बिहार के सियासी गलियारों में इन दिनों एक नए समीकरण वाली सरकार की चर्चाओं का बाजार काफी गर्म है. ऐसे तो, जब नीतीश कुमार तीसरी बार मुख्यमंत्री बने उसी दिन से यह बात चर्चा में आ गई कि यह सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगी और जल्द ही बिहार में एक नए समीकरण वाली सरकार बन जाएगी. लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो महागठबंधन की सरकार ने इन चर्चाओं पर विराम लगाते हुए मजबूती से अपना पहला साल पूरा किया.
गठबंधन सरकार ने यह संदेश भी दिया कि महागठबंधन बेमेल नहीं है, बल्कि यह काफी आगे तक जाने वाला सत्ता समीकरण है. लेकिन इधर हाल की कुछ राजनीतिक घटनाओं ने वैकल्पिक सरकार की चर्चाओं को एक बार फिर हवा दे दी है. चर्चाओं के बाजार से जो एक और बात सामने आ रही है, वो यह कि पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से बिहार की राजनीति बहुत प्रभावित होगी. अगर ये परिणाम भाजपा के खिलाफ गए, तो यहां दो तरह की संभावनाएं जन्म लेंगी.
पहला, जिसे ज्यादा लोग मानते हैं कि मौजूदा महागठबंधन की सरकार और मजबूती से चलेगी, जबकि दूसरी चर्चा यह है कि चूंकि इन चुनावों से नीतीश कुमार ने किनारा कर लिया है, इसलिए लालू प्रसाद अपनी तमाम राजनीतिक ताकत और अनुभवों का उपयोग करते हुए राजद के नेतृत्व में बिहार में एक वैकल्पिक सरकार देने की कोशिश करेंगे.
लेकिन अगर चुनावी फैसले मोटे तौर पर भाजपा के पाले में चले गए, खासकर अगर भाजपा यूपी में सरकार बनाने में सफल हो गई, तो बिहार एक बार फिर से एक नए राजनीतिक प्रयोग का गवाह बन सकता है. चर्चाओं पर गौर करें, तो कहा जा सकता है कि राज्य में एक बार फिर भाजपा व जदयू गठबंधन वाली सरकार बन सकती है.
राजनीतिक चर्चाओं में जिन विकल्पों पर बात हो रही है, उन्हें सूबे में चल रही राजनीतिक गतिविधियों से जोड़कर इसकी गंभीरता का आंकलन करना ठीक रहेगा, ताकि पता चल सके कि इन चर्चाओं में दम है भी या नहीं. बात लालू यादव से ही शुरू करते हैं. वैसे तो लालू यादव अपने दोनों बेटे तेजप्रताप और तेजस्वी की राजनीतिक हैसियत बढ़ाने में सक्रिय हैं, लेकिन तेजस्वी से इन्हें कुछ ज्यादा ही उम्मीदें हैं.
यूपी में अखिलेश यादव का कद और रूतबा जिस तरह ब़ढा है, उसे देखकर लालू यादव प्रभावित हैं. यह बात अब किसी से छिपी भी नहीं है कि लालू यादव की दिली इच्छा है कि तेजस्वी को बिहार में नंबर एक की कुर्सी पर बैठा दिया जाए. यह कैसे संभव हो इसके लिए लालू यादव पहले दिन से ही माहौल बनाने और सही मौके के इंतजार में जुटे हुए हैं.
सार्वजनिक तौर पर भले ही वह कई बार नीतीश कुमार को दही का टीका लगा चुके हैं, पर अंदराखाने यह कोशिश है कि तेजस्वी को नंबर एक बना दिया जाए. लेकिन इसमें सबसे बड़ी दिक्कत कांग्रेस को लेकर आ रही थी. राहुल गांधी से लालू के रिश्ते कितने कड़वाहट भरे हो गए थेे इसे सभी जानते हैं, लेकिन राजनीति के माहिर खिलाड़ी लालू यादव ने हाल के दिनों में कई मुद्दों पर सोनिया गांधी का जमकर पक्ष लिया.
