उत्तर प्रदेश का नागरिक उड्डयन निदेशालय लंबे अर्से से भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और संदेहास्पद गतिविधियों का अड्डा रहा है. प्रदेश के मुख्यमंत्री ही इस विभाग के मुखिया होते रहे हैं. सरकारी हवाई जहाज और हेलीकॉप्टरों पर सारी तफरीहें होती हैं, लिहाजा कोई भी मुख्यमंत्री उड्डयन विभाग की करतूतों पर चुप्पी साधे रहता है और अफसर मौज करता रहता है.
उत्तर प्रदेश के सरकारी विमान से सेना की जासूसी होती है! संवेदनशील सैन्य क्षेत्र की सरकारी विमान से वीडियोग्राफी कराई जाती है! यह कितनी हैरत करने वाली बात है! इस मामले की सीबीआई से जांच की मांग की जा रही है, लेकिन कोई सुनता ही नहीं. यूपी सरकार के लिए विमानों और हेलीकॉप्टरों की खरीद-बिक्री में हुए हजारों करोड़ के घोटाले की भी केंद्रीय जांच एजेंसी से छानबीन कराए जाने की मांग हो रही है. सीबीआई से जांच कराने की संवैधानिक जिद किसी नागरिक के लिए बहुत भारी पड़ रही है. सरकार उससे नाराज, सम्बद्ध महकमा उससे नाराज, प्रशासन उससे नाराज और अदालत भी उससे नाराज. सरकार और सम्बद्ध विभागों की नाराजगी तो जाहिर है, लेकिन अदालत की नाराजगी का क्या मतलब है? अदालत का औचित्य दूध और पानी के घालमेल को अलग-अलग करने में है, पर यूपी में यह औचित्य साबित नहीं हो रहा. अगर किसी मामले की जांच चल रही हो तो देश की सर्वोच्च अदालत भी उसमें हस्तक्षेप नहीं करती, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ भ्रष्टाचार और देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मामले की छानबीन में हस्तक्षेप करने और जांच अधिकारी को आड़ा-तिरछा करने में कतई संकोच नहीं करती. अदालत को इस बात का भी बुरा लग जाता है कि किसी नागरिक ने जज और भाड़े के सरकारी वकील की शिकायत सर्वोच्च न्यायाधीश, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से क्यों कर दी और प्रधानमंत्री के आदेश पर गृह मंत्रालय ने मामले की जांच क्यों शुरू कर दी.
उत्तर प्रदेश का नागरिक उड्डयन निदेशालय लंबे अर्से से भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और संदेहास्पद गतिविधियों का अड्डा रहा है. प्रदेश के मुख्यमंत्री ही इस विभाग के मुखिया होते रहे हैं. सरकारी हवाई जहाज और हेलीकॉप्टरों पर सारी तफरीहें होती हैं, लिहाजा कोई भी मुख्यमंत्री उड्डयन विभाग की करतूतों पर चुप्पी साधे रहता है और अफसर मौज करता रहता है. मुलायम-मायावती-अखिलेश काल में तो नागरिक उड्डयन महकमे का कबाड़ा ही निकल गया. अब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने नागरिक उड्डयन की टोपी नंदगोपाल नंदी को पहना दी है. मंत्री कोई भी हो, सच यही है कि संत-काल में भी पुराने पापी ही योगी का पुण्य भोग रहे हैं. जिस प्रसंग में यह खबर लिखी जा रही है, वह लंबे समय से चले आ रहे क्रमिक-घोटाले और देश-विरोधी हरकतों का धारावाहिक है. इस प्रसंग को दफ्न करने की तमाम असंवैधानिक कोशिशें होती चली आ रही हैं, लेकिन लोकतांत्रिक प्रयासों से वह उतना ही सुगबुगा कर बाहर आ जाता है और प्रासंगिक बना रहता है.
