केवल कश्मीर ही नहीं, पाकिस्तान के मामले में भी वाजपेयी ने कई ठोस कदम उठाए थे. उन्होंने श्रीनगर में पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने के साथ-साथ ज़मीनी सतह पर भी कई क़दम उठाए थे. जनवरी 2004 में वाजपेयी सार्क शिखर सम्मलेन में हिस्सा लेने पाकिस्तान गए. उस वक्त उनको सख्त आलोचना का सामना करना पड़ा था. आलोचकों ने उन्हें कारगिल युद्ध और संसद हमले की पृष्ठभूमि में पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध बेहतर करने की उनकी कोशिशों को निशाना बनाया था. वाजपेयी के पाकिस्तान दौरे के मौके पर उनके और उस वक्त के पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ के बीच मुलाक़ात में दोनों देशों के बीच व्यापक बातचीत शुरू करने का फैसला किया गया था. बातचीत के मुद्दों में कश्मीर समेत 8 मुद्दे रखे गए, जिनमें शांति और सुरक्षा, विश्वास बहाली, सियाचिन, सर क्रीक, वेलर बैराज, आतंकवाद और ड्रग ट्रैफिकिंग जैसे मुद्दे शामिल थे.
यह बात बिना झिझक कही जा सकती है कि अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के एक मात्र नेता थे, जिनके लिए कश्मीरियों के दिलों में मुहब्बत और एहतराम था और जिन पर कश्मीरी सामान्य रूप से भरोसा करते हैं. यही कारण है कि अटल जी की मौत की खबर सुनकर घाटी में हर तरह की सोच वाले लोगों ने उन्हें अच्छे शब्दों में याद किया और श्रद्धांजलि पेश की. हालांकि सोशल मीडिया पर बहस भी छिड़ गई कि क्या अटल जी ने प्रधानमंत्री की हैसियत से वास्तव में कश्मीर समस्या के समाधान की संजीदा कोशिश की थी या वे कोशिशें केवल दिखावा थीं.
बहरहाल, हकीकत यह है कि अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री की हैसियत से न केवल कश्मीर समस्या के समाधान की कोशिश की, बल्कि उन्होंने पाकिस्तान के साथ भी अच्छे सम्बन्ध बनाने लिए कई क़दम उठाए. इन सच्चाइयों को झुठलाया नहीं जा सकता है. घाटी में लोग अटल बिहारी वाजपेयी को अप्रैल 2003 से जानते हैं, जब वे प्रधानमंत्री की हैसियत से श्रीनगर के दौरे पर आए थे. 1989 में मिलिटेंसी की शुरुआत के बाद वे पहले प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने श्रीनगर का दौरा किया था. उस समय मुफ़्ती मुहम्मद सईद मुख्यमंत्री थे.
अटल बिहारी वाजपयी ने श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर स्टेडियम में एक आम सभा को संबोधित किया था. उन्होंने अपने खास अंदाज़ में एक-एक शब्द चुन-चुन कर इस्तेमाल किया. वे कश्मीरियों का दिल जीतने आए थे, जिसमें वे कामयाब हुए. 12 मिनट के अपने भाषण में उन्होंने 12 से अधिक बार बातचीत का शब्द दुहराया था. दरअसल, वे कश्मीरियों को यकीन दिलाना चाहते थे कि कश्मीर समस्या का समाधान बातचीत के जरिए ही हो सकता है और उनकी सरकार बातचीत के लिए तैयार है.
श्रीनगर के अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा था, यह समस्या का समाधान बंदूक से नहीं, बल्कि बातचीत और आपसी सुलह सफाई से होगा. मेरा मानना है कि बंदूक समस्या का समाधान नहीं है. कश्मीरियों के लिए सिर्फ हमारे दरवाज़े ही नहीं, बल्कि दिल भी खुले हुए हैं. इतना ही नहीं, उस भाषण में उन्होंने पाकिस्तान का ज़िक्र करते हुए पाकिस्तानी सरकार की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया था. कुछ ही घंटों बाद पाकिस्तान के तत्कालीन शासक जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने वाजपयी की पेशकश का सकारात्मक जवाब दिया. इस तरह 12 मिनट के भाषण में वाजपयी ने न केवल हुर्रियत के साथ बातचीत का रास्ता खोल दिया, बल्कि पाकिस्तान के साथ बेहतर सम्बन्धों की बुनियाद भी रखी.