इससे राजनीतिक हवा काफी बदली है. इधर यूपी में कांग्रेस और सपा के गठबंधन को अमलीजामा पहनाने में भी लालू यादव सक्रिय रहे. सपा में जब पारिवारिक कलह चरम पर था, तब ऐसा कोई दिन नहीं बीत रहा था जब वह अखिलेश और मुलायम सिंह से बात नहीं कर रहे थे. लालू यादव का आंकलन है कि यूपी में सपा और कांग्रेस की सरकार बननी चाहिए. अगर वाकई में ऐसा हुआ, तो लालू यादव बिहार के सियासी शतरंज में अपनी बिसात बिछाना शुरू कर देंगे.
चर्चाओं पर भरोसा करें तो लालू यादव ने अपने दूतों के जरिए कुछ छोटी पार्टियों और दूसरे दलों के अपने समर्थक विधायकों सें संपर्क साधना शुरू कर दिया है. मौजूदा विधानसभा का अंकगणित भी लालू प्रसाद का हौसला बढ़ा रहा है. मौजूदा विधानसभा में राजद के 80, कांग्रेस के 27 और निर्दलीय चार विधायक हैं. लालू यादव जिस रणनीति के तहत आगे बढ़ना चाहते हैं, उसके अनुसार राजद, कांग्रेस और निर्दलीय विधायकों को मिलाकर उनके पास 111 विधायक हैं.
बहुमत के लिए 12 विधायकों की जरूरत पड़ेगी, जिसे लालू यादव दो रास्तों से पूरा करने की कोशिश कर सकते हैं. लालू यादव का अनुमान है कि यूपी में चुनाव हारने के बाद भाजपा के सहयोगी दलों का मोह नरेंद्र मोदी के प्रति कम हो जाएगा. ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी और रामविलास पासवान का झुकाव भी नई सरकार के गठन में हो सकता है.
अब यह बात भी छुपी हुई नहीं हैं कि चाहे वह रामविलास पासवान हों या फिर उपेंद्र कुशवाहा, इन दोनों मंत्रियों को दिल्ली में बहुत आजादी नहीं दी गई है. उल्लेखनीय है कि बिहार विधानसभा में लोजपा के दो, रालोसपा के दो और हम के एक विधायक हैं. माले के तीन विधायकों को नई सरकार को बाहर से समर्थन देने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. सहयोगी दलों ने अगर अभी हां नहीं कहा है, तो न भी नहीं कहा है. सभी यूपी के चुनाव नतीजों का इंतजार कर रहे हैं.
जोड़तोड़ के माहिर खिलाड़ी लालू यादव ने प्लान बी भी तैयार कर रखा है. सभी दलों में लालू यादव के कई समर्थक विधायक हैं. अगर भाजपा के सहयोगी दल नहीं माने, तो लालू यादव दूसरे दलों के अपने 15 समर्थक विधायकों का इस्तीफा भी उन्हें नई सरकार में मंत्री बनाने की शर्त पर करा सकते हैं. यह बिहार के लिए कोई नई घटना भी नहीं होगी.
हालांकि, जब सत्ता परिवर्तन की बिसात बिछती है, तो दूसरी तरफ का खिलाड़ी भी अपनी चाल चलता है. लालू यादव की राजनीति के रग-रग से वाकिफ नीतीश कुमार भी चुप नहीं बैठे हैं. हाल के दिनों में नीतीश कुमार के कुछ फैसलों और बयानों ने साफ संकेत दिया है कि आज की तारीख में भाजपा के प्रति इनके दिल मेंबहुत कटुता नहीं है.
नरेंद्र मोदी के प्रति नीतीश कुमार की आक्रामकता भी पहले से कम हुई है. तमाम कयासों को झूठलाते हुए नीतीश कुमार ने नोटबंदी में नरेंद्र मोदी का साथ दिया. यूपी में अपने चुनाव अभियान को विराम देकर भी नीतीश कुमार ने यह आभास कराया कि इनका दिल बदल रहा है. बिहार के सियासी गलियारों में यह चर्चा है कि बिहार में एक बार फिर भाजपा और जदयू का गठबंधन हो सकता है. बस सही वक्त का इंतजार हो रहा है.