उत्तर प्रदेश नागरिक उड्डयन महकमे के घोटाले, सरकारी विमान से सेना की जासूसी और अफसरों की देश-विरोधी हरकतों पर हम बाद में तफसील से चर्चा करेंगे, पहले हम यह देखते हैं कि इस मामले में किस तरह परस्पर विरोधाभासी सरकारी दलीलें दी गईं, झूठे तथ्य रखे गए, किस तरह उन झूठे तथ्यों पर अदालत ने मुहर लगाई और किस तरह पूरे मामले को कानून की गुत्थियों में फेंट कर रख दिया गया ताकि यह मामला कभी न सुलझे. शासन से लेकर अदालत तक, किसी ने भी निष्पक्ष जांच के जरिए असली सच जानने की कोशिश नहीं की. उसे ढंकने की ही कोशिश की. घोटालों को उजागर करने के कारण ही उड्डयन निदेशालय के कर्मचारी देवेंद्र कुमार दीक्षित को नौकरी से निकाल बाहर किया गया. अदालत ने यह माना कि दीक्षित के खिलाफ लगाए गए आरोपों को औपचारिक तौर पर दर्ज किए बगैर उन्हें निकाला गया. फिलहाल यह मामला अदालत में लंबित है. उसी कर्मचारी ने उड्डयन विभाग के तीन हजार करोड़ के घोटाले और अफसरों की राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के खिलाफ इलाहाबाद की लखनऊ खंडपीठ में याचिका दाखिल कर मामले की सीबीआई से जांच कराने की मांग की थी. अदालत ने महज इस बात पर याचिका खारिज कर दी कि याचिकाकर्ता ने एक अन्य लंबित याचिका के बारे में अदालत को जानकारी क्यों नहीं दी. याचिकाकर्ता ने इस त्रुटि के लिए क्षमा मांगते हुए दोनों याचिकाओं को एक साथ ‘क्लब’ करने की गुहार लगाई लेकिन अदालत ने एक नहीं सुनी. यहां तक कि याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका वापस लेकर उसे दोबारा फाइल करने की भी इजाजत चाही, लेकिन अदालत ने इसकी इजाजत नहीं दी और याचिका खारिज कर दी. उधर, सरकार ने अपनी जांच रिपोर्ट में किसी भी घोटाले और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को सिरे से नकार दिया. याचिकाकर्ता ने अदालत का ध्यान इस तरफ भी दिलाया कि सरकार की जांच रिपोर्ट फर्जी है. शासन स्तर पर ऐसी कोई जांच ही नहीं हुई. कागजी तौर पर जो जांच कमेटी गढ़ी गई, उसमें वही लोग शामिल थे, जिन पर घोटाले में शामिल होने का आरोप है. उन्हीं ‘कोतवालों’ ने अपने और अपने साथियों को बेदाग बता दिया और यह भी लिख दिया कि ऐसी याचिकाएं तो पहले भी दाखिल हुई हैं और खारिज हुई हैं.
दीक्षित के पास शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाने की आर्थिक ताकत नहीं थी, लिहाजा, उन्होंने संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार के तहत एक आम नागरिक की हैसियत से राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री, केंद्रीय कानून मंत्री और इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिख कर याचिका खारिज करने वाले दो जजों एपी शाही और एआर मसूदी की भूमिका की जांच की मांग कर दी.
इस मांग पत्र में उड्डयन निदेशालय के घोटाले और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों की जांच की मांग भी शामिल थी, लेकिन हाईकोर्ट ने उसमें से केवल जजों की शिकायत का प्रसंग उठा लिया और तत्कालीन कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश वीके शुक्ला के आदेश पर लखनऊ खंडपीठ की तरफ से देवेंद्र कुमार दीक्षित पर अदालत की अवमानना का मामला दर्ज कर दिया गया. उधर, दीक्षित ने भाड़े के सरकारी वकील जयदीप नारायण माथुर के खिलाफ जांच के लिए भी प्रधानमंत्री को पत्र लिख दिया था.
