहर तो कभी बिना दिशा वाला शहर कहते हैं।मगर प्रबुद्ध कहते हैं कि यह विशिष्ट दिशा वाला शहर है। इसका पुरावैभव और पौराणिक संदर्भ ही नहीं बल्कि अधुनातन संदर्भ भी यह साबित करते हैं कि यह विशिष्ट भूमि है। अगर यहां के एतिहासिक मंदिरों की घंटियों के संगीत में एक आत्मीय पुकार है तो नवनिर्मित इमारतें उद्यान नदी तट भी अपनी भाषा में मोहनी गीत गा रहे होते हैं। लगभग दस किलोमीटर की परिधि में ठहरे इस नगर का मानचित्र बनाएं तो प्राप्त आकृति एक सधी हुई चित्रकला की बानगी कहीं जा सकती है।

बहरहाल मैं इस जिले का निवासी होते हुए भी गणित विषय की परास्नातक की पढ़ाई करने के लिए सेठ सिताब राय जैन कालेज में पढ़ने के लिए विदिशा नगर में वर्ष 1986 में आ सका।यह महाविद्यालय साधारण नहीं था।एक तो इसे सेठ सिताब राय जैन ने तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय की भावना के साथ अपने परिग्रह से बनवाया।दूसरी ख़ासियत यह रही कि एक सांस्कृतिक और शैक्षिक केंद्र के रूप में यह विख्यात हुआ.इसी के आंँगन में वर्ष1970 में एक तीन दिवसीय गायन वादन का आयोजन हुआ था जिसमें विश्व विख्यात तबला वादक पं सामता प्रसाद,गुदईं महाराज,विश्व विख्यात कथक नृत्यांगना श्रीमती सितारा देवी,फिल्म जगत की सुप्रसिद्ध गायिका श्रीमती गीता दत्त के कार्यक्रम संपन्न हुए।तब से वर्ष 2006 तक भी इस प्रांगण में शास्त्रीय स्तर के नृत्यों और संगीत की प्रस्तुतियों ने फिज़ा में अपने रंग घोले। अहमद हुसैन -मोहम्मद हुसैन, अनूप जलोटा,रिचा शर्मा,शर्मा बंधु, एवं विनोद अग्रवाल को भी मुख्तलिफ़ आयोजनों में हम लोगों ने देखा और सुना है।

भूमियों में भी संवेदनाओं का लावण्य होता है। तानसेन के ग्वालियर में होने का और उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ साहब के बनारस में होने का कुछ तो अर्थ है ।दरअसल कुछ स्थानिकताएं होतीं हैं जो एहसास कराते हुए ध्यान रखतीं हैं कि नकारात्मकता की कोई खरोंच मनभूमि पर न आ जाए। मेरा अक़ीदा है कि यह भूमि उसी तासीर की है। कुछ तो रहा ही होगा कि यहांँ
ईसा पूर्व का इतिहास हो या ईसा पश्चात्त का, उल्लेखनीय संदर्भ मिलते ही हैं।कर्क रेखा की नजदीकियां इसे भौगोलिक रूप से महत्वपूर्ण बनाती हैं शायद इसीलिए मालवा की यह नगरी उज्जयिनी पाटलिपुत्र आदि के समकक्ष ही रही। सम्राट अशोक ने देवी नामक युवती से विवाह कर इसे अपना ससुराल बनाया।तो पुष्यमित्र शुंग ने भी यहां राजकाज किया। च्यवन ऋषि का नाम भी इस नगर से संबद्ध है। श्रुति अनुसार श्री राम भी यहां आए थे, बेतवा के मनोरम घाट चरणतीर्थ में आस्था इसीलिए है।
पुरावैभव के लिए तो फिर भी हम कुछ अन्य शहरों के तुल्य हो सकते हैं। मगर सांस्कृतिक छटा के लिए यह अनुपम और अनूठी नगरी है।
कलाओं का आधुनिक काल यहांँ रूखा सूखा बिल्कुल नहीं है। विश्व में शायद ही किसी और स्थान पर ऐसी वैभवयुक्त रामलीला होती हो जहाँ पात्र एवं दृश्य चलित होते हैं।संवाद मंच से बोले जाते हैं।अयोध्या और लंका का क्षेत्र बाकायदा दूर दूर है।श्री रामलीला मेला समिति द्वारा हर साल जनवरी में आयोजित इस सांस्कृतिक मेले में शामिल होना सभी को आनंदित होने का एक अवसर हुआ करता है।

