माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 11 अप्रैल 2008 को अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारतीय संघ के मामले में जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए ऐतिहासिक ़फैसला दिया. यह याचिका उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 फीसदी आरक्षण के सरकारी आदेश के ख़िला़फ दायर की गई थी. याचिका में कॉन्स्टिट्यूशन (93 वां संशोधन) एक्ट, 2005 और अन्य पिछड़े वर्ग का आरक्षण लागू करने वाले केंद्रीय शिक्षण संस्थान (दाखिले में आरक्षण) एक्ट ़ 2006 (2007 के एक्ट 5) को चुनौती दी गई थी.
कॉन्स्टिट्यूशन (93 वां संशोधन) एक्ट, 2005 द्वारा जोड़े गए अनुच्छेद 15(5) में कहा गया है-
अनुच्छेद 19 के नियम (1) का उपनियम (ज), सरकार को सामाजिक और शैक्षिक तौर से पिछड़े वर्ग या अनुसूचित जाति या जनजाति के लिए ऐसा कोई विशेष क़ानूनी प्रावधान करने से नहीं रोक सकता, जब तक कि वह प्रावधान उच्च शिक्षा संस्थानों, जिनमें अनुच्छेद 30 (1) में उल्लिखित निजी संस्थान भी शामिल हैं, में दाखिले से संबंधित हो.
इस क़ानून के सेक्शन 3 में, केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जातियों के लिए 15 फीसदी, अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5 फीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था दी गई. यह सरकारी अनुदान से चल रहे ऐसे संस्थान थे, जिन्हें इसी क़ानून के सेक्शन 2(डी) में पारिभाषित किया गया था. विभिन्न वर्गों को दिए गए आरक्षण का प्रतिशत इन संस्थानों की वार्षिक क्षमता के संदर्भ में था. क़ानून के सेक्शन 5 में यह निर्देश था कि केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में आरक्षण मुहैया कराने के लिए आनुपातिक रूप से सीटों में बढ़ोतरी की जाए.
जहां किसी याचिकाकर्ता ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण का विरोध नहीं किया था, वहीं अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण का कई याचिकाकर्ताओं ने विरोध किया था.
माननीय सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की एक खंडपीठ ने क्रीमीलेयर को हटाकर अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के पक्ष में निर्णय दिया. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि – आरक्षण उन उपायों में से एक है जिसके ज़रिए समानता के सिद्धांत को सुरक्षा और बढ़ावा दिया जाता है, ताकि पिछड़े वर्ग भी सामाजिक व्यवस्था के ऊपरी स्तर पर लाए जा सकें…यह राज्य का कर्तव्य है कि वह असमानता को ख़त्म करने के लिए सकारात्मक उपाय करे. आरक्षण, उच्च शिक्षा का सपना देखने वाले लेकिन उस तक नहीं पहुंच पाने वाले लोगों के लिए, एक लाभकारी व्यवस्था है. यह लाभ ज़रूरी भी है. हालांकि, इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऐसा कोई भी आरक्षण किसी और तरह के भेदभाव को बढ़ावा न दे.
संविधान का सर्वोच्च उद्देश्य है कि किसी व्यक्ति के साथ जाति के आधार पर भेदभाव न हो. इसके लिए दी गई सकारात्मक ़उपायों की व्यवस्था  संवैधानिक व्यवस्था के तहत सामाजिक न्याय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. हालांकि, सकारात्मक उपायों के बीच यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि इस तरह के उपायों से सामाजिक समानता के सिद्धांतों या अन्य मौलिक स्वतंत्रताओं या संविधान के मूल तत्व से छेड़छाड़ नहीं होती हो. इस बात पर यह कहने की कोई ज़रूरत नहीं कि व्यक्तिगत अधिकार, सामाजिक अधिकारों से अधिक महत्वपूर्ण हैं. सभी मौलिक अधिकारों को एक साथ देखना ज़रूरी है – जातिगत आधार पर विभाजन कालांतर में ख़तरनाक हो सकता है. इसलिए इसके पीछे की तार्किकता के परीक्षण का बेहद ज़रूरी है. जब उद्देश्य जाति व्यवस्था का ख़ात्मा और एक जातिरहित समाज और जातिगत भेदभाव से मुक्त समाज हो, तब कुछ सीमाओं के अंदर न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था से इंकार नहीं किया जा सकता. अगर आरक्षण सफल नहीं होता है तो दूसरे तरीक़े भी ढूंढे जा सकते हैं. सामाजिक सशक्तीकरण महज़ सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए ही नहीं है, सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए भी है. इस विषय में एक संतुलन क़ायम करना महत्वपूर्ण है.