प्रधानमंत्री कार्यालय ने दीक्षित के पत्र का संज्ञान लेते हुए गृह मंत्रालय को जरूरी कार्रवाई करने को कहा. गृह मंत्रालय के आदेश पर इंटेलिजेंस ब्यूरो ने मामले की खुफिया जांच शुरू कर दी. इस जांच के सिलसिले में आईबी के अधिकारी एके तिवारी ने जयदीप नारायण माथुर से भी पूछताछ की, लेकिन इसपर हाईकोर्ट को गुस्सा आ गया. जयदीप नारायण माथुर ने अदालत से शिकायत की और कहा कि एके तिवारी ने शिकायत-पत्र के आधार पर छानबीन करने की बात तो कही लेकिन मांगने पर शिकायत-पत्र की प्रति उन्हें नहीं दी. लखनऊ पीठ के जज श्रीनारायण शुक्ल और वीरेंद्र कुमार ने बिना यह जांचे कि एके तिवारी किस जांच एजेंसी के अधिकारी हैं, फौरन यूपी के पुलिस महानिदेशक को तलब कर एके तिवारी को एक अगस्त 2017 को कोर्ट में हाजिर करने को कहा. सूचना मिलने पर एक अगस्त को इंटेलिजेंस ब्यूरो ने अदालत को यह आधिकारिक जानकारी दी कि एके तिवारी यूपी पुलिस के नहीं, बल्कि आईबी के अधिकारी हैं. आईबी ने आधिकारिक तौर पर एके तिवारी के काम को सराहा और बताया कि आईबी का अधिकारी होने के नाते छानबीन के दरम्यान वो अपना परिचय (आईडेंटिटि) बताने के लिए बाध्य नहीं हैं. मामले में आईबी का इन्वॉल्वमेंट देख कर अदालत ने इस मामले को ही बंद (क्लोज) कर दिया. एक अगस्त के अपने फैसले में जजों ने लिखा कि माथुर ने शिकायत पत्र (कम्प्लेंट) की कॉपी कोर्ट में प्रस्तुत की है, लेकिन माथुर से यह नहीं पूछा कि जब आईबी के अधिकारी ने उन्हें कॉपी दी ही नहीं थी तो शिकायत-पत्र की कॉपी उन्हें कहां से मिल गई? देवेंद्र कुमार दीक्षित पर चल रहे अवमानना मामले में कोर्ट के ऑर्डर-शीट की कॉपी भी माथुर ने कोर्ट में पेश की. कोर्ट ने इसका अपने फैसले में भी जिक्र किया, लेकिन माथुर से यह नहीं पूछा कि कंटेम्प्ट का मामला चलने के बारे में उन्हें कैसे पता चला?
बहरहाल, विचित्रताओं का एक और दृश्य साथ-साथ देखते चलें. देवेंद्र कुमार दीक्षित पर चल रहे अवमानना मामले में डिवीजन बेंच के जज अजय लाम्बा और डॉ. विजय लक्ष्मी ने 21 जुलाई 2017 को चार्ज-फ्रेम (अभियोग निर्धारण) करने की तारीख मुकर्रर की थी. उस तारीख को जब दीक्षित कोर्ट पहुंचे और चार्ज-फ्रेम करने को कहा तब कोर्ट ने उन्हें जानकारी दी कि ‘कंटेम्प्ट’ की फाइल सील-कवर में रख दी गई है. कोर्ट ने फाइल सील किए जाने की वजह नहीं बताई और इसे बताने में अपनी असमर्थतता जाहिर की. आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि सूचना के अधिकार के तहत उड्डयन निदेशालय से कुछ जानकारियां मांगने पर निदेशालय ने एक वकील नित्यानंद मणि त्रिपाठी को बताया कि अदालत में चल रहे अवमानना (कंटेम्प्ट) मामले के कारण विभाग कोई सूचना नहीं दे सकता, क्योंकि उस मामले में नागरिक उड्डयन के निदेशक देवेंद्र स्वरूप पक्षकार हैं. सवाल है कि जिस व्यक्ति (वकील) का इस मसले से कोई सरोकार नहीं है, उसे कंटेम्प्ट-केस के बारे में बताने का क्या औचित्य था? और दूसरी गंभीर बात यह है कि अवमानना मामला सीधे कोर्ट की तरफ से दर्ज हुआ है, फिर नागरिक उड्डयन विभाग के निदेशक इसके पक्षकार कैसे हो गए? सवाल यह भी है कि विभिन्न जजों की संदेहास्पद भूमिका की जांच के लिए देवेंद्र कुमार दीक्षित के अलावा किसी प्रीतपाल सिंह ने भी कानून मंत्रालय को पत्र लिखा था और उन दोनों पत्रों पर केंद्र सरकार ने आवश्यक कार्रवाई के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को शासकीय पत्र भेजा था. दीक्षित कहते हैं कि अकेले उनके खिलाफ ही अवमानना का मामला क्यों चलाया गया और उसे अचानक बीच में ही रहस्यमय तरीके से सील क्यों कर दिया गया? इस तरह के कई सवाल हैं और ऐसी कई गुत्थियां हैं, जिनके पेचोखम बहुत ऊंचे स्तर की मिलीभगत और साठगांठ की तरफ इशारा करते हैं. यह साठगांठ सीबीआई जांच के बगैर उजागर नहीं हो सकती, और तंत्र सीबीआई से जांच नहीं होने देने पर आमादा है.