हालांकि चार साल पहले ही कारगिल युद्ध समाप्त हुआ था और केवल दो साल पहले संसद पर हमला हुआ था. यानि यह एक ऐसा वक्त था, जिसमें कोई भारतीय नेता पाकिस्तान के साथ बातचीत की बात कर ही नहीं सकता था. लेकिन वे वास्तव में एक बहादुर और दूरदर्शी नेता थे. वे जानते थे कि बातचीत से ही हालात सुधर सकते हैं और समस्याओं का समाधान हो सकता है. उनकी सोच इतनी साफ़ और दो टूक थी कि जब घाटी में पत्रकारों ने उनसे पूछा कि उन्होंने हुर्रियत को बीतचीत की जो पेशकश की है, क्या वो बातचीत भारत के संविधान के दायरे में होगी? कोई और नेता होता, तो वो हड़बड़ाता या जवाब में कुछ ऐसा कह जाता, जो बहस का मुद्दा बन जाता. वाजपेयी का जवाब था कि बातचीत इंसानियत के दायरे में रह कर होगी.
वाजपेयी ने श्रीनगर में केवल रस्मी बात नहीं की थी, बल्कि वापस दिल्ली आकर संसद को संबोधित करते हुए भी उन्होंने कहा था कि वे कश्मीरियों के साथ बातचीत के जरिए समस्या के समाधान का वादा कर आए हैं. उन्होंने संसद को बताया कि वे इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत के सिद्धांत पर बातचीत करेंगे और समस्या का समाधान तलाश करेंगे. उसके एक हफ्ते बाद मीरवाइज़ मौलवी उमर फ़ारूक़ की अगुवाई में हुर्रियत का एक प्रतिनिधिमंडल दिल्ली पहुंचा था.
दिल्ली में हुर्रियत नेताओं की वाजपायी और एल के अडवाणी से मुलाक़ात हुई. वाजपेयी को श्रद्धांजलि देते हुए आज मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ कहते हैं कि वाजपेयी एक मात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने कश्मीर के नासूर को ठीक करने की कोशिश की थी. एक अन्य हुर्रियत नेता प्रोफेसर अब्दुल गनी बट ने चौथी दुनिया को बताया कि यदि भाजपा 2004 में चुनाव नहीं हारती और वाजपेयी दोबारा प्रधानमंत्री बन गए होते, तो कश्मीर का मसला हल हो गया होता.
केवल कश्मीर ही नहीं, पाकिस्तान के मामले में भी वाजपेयी ने कई ठोस कदम उठाए थे. उन्होंने श्रीनगर में पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने के साथ-साथ ज़मीनी सतह पर भी कई क़दम उठाए थे. जनवरी 2004 में वाजपेयी सार्क शिखर सम्मलेन में हिस्सा लेने पाकिस्तान गए. उस वक्त उनको सख्त आलोचना का सामना करना पड़ा था. आलोचकों ने उन्हें कारगिल युद्ध और संसद हमले की पृष्ठभूमि में पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध बेहतर करने की उनकी कोशिशों को निशाना बनाया था. वाजपेयी के पाकिस्तान दौरे के मौके पर उनके और उस वक्त के पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ के बीच मुलाक़ात में दोनों देशों के बीच व्यापक बातचीत शुरू करने का फैसला किया गया था. बातचीत के मुद्दों में कश्मीर समेत 8 मुद्दे रखे गए, जिनमें शांति और सुरक्षा, विश्वास बहाली, सियाचिन, सर क्रीक, वेलर बैराज, आतंकवाद और ड्रग ट्रैफिकिंग जैसे मुद्दे शामिल थे.
बातचीत शुरू होने के बाद दोनों देश के बीच आम लोगों में भी आदान-प्रदान शुरू हो गया. उस बातचीत के नतीजे में विभाजित कश्मीर के दोनों हिस्सों यानि भारत प्रशासित कश्मीर और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के बीच 57 साल बाद बस सेवा शुरू हुई. पहली बार जबरन बंटवारे के शिकार हुए लोगों को बिना पासपोर्ट आर वीजा के अपने रिश्तेदारों से मिलने का मौक़ा मिला. भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत के नतीजे में लाहौर-अमृतसर बस सेवा एक बार फिर शुरू हो गई. राजस्थान-सिंध और दिल्ली-लाहौर ट्रेन सेवा बहाल हुई. दोनों देश के बीच साप्ताहिक उड़ानों की संख्या 12 से बढ़ा कर 28 कर दी गईं. एलओसी पर भारत और पाकिस्तान के बीच पहली बार सीजफायर का समझौता हुआ.
बहरहाल, कश्मीर मसला हल तो नहीं हुआ और न ही भारत पाकिस्तान सम्बन्धों में एक हद से अधिक बेहतरी आ सकी, इसके अलग कारण हैं, लेकिन तारीख हमेशा यह याद दिलाती रहेगी कि वाजपयी ने अपने कार्यकाल में अपनी तरफ से भरपूर कोशिशें की थीं. यही वजह है कि वे भारत के अविवादित नेता के तौर पर याद किए जाते हैं. कम से कम यह बात बिना किसी खौफ और लागलपेट के कही जा सकती है कि अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के एक मात्र नेता हैं, जिनके लिए कश्मीरियों के दिलों में इज्जत भी है और भरोसा भी.