गौरतलब है कि मौजूदा विधानसभा में जदयू के 71 और भाजपा के 53 विधायक हैं. इसमें अगर निर्दलीय और सहयोगी दलों के विधायकों को भी साथ कर लिया जाए, तो नीतीश कुमार के पास 133 विधायक हो जाएंगे, जो बहुमत से ज्यादा का आंकड़ा होगा. जानकार बताते हैं कि भाजपा के प्रति नीतीश कुमार की नरमी यूं ही नहीं है. इससे नीतीश कुमार एक तीर से कई शिकार कर रहे हैं. पहला शिकार तो लालू यादव ही हैं. नीतीश कुमार अच्छी तरह जानते हैं कि केवल भाजपा का भूत ही लालू यादव की राजनीतिक और प्रशासनिक महत्वाकांक्षाओं को काबू में रख सकता है.
अभी हाल में ही राजद के दो मजबूत नेता बूलो मंडल और सुरेंद्र यादव ने यह ऐलान कर सनसनी फैला दी कि राजद के लाखों लाख कार्यकर्ता और बिहार की जनता तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहती है. इस तरह की बयानबाजी राजद की ओर से अक्सर होती रहती है. रघुवंश सिंह जैसे वरिष्ठ राजद नेता भी बार-बार नीतीश सरकार के कामकाज पर सवाल उठाते रहते हैं. नीतीश कुमार इन बयानों पर भले ही सार्वजनिक तौर पर कुछ नहीं बोलते हैं, लेकिन अंदर ही अंदर इनका होमवर्क जारी रहता है.
जहां तक भाजपा का सवाल है, तो पार्टी के ज्यादातर नेता चाहते हैं कि सूबे में एक बार फिर जदयू के साथ गठबंधन कर सरकार बनाई जाए. इसकी सबसे बड़ी वजह 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव को बताई जा रही है. जानकारों की राय है कि अगर मौजूदा महागठबंधन बना रहा, तो फिर एनडीए के लिए 2019 में 10 का आंकड़ा पार करना भी मुश्किल हो जाएगा. फिलहाल नरेंद्र मोदी का जादू उतार पर है और दूसरी तरफ महागठबंधन का सामाजिक समीकरण रोज मजबूत हो रहा है.
अगर समय रहते भाजपा ने महागठबंधन में सेंध नहीं लगाया, तो आने वाला वक्त भाजपा के लिए मुश्किल भरा हो सकता है. नरेंद्र मोदी ने प्रकाश पर्व में जिस तरह से नीतीश कुमार को तवज्जो दिया, इससे भी साफ है कि दोनों नेताओं के रिश्ते बहुत तेजी से सुधर रहे हैं. एक अन्य घटनाकम्र में नीतीश कुमार ने अपने विश्वासी संजय झा को दिल्ली में पार्टी के कार्य का जिम्मा दे दिया है. संजय झा इन दिनों अपना ज्यादा वक्त दिल्ली में ही बिता रहे हैं. भाजपा के शीर्ष नेताओं के साथ संजय झा की नजदीकियां सभी जानते हैं.
इधर कांग्रेस चाहती है कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में राहुल गांधी के नाम का सार्वजनिक तौर पर समर्थन करें. लेकिन जो लोग नीतीश कुमार को जानते हैं, उन्हें पता है कि दबाव में कोई फैसला लेना नीतीश कुमार की फितरत नहीं है. नीतीश कुमार के रुख को लेकर कांग्रेस बैचेन है. 2019 का समर नजदीक आ रहा है. ऐसे में अगर राहुल गांधी को लेकर बिहार में कोई भ्रम की स्थिति बनती है, तो इसके नुकसान का अंदाजा लगाना सहज है.
इसलिए बिहार के सभी सियासी दलों को 11 मार्च को आने वाले चुनाव नतीजों का बहुत ही बेसब्री से इंतजार है. अब कोई भी सियासी खिलाड़ी सत्ता परिवर्तन की बिसात पर अपनी चाल 11 मार्च के बाद ही चलेगा. हालांकि इस बीच सियासी गलियारों में सत्ता परिवर्तन के बादल और घने होंगे.