उत्तर प्रदेश सरकार के विमान और हेलीकॉप्टरों की शाहंशाहाना उड़ानों, मेला-महोत्सवों में टैक्सी की तरह अतिथियों को ढोने और विमानों को बेवकूफाना तरीके से उड़ा कर क्षतिग्रस्त करने की तमाम खबरें-शिकायतें आपने सुनी होंगी. लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार के विमानों का इस्तेमाल अपने ही देश के खिलाफ जासूसी के लिए होता हो, सरकारी विमानों से संदेहास्पद महिलाओं का आना-जाना होता हो, विदेशी महिलाओं को हेलीकॉप्टर से सीमा पार कराया जाता हो और इन घटनाओं को लेकर सरकार आधिकारिक तौर पर झूठी सूचना दर्ज कराती हो, यह आम तौर पर नहीं सुना जाता. लेकिन आप सुन लें, यह उत्तर प्रदेश की सरकारी-वैमानिकी की असलियत है.
अदालत में जाने के पहले उत्तर प्रदेश सरकार और नागरिक उड्डयन महानिदेशालय के समक्ष जो गंभीर शिकायत आई थी, सरकार ने उसका संज्ञान नहीं लिया, फिर अदालत ने भी संज्ञान नहीं लिया. हम उसका संज्ञान लेते चलें. शिकायत थी कि सरकारी विमान से कानपुर के संवेदनशील सैन्य क्षेत्र की वीडियो रिकॉर्डिंग की गई. इस वीडियो रिकॉर्डिंग के पीछे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए काम करने वाले तत्व शरीक थे. उड्डयन निदेशालय के फोन से लगातार पाकिस्तान कॉल्स होते रहे और बातें होती रहीं. पाकिस्तान के टेलीफोन नम्बर्स भी दिए गए थे, जहां-जहां उड्डयन निदेशालय के दफ्तर से कॉल्स किए जाते थे. लॉग बुक में औपचारिक इंट्री किए बगैर संदेहास्पद महिलाओं को विमान द्वारा लखनऊ लाया गया और दिल्ली ले जाया गया. बाद में लॉग बुक फर्जी तरीके से भर दिया गया. संदर्भित उड़ान वाले दिन की खाली लॉग बुक की प्रति और बाद में भरे हुए लॉग बुक की प्रतिलिपि भी विभाग को दी गई थी. डॉल्फिन हेलीकॉप्टर से एक अज्ञात विदेशी महिला को नेपाल सीमा तक पहुंचाया गया और विमानों की खरीद में विदेशी कम्पनी के साथ मिलकर खूब घोटाला किया गया. ये सारी बातें सरकार को और बाद में अदालत को बताई गई थीं. इन शिकायतों के परिप्रेक्ष्य में उत्तर प्रदेश सरकार ने बाकायदा यह कह दिया कि जांच कमेटी गठित हुई, जांच हुई और शिकायतें फर्जी पाई गईं. लेकिन सच यह है कि सरकार का यह बयान ही फर्जी है. सरकार अपना ही झूठ भूल गई और सच सरकार के जरिए ही उद्घाटित हो गया. उड्डयन निदेशालय से उड़ान से सम्बन्धित ‘ऑथोराइजेशन रजिस्टर’ मांगा गया तो विभाग ने पहले तो आनाकानी की फिर बाद में कह दिया कि रजिस्टर देवेंद्र कुमार दीक्षित ने गायब कर दिया. विभाग ने कहा कि इसपर दीक्षित के खिलाफ कानपुर के छावनी (कैंट) थाने में एफआईआर भी दर्ज कराई गई थी. जबकि इस बारे में पूछने पर छावनी थाने का आधिकारिक जवाब आया है कि देवेंद्र कुमार दीक्षित के खिलाफ कोई भी मुकदमा दर्ज नहीं है.