हम ज़िक्र करेंगे विदिशा के ही संगीत के एक सितारे सपूत का। श्री गंगाप्रसाद पाठक ग्वालियर घराने के शास्त्रीय संगीत के गायक तथा पखावजी के रूप में फिल्मों तक भी पहुंच गए थे। उनकी ख्याति इस रूप में ज्यादा रही कि वह फिल्म संगीत देते रहे ।रणजीत मूवीटोन के प्रारंभिक संगीतकारों में उनका ख़ास मकाम था। उन्होंने गुण सुंदरी,रात की रानी,नादिरा,तारा सुंदरी सहित लगभग पंद्रह फिल्मों में संगीत दिया।वह 1976 में दुनिया छोड़ कर चले गए थे।अब उनके पुत्र प्रकाश पाठक शास्त्रीय संगीत के अच्छे अभ्यासी हैं।उनके स्मरण में गठित पं.गंगा प्रसाद पाठक ललित कला न्यास वर्ष 1980 से ही शास्त्रीय संगीत के, उत्कृष्ट कविता के, रंगमंच के, चित्र कलाओं के आयोजन करते हुए नगर की सभी पीढ़ियों के रसिकों को पर्याप्त सुरूचि संपन्न बनाए हुए हैं। विदिशा की फिज़ाओं में बेगम अख्तर ,पंडित जसराज के अलावा मालिनी राजुरकर, पंडित जितेन्द्र अभिषेकी, ,पंडित लक्ष्मण शंकर राव ,सज्जन लाल भट्ट सहित अनेक गायकों की स्वरलहरियां गूंज चुकीं हैं। संगीतज्ञ मथुरा मोहन श्रीवास्तव के तो अभी भी शिष्य मिलते हैं।उनके सुपुत्र सुदिन श्रीवास्तव शास्त्रीय संगीत का वातावरण बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं।गायन वादन,कवि सम्मेलन, परिचर्चा, चित्रकला,लोक गायन, नृत्य नाटिकाएं यहां खूब खूब हुए हैं। एक दशक पहले संस्कृति मंत्रालय ने बेतवा उत्सव के अंतर्गत देश के बड़े बड़े लोकप्रिय गायकों , विभिन्न लोक नृत्यों और कवि सम्मेलन के भव्य और गरिमा मय आयोजन भी किये। विदिशा उन स्मृतियों को भूलना नहीं चाहता।मगर हम एक दुःखद स्मृति से भी क्षुब्ध हो जाते हैं। क्यों 8 जून 2008 की उस भोर ने बेतवा उत्सव से काव्य रंग बिखेर कर लौट रहे चार शारदपुत्रों ओम प्रकाश आदित्य,ओम व्यास नीरज पुरी बम, एवं लाड़ सिंह गुर्जर को मृत्यु की रात में सदैव को सुला दिया था। विदिशा भूमि स्वयं भी इस अनहोनी पर अब तक दुखी हो जाती होगी।

मुझे सुखद अचरज होता है प्रवास में जब किसी साहित्यिकार से मिलते हुए उन्हीं के मुख से विदिशा की गलियों, तांगों, और नदी किनारे की यादों को सुनता हूं। एक बार नामवर सिंह जी से भेंट हुई तो उन्होंने बताया कि वह भी विदिशा आ चुके हैं। शमशेर बहादुर सिंह की साहित्यिक करीबी सुश्री रंजना अरगड़े से अहमदाबाद में मिला तो उनके पति जी ने सब कुछ बता दिया। संयोग से यहां एक संस्कृति का केंद्र मुमकिन किया था जैन कालेज में आए प्रोफेसर विजय बहादुर सिंह ने। यहां नागार्जुन, कैफ़ भोपाली, शलभ श्रीराम सिंह तो रहवासियों की तरह आए ।मगर कला के दीगर परिंदे भी इस कला भूमि को आदर से चूमने के लिए आते रहे। नरेंद्र जैन की कविताओं के नीचे छपा पता तो विदिशा का ही होता रहा ।शरद श्रीवास्तव ने छायाकारी में एक साधना की।अच्छे चित्रकार हुए ठाकुर रघुनाथ सिंह।श्री हरिवंश सिलाकारी को आम आदमी यहां सम्राट अशोक अभियांत्रिकी महाविद्यालय के प्राचार्य के रूप में जानता है मगर वह अंग्रेजी साहित्य के अच्छे जानकार हिन्दी के अच्छे अध्येता रहे।रामकृष्ण प्रकाशन उन्होंने यहां शुरू किया, जिसके संपादक रहे शलभ श्रीराम सिंह। विदिशा जब भी अपने पुराने अदब के गलियारों में झांकता है तो लल्लू सिंह हैरां ,नर्मदेश भावसार घनश्याम मुरारी पुष्प सहित अनेक कवि शायरों की छवियाँ याद आती है।शलभ श्रीराम सिंह ने विदिशा के लिए एक नज़्म में कहा है

मज़हब जंगो अमन का अजीब संगम यह
ना सिर्फ शहर है फ़न की पनाहगार भी है ।
यह ज़मीन जिसने कि औरंगजेब तक को सहा स्वरों की, ताल की ,लय की गुजार गाह भी है।

