पिछले दिनों दो खबरें आईं, एक हरियाणा से और दूसरी गुजरात के सौराष्ट्र से. हरियाणा में एक दलित लड़की से गैंगरेप की खबर थी, तो वहीं गुजरात में कुछ दलित युवकों को एक राजनीतिक संगठन से जुड़े कथित गौ रक्षकों द्वारा पीटे जाने की खबर आई. दलित युवकों पर आरोप था कि वे एक मृत पशु की खाल उतार रहे थे. गौ रक्षकों द्वारा पीटे जाने के बाद कुछ दलित युवकों ने आत्महत्या करने की कोशिश भी की. इस घटनाक्रम के बाद गुजरात के बड़े हिस्से में दलित समुदाय के लोगों ने आंदोलन किया. आरोपियों की गिरफ्तारी हुई, लेकिन दलित समुदाय के लोग दलित युवकों की पिटाई को लेकर काफी आक्रोशित थे.
ऐसा नहीं है कि पिछले कुछ समय में दलितों के खिलाफ अपराध की केवल यही दो घटनाएं सामने आई हैं. दलितों और आदिवासियों के खिलाफ देश भर में तकरीबन हर दिन किसी न किसी किस्म की आपराधिक घटनाएं होती रहती हैं. इनमें से कुछ मामलों मेें थानों में रिपोर्ट दर्ज होती है, जबकि अधिकतर मामले अनरिपोर्टेड (जिस घटना की सूचना पुलिस तक नहीं पहुंचती) रह जाते हैं. अगर सिर्फ सरकारी आंकड़ों की बात करें तो साल 2009 से लेकर 2014 तक अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है. और, ये तब हो रहा है, जब इस देश में अनुसूचित जाति/जनजाति के खिलाफ होने वाले अपराध के मामलों में कड़े कानून और सजा के प्रावधान हैं. सवाल ये है कि आखिर क्या वजह है कि कड़े कानून होने के बाद भी समाज के इस कमजोर तबके के खिलाफ अपराधों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही हैै?
अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के खिलाफ होने वाले अपराध का चरित्र राष्ट्रव्यापी है. यानी, असम से लेकर राजस्थान और उत्तर प्रदेश से लेकर आंध्र प्रदेश तक दलितों पर अत्याचार होता है. देश का कोई भी राज्य इससे अछूता नहीं है. पिछले पांच वर्षों ( 2009 से लेकर 2014 तक) के दौरान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ होने वाले अपराधों में 118 फीसद की वृद्धि हुई है. ये आंकड़े नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के हैं. दलितों के खिलाफ होने वाली हिंसा का शिक्षा और समृद्धि से भी कोई संबंध नहीं है. ऐसा नहीं है कि कोई राज्य अगर अधिक शिक्षित या समृद्ध है, तो वहां दलितों के खिलाफ हिंसा नहीं होगी या कम होगी. उदाहरण के लिए देश में उच्च साक्षरता दर और सातवीं सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय वाले केरल में भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ होने वाले अपराध का दर उच्चतम है. 2014 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ सबसे अधिक अपराध उत्तर प्रदेश में (8075), फिर राजस्थान (8028) और बिहार (7893) में दर्ज हुए, जबकि अनुसूचित जनजाति के खिलाफ सर्वाधिक अपराध राजस्थान में (3952) दर्ज किए गए थे और इसके बाद नंबर आता है मध्य प्रदेश (2279) और ओडिशा (1259) का.
भारत की वंचित जातियों और जनजातियों के खिलाफ होने वाली हिंसा से निपटने के लिए कानून की कोई कमी नहीं है. इसके लिए विशेष कानून हैं, जिसमें नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 के अलावा एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) एक्ट 1989 जैसे कानून भी हैं. इसके अलावा, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) है. लेकिन सवाल है कि क्या इन कानूनों का इस्तेमाल कर पाने में ये तबका समर्थ है या क्या उनकी शिकायतों पर उचित कार्रवाई भी होती है? अगर समुचित कार्रवाई होती तो फिर क्या वजह है कि साल दर साल ऐसे अपराधों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है. हालांकि, बेहतर रिपोर्टिंग और एफआईआर दर्ज होने की वजह से भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराधों की बढ़ती संख्या का पता चल रहा है जो पहले नहीं होता था. साल 2009 में जहां एससी के खिलाफ 33,412 अपराध हुए थे, वहीं 2014 में यह बढ़कर 47,064 हो गया. लेकिन अब भी ऐसी खबरें आती हैं कि पुलिस उनके केस दर्ज करने में अनिच्छा दिखाती है.
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक 2014 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ 2233 बलात्कार और 704 हत्या व अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ 925 बलात्कार और 157 हत्या के मामले दर्ज किए गए. लेकिन यहां एक और महत्वपूर्ण सवाल ये है कि ऐसे अपराधों के मामले में कितने मामलों में दोषियों को सजा मिल पाती है? आंकड़ों के मुताबिक अन्य अपराधों के मुकाबले अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के खिलाफ होने वाले अपराधों में कम से कम अभियुक्तों को दोषी करार दिया जाता है और उन्हें सजा मिल पाती है. आईपीसी के सभी मामलों में जहां सजा मिलने की दर 45 फीसदी है, वहीं इसकी तुलना में, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ होने वाले अपराध के मामलों में सजा की दर महज 28 फीसदी ही है. जाहिर है, जब अपराधियों के मन में सजा का भय ही न होगा तो अपराध तो होंगे ही.
दलित-आदिवासियों के ख़िलाफ़ हिंसा : इतने क़ानून फिर भी क्यों बढ़ते जा रहे हैं अपराध
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