अब जबकि सरकार का झूठ खुद ब खुद सामने आ गया तो यह सवाल भी सामने आया कि इतनी गम्भीर शिकायतों को छिपाने या दबाने की प्रदेश सरकार ने कोशिश क्यों की? राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में कहीं बड़े नेता और बड़े नौकरशाह तो शामिल नहीं? जब शिकायतों की जांच ही नहीं हुई तो शिकायतें बेबुनियाद बता कर खारिज कैसे की जा सकती हैं? शिकायतों में दम है कि उत्तर प्रदेश सरकार के विमानों का बेजा इस्तेमाल होता रहा है. चाहे वे राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के लिए होता रहा हो या ऐशो-आराम के लिए. उत्तर प्रदेश सरकार ने औपचारिक रूप से कहा था कि इन शिकायतों की बाकायदा तीन सदस्यीय जांच समिति ने छानबीन की और उसे निराधार पाया. लेकिन कुछ ही अंतराल के बाद सरकार अपना ही जवाब भूल गई. जब दोबारा सरकार से उन शिकायतों का हवाला देते हुए जांच समिति गठित होने का ब्यौरा मांगा गया तो सरकार ने सीधे कहा कि इन शिकायतों की जांच के लिए कोई समिति गठित नहीं की गई थी. लिहाजा, सरकार के इस जवाब से वे सारे सवाल आधारहीन साबित हो गए कि किसके आदेश से जांच समिति गठित हुई, समिति के अध्यक्ष और सदस्य कौन थे और जांच की रिपोर्ट क्या है, वगैरह-वगैरह.
ऐशो-आराम और मौज-मस्ती में सरकारी विमानों के इस्तेमाल का मामला समाजवादी सरकार के सैफई महोत्सव के समय भी उठा था. मुख्यमंत्री अखिलेश इस पर खूब नाराज भी हुए थे लेकिन सैफई महोत्सव समाप्त होने के बाद ही उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सफाई दी थी. जब तक महोत्सव चला तब तक अखिलेश सरकार ठुमके देखने में मस्त रही और जमीन के लोग अपने नेताओं, अफसरों, उनके परिवार के सदस्यों और फिल्मी हस्तियों को लाने-ले जाने में मिनट-मिनट पर आसमान में घर्र-घों कर रहे सरकारी विमान और हेलीकॉप्टरों को देख-देख कर निहाल होते रहे. तब उड़ान-ईंधन पर हुए खर्च को लेकर भी सवाल उठे थे. सरकार के जवाब से यह भी पता चला कि उत्तर प्रदेश सरकार के पास काफी ‘फ्यूल इफिशिएंट’ विमान और हेलीकॉप्टर हैं. तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तब यह ‘सच-सच’ बताया था कि महोत्सव पर पांच-छह करोड़ रुपए से अधिक खर्च नहीं हुए. हालांकि यह आंकड़ा हर बयान के साथ इधर-उधर खिसकता रहा. जब पूरे महोत्सव पर कुल खर्च पांच-छह करोड़ ही आया तो उसी झूठ-गणित से विमानों और हेलीकॉप्टरों की चकरघिन्नियों पर आए खर्च का भी असली हिसाब लगाया जा सकता है. सैफई महोत्सव के दरम्यान सरकारी विमान और हेलीकॉप्टर की उड़ानों पर कितना खर्च आया, सरकार ने नहीं बताया. एक जनवरी 2013 से 31 दिसम्बर 2013 के बीच सरकारी विमानों के ईंधन पर मात्र चार करोड़, 21 लाख, 26 हजार, 448 रुपए का खर्च आने की बात बता कर सरकार कन्नी काट गई. यह भी वैसा ही सच है जिसे कुछ अरसे बाद सरकार खुद ही झूठ बता देती है और एक नया ‘सच’ रच लेती है.
सच आखिर कैसे बाहर निकले? सीबीआई से जांच हो जाती तो सच बाहर आ सकता था. सच जानने के जो संवैधानिक-लोकतांत्रिक तौर-तरीके थे, वे काम नहीं आ रहे. सूचना के अधिकार जैसे हथियार को मायावती और अखिलेश यादव की पूर्ववर्ती सरकारों ने पंगु बना कर रख दिया. योगी के आने के बाद भी कोई विशेष बदलाव नहीं है. विमानों और हेलीकॉप्टरों के आने-जाने का ब्यौरा रखने वाले लॉग बुक और जरनी लॉग बुक को सरकार ने पाइलटों और विमान इंजीनियरों की निजी सम्पत्ति घोषित कर रखा है. सरकार कहती है कि वायुयान और हेलीकॉप्टरों की कहां-कहां यात्रा हुई और कहां-कहां रि-फ्यूलिंग हुई उसका विवरण परिचालन इकाई द्वारा संकलित नहीं किया जाता. दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि बेवकूफाना तरीके से उड़ाने के कारण जो बेशकीमती विमान दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं, उनका ब्यौरा भी आम नागरिक को नहीं मिल पाता. बस इतनी ही जानकारी मिल पाती है कि तीन हवाई जहाज और तीन हेलीकॉप्टर उड़ान के लायक हैं और तीन विमान और एक हेलीकॉप्टर उड़ान के लायक नहीं रहे. उड़ान के लायक क्यों नहीं रहे? इसका कोई जवाब नहीं मिलता.
अभी बाढ़ है तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी सरकारी हेलीकॉप्टर से खूब उड़ान भर रहे हैं और बाढ़ प्रभावित इलाकों का हवाई निरीक्षण कर रहे हैं. लेकिन निवर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को उड़ान का खास शौक था. मुख्यमंत्री सचिवालय की तत्कालीन प्रमुख सचिव अनीता सिंह नागरिक उड्डयन महकमे की भी प्रभारी हुआ करती थीं. वे मुख्यमंत्री अखिलेश से लेकर मुलायम सिंह तक की वैमानिकी-सुविधा का ध्यान रखती थीं. इसी खास सुविधा के इरादे से 90 करोड़ की लागत से बेल-412 हेलीकॉप्टर खरीदा गया था. इस हेलीकॉप्टर की खरीद के लिए अखिलेश ने अनीता सिंह और उड्डयन सचिव एसके रघुवंशी को एयर-शो देखने के लिए खास तौर पर सिंगापुर भेजा था. अखिलेश के पहले मुख्यमंत्री मायावती ने भी वर्ष 2010 में 40 करोड़ का ऑगस्टा हेलीकॉप्टर खरीदा था. लेकिन बेवकूफ पायलटों और खराब रख-रखाव के कारण वह एक ही साल में खराब हो गया. अखिलेश सरकार ने उसकी मरम्मत पर पांच करोड़ रुपए फूंक डाले. हेलीकॉप्टर की मरम्मत के नाम पर ऑगस्टा वेस्टलैंड कंपनी ने प्रदेश सरकार से मनचाही कीमत वसूली थी. मायावती-काल में यूपी सरकार के लिए ऑगस्टा हेलीकॉप्टर खरीदने में कोई कमीशन नहीं लिया गया होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता. सनद रहे, यह वही ऑगस्टा वेस्टलैंड कंपनी है जिसने 53 करोड़ डॉलर का ठेका पाने के लिए नेताओं-नौकरशाहों को करीब साढ़े तीन सौ करोड़ रुपए की रिश्वत दी थी. यह उजागर होने पर 12 वीवीआईपी हेलिकॉप्टरों की खरीद के लिए एंग्लो-इतालवी कंपनी ऑगस्टा-वेस्टलैंड के साथ वर्ष 2010 में किए गए तीन हजार 600 करोड़ रुपए के करार को जनवरी 2014 में रद्द कर दिया गया था.
ऐसा ही अराजक रहा है यूपी का उड्डयन विभाग
उत्तर प्रदेश का उड्डयन महकमा कितना अराजक और भ्रष्ट है, यह आपको पता चल ही गया होगा. थोड़ी कसर बाकी हो तो मायावती काल का एक और प्रसंग देखते चलें. वह एक सितम्बर 2008 की रात थी. पाइलट से प्रदेश के कैबिनेट सेक्रेटरी बने शशांक शेखर सिंह ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती को लेकर हेलीकॉप्टर से उड़ान भरी. मायावती को पहले संत कबीर नगर, फिर फैजाबाद ले जाया गया. जिस सिंगल इंजिन हेलीकॉप्टर पर मायावती को बैठा कर रात में ले जाया गया, वह हेलीकॉप्टर रात की फ्लाइंग के लिए कानूनन प्रतिबंधित है. उसमें रात्रि उड़ान के उपकरण नहीं हैं. रात में जब मायावती को लेकर वह हेलीकॉप्टर संत कबीर नगर से उड़ा तो टेक-ऑफ के लिए कारों की बत्तियां जलानी पड़ीं. फिर फैजाबाद में नाइट लैंडिंग का खतरनाक जोखिम उठाया गया. उसके बाद लखनऊ से विमान मंगवाया गया, तब मायावती वापस लौटीं. सिंगल इंजिन वाला जर्जर हेलीकॉप्टर खुद शशांक और विंग कमांडर आरएन सेनगुप्ता उड़ा रहे थे. प्रतिबंधित हेलीकॉप्टर को रात में उड़ाने का मसला केंद्रीय नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (डीजीसीए) में तूल न पकड़े इसके लिए