एक शख्स श्री मुन्ना लाल विश्वकर्मा का नाम भी यहाँ क़ाबिल -ए -जि़क्र है जिन्होंने काष्ठकला के लिए बिल्कुल नया और अनूठा काम किया है। जंगलों में जाकर वह कलात्मक काष्ठ आकृतियांँ चुनते और तराशते है। विश्व स्तर पर वह इस बावत रेखांकित हो चुके हैं।
यह जिक्र उचित होगा कि प्राचीन शहर
दशार्ण ही भिल्लस्वामी,भिलसा, जैसे नामों से गुजरकर विदिशा नाम तक आ सका।
यह नगर केवल कला साहित्य के रंगों से नहीं बना।यहां धर्म,राजनीति और समाजसेवा के भी कुछ नये विचारों ने मूर्त रूप लिया है। मध्य भारत में यहां के बाबू तख्तमल मुख्यमंत्री भी रहे।सुना है महात्मा गांधी भी रेल से गुजरते समय विदिशा स्टेशन पर थोड़ी देर को उतरे थे। यहां की धरती को प्रणाम किया था और माथे में धूल को लगा कर वापस बैठ गये थे।

सेठ रामेश्वर दयाल बंसल जी ने एक रूपए में मरीजों के साथियों को भोजन और स्टेशन पर यात्रियों को निशुल्क ठंडा जल वितरण का काम शुरू किया।
एक और भी युवा हैं विकास पचोरी ।जो पिछले सात सालों से जीवन से मृत्यु में बदल चुके शरीरों को निशुल्क श्मशान घाट तक ले जा रहे हैं। जी हां विकास पचोरी अभी पचास के होंगे लेकिन वह लगातार अस्सी घंटे बोलने का विश्व रिकॉर्ड बना चुके हैं । वह पिछले पांच माह से मौन साधना कर रहे हैं।समाज सेवा का नोबेल शांति पुरस्कार भी तो विदिशा के ही लाल कैलाश सत्यार्थी ने प्राप्त किया है।वह स्वयं अच्छे कवि,विचारक और वक्ता हैं।

विदिशा पुरातात्विक दृष्टि से भी संपन्न है। नीलकंठेश्वर उदयपुर,माला देवी का मंदिर ग्यारस पुर लुहांगी, बीजामंडल, हेलियोडोरस स्तंभ,उदयगिरि की गुफाएं अद्भुत हैं। सांची के स्तूप भी विदिशा की परिधि में हैं ।
कहा जाना चाहिए मालवा क्षेत्र के इस भूखंड में कला साहित्य और मानवीय मूल्यों की पौधों को हरा भरा रखने के लिए पर्याप्त उर्वरकता है।

रंगकर्म का ज़िक्र करेंगे तो रंग दिशा विदिशा द्वारा विदिशा में 1983 में पहली बार एक नाटक दल का गठन किया गया रामशरण ताम्रकार, नीरज शक्ति निगम सुनील जैन ने विदिशा के कलाप्रेमीओं को जोड़कर एक संस्था रंगदिशा बनाई पहली बार रंगमंडल के कलाकार शरद शवल के निर्देशन में गुरुशरण सिंह लिखित नाटक जंगीराम की हवेली का प्रदर्शन किया गया। इसके अलावा प्रख्यात रंगकर्मी
हबीब तनवीर,आलोक चटर्जी,संजय चतुर्वेदी, हेमंत देवलेकर ,संजय शर्मा और गोपाल दुबे भी यहां रंगकर्म की छटा बिखेर चुके हैं।किंचित सी चिंता यह अलबत्ता है कि अभिनय के मंच की आभा अभी क्षीण है। रंगदिशा को और महाराष्ट्र मंडल को नाटक की रिहर्सलें किये लगभग चार दशक बीत गए जिसमें यहांँ के नीरज शक्ति निगम रामशरण ताम्रकार ,डा.आनंद गोरे शरद सबल के साथ सक्रिय थे। रंगकर्मी गजेन्द्र आचार्य की लगन तो एक विद्यालय में दीपक जलाए हुए हैं। चिंता यह भी है कि विदिशा के बीचों बीच बने कालिदास रंगमंच की बुझी हुई आंखों में अब कौन गुलाब जल डालेगा। करोड़ों रूपए से बने रवीन्द्र नाथ टैगोर आडिटोरियम का कला के लिए उपयोग करना अभी तक तो प्राथमिकता में नहीं है।उम्मीद है ये रिक्ति कभी भरेगी ।इसकी प्रतीक्षा तो रहेगी गो कि विदिशा तो सदैव विद्यमान रहेगा।उम्मीद कायम है कि कभी विदिशज स्वयं ही ज्ञान विज्ञान के साथ साथ भरत मुनि के नाट्य शास्त्र का अनुशीलन करेंगे।यहां कभी रहे मुक्तिबोध, नागार्जुन,कैफ़ भोपाली और शलभ श्रीराम सिंह की मेधा और वैचारिक आभा शब्द साधकों को और फलेगी।उम्मीद है कि विदिशा विशिष्ट दिशा की गरिमा को नित नित बढ़ा हुआ पाएगी।
कालिदास के मेघदूत के इस श्लोक के बहाने नये पाहुनों को मेघ मानकर न्योता दिया जा सकता है।
तेषां दिक्षु प्रथितविदिशालक्षणां राजधानीं गत्वा सद्यः फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्धा।।
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ब्रज श्रीवास्तव

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