एक जातिविहीन समाज किसी महान सपने के सच होने जैसा होगा. संविधान में न तो जातिविहीन समाज की व्यवस्था दी गई है और न ही जातियों को ख़त्म करने की कोई कोशिश की गई है. लेकिन जाति के नाम पर भेदभाव को ग़लत ठहरा कर और उसके ख़िला़फ सकारात्मक उपायों की व्यवस्था देकर संविधान जाति-आधारित अंतर को ख़त्म करने की कोशिश करता है. जब जाति-आधारित भेदभाव ख़त्म हो जाएगा तो सभी जातियां बराबर हो जाएंगी- जो एक लोकहितकारी समाज की शुरुआत होगी.
जाति-आधारित आरक्षण के तात्कालिक असर बहुत दुर्भाग्यपूर्ण रहे हैं. आरक्षण के बाद देखा गया है कि अगड़ी जातियां भी पिछड़ी बनने की कोशिश में लग गईं. जब अधिक से अधिक लोग ख़ुद कोे पिछड़ा कहने लगें तो देश अपने आप पिछड़ जाएगा. अगर जाति-आधारित आरक्षण की समीक्षा नहीं हुई तो जल्द ही देश स्थायी तौर पर जातियों में विभाजित हो जाएगा. विविधता में एकता वाले समाज के बजाय, हम एक-दूसरे पर शक़ करने वाले एक खंडित समाज का हिस्सा हो जाएंगे. जहां सकारात्मक उपायों में ही समानता की राह है, वहीं यह भी ध्यान रखा जाना ज़रूरी है कि यह राह ऐसी न हो जाए जिसमें विकास की गाड़ी अटक जाए. आरक्षण एक अस्थायी व्यवस्था है और इसे स्थायी ज़िम्मेदारी नहीं बनना चाहिए.
सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि भारतीय संघ को यह सही संदर्भों में समझना चाहिए कि सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन का असली कारण ग़रीबी है.  इस मूल समस्या को ख़त्म करने के हरसंभव प्रयास होने चाहिए. आरक्षण ने ग़लत संदेश भेजा है, जिससे सभी पिछड़ेपन का दर्जा चाहने लगे हैं. अगर हम सही मायनों में सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों क ा भला करना चाहते हैं तो हमें अनुच्छेद 21(अ) को पूरी तरह से लागू करने पर ध्यान देना होगा, जिसके मुताबिक-राज्य को छह से चौदह साल तक के सभी बच्चों को मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा मुहैया करानी होगी. हमें शिक्षा के अवसर पहले दिन से ही मुहैया कराने होंगे. तभी जातिविहीन-वर्गविहीन समाज का सपना पूरा हो सकता है. जब छात्र कॉलेज जाने की उम्र में पहुंच चुके होते हैं, तब तक आरक्षण के असर के लिए काफी देर हो चुकी होती है. सबसे महत्वपूर्ण मूल अधिकार अनुच्छेद 21-अ है,  जिसको लागू करना देश के हित में सर्वोपरि है. शिक्षा सभी अधिकारों में सबसे महत्वपूर्ण है, क्योंकि अधिकारों को समझने की प्रवृत्ति शिक्षा से ही आती है. इसीलिए यह ज़रूरी है कि मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा पर सरकारी ख़र्चे पर न्यायपालिका नज़र रखे. सरकार को शिक्षा के लिए बजट आवंटन फिर से तय करना चाहिए और अपनी असल प्राथमिकताओं का खाका खींचना चाहिए.
राज्य अनुच्छेद 21(अ) के तहत मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा देने को बाध्य है. इस को लागू करने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा वही है जिसे हम सज़ा के साथ उपहार के तरीक़े के नाम से जानते हैं.
2007 के एक्ट 5 को क्रीमी लेयर को बाहर रखने की शर्त पर संवैधानिक रूप से वैध करार दिया गया है. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद अन्य पिछड़े वर्गों का आरक्षण एक वास्तविकता है, लेकिन अब व़क्त आ गया है कि हम सामाजिक विकास में आरक्षण के महत्व को समझें और सामाजिक न्याय के समर्थन में ख़ुद को खड़ा करें.
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं )

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