उड़ान दस्तावेजों में समय को लेकर फर्जी तथ्य दर्ज किए गए. फैजाबाद में एयरपोर्ट अथॉरिटी का कोई एयर ट्रैफिक कंट्रोल नहीं है, लिहाजा हेलीकॉप्टर की लैंडिंग का समय शाम सवा छह बजे और लखनऊ से रेस्क्यु के लिए गए विमान का टेक-ऑफ टाइम साढ़े छह बजे दर्ज कर दिया गया. लेकिन लखनऊ के एयर ट्रैफिक कंट्रोल में मायावती को लेकर आए सुपर किंग एयरविमान के लखनऊ पहुंचने का समय आधिकारिक तौर पर रात का सवा आठ दर्ज है. अगर हवाई जहाज ने साढ़े छह बजे शाम को फैजाबाद से लखनऊ के लिए उड़ान भरी तो उसे लखनऊ पहुंचने में सवा दो घंटे क्यों लगे? मुख्यमंत्री की सुरक्षा को लेकर उड्डयन महकमे की लापरवाही का आलम यह है कि मायावती को ‘रेस्क्यु’ कर लाने के लिए भेजे गए विमान को भी अयोग्य घोषित पाइलट ही उड़ा रहे थे. इनमें एक थे वयोवृद्ध कैप्टन पीसीएफ डिसूजा, जो मेडिकली अनफिट थे और दूसरे थे कैप्टन वीवी सिंह जो उस समय तकरीबन 62 साल के थे और डीजीसीए की शर्तों के मुताबिक उड़ान के लिए सक्षम नहीं थे.
फर्ज़ी नौकरशाह के फर्ज़ी आदेश पर ब़र्खास्तगी असली
सत्ता के गलियारे से जो चिटि्ठयां जारी हो रही हैं या जो आदेश जारी हो रहे हैं उनके फर्जी होने का चांस ज्यादा है. यह मुलायम और उसके बाद सत्ता में आईं मायावती के शासन-काल से जारी है. उसके बाद तो यह चलन ही हो गया. अधिकतर सरकारी आदेश कार्रवाई के धरातल पर या अदालत की दहलीज पर जाकर इसीलिए नाकारा साबित हो रहे हैं क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार नौकरशाहों के फर्जी हस्ताक्षर से कार्रवाइयां कर रही है या जो नौकरशाह सम्बन्धित विभाग में कभी रहा ही नहीं, उसके नाम और हस्ताक्षर से भी संवेदनशील आदेश जारी कर रही है. उत्तर प्रदेश में डमी नौकरशाहों के जरिए संदेहास्पद और विवादास्पद आदेश जारी कराने का धंधा लम्बे अरसे से चल रहा है. सरकार ने इतने झूठ रच दिए हैं कि अब उसे याद भी नहीं रहता कि कहां झूठ बोला और कहां सच. इसी गड्डमड्ड में सरकारी दस्तावेज ही सरकार की जालसाजियां उजागर कर रहे हैं. शासन तंत्र चलाने वाले नौकरशाहों में इतनी भी हया नहीं है कि अपने गोरखधंधे की छाया से कम से कम मुख्यमंत्री के अधीन वाले विभाग को बख्श दें. प्रदेश के कुछ संवेदनशील विभागों में से एक नागरिक उड्डयन महकमा नौकरशाहों के फर्जी धंधों का गोदाम है. स्वनामधन्य कैबिनेट सेक्रेटरी शशांक शेखर सिंह इसी विभाग की पैदाइश थे, जो अपने धंधेबाज-हुनर की वजह से पाइलट होते हुए भी नौकरशाही के वरिष्ठतम पद पर आसीन हुए और कैबिनेट सचिव होकर तमाम आईएएस अफसरों और नेताओं को खूब नाच नचाया. अब केवल नाम बदल गया है. दूसरे सफेदपोश चेहरे नागरिक उड्डयन विभाग में उसी काले धंधे को आगे बढ़ा रहे हैं. इनके काले धंधे और सरकार के काले ‘सच’ की कुछ बानगियां देखें. सरकार ने उड्डयन निदेशालय के कई कर्मचारियों-अधिकारियों को नौकरी से बाहर निकाला था. सरकार द्वारा जारी बर्खास्तगी आदेशों पर ऐसे वरिष्ठ नौकरशाह का हस्ताक्षर बनाया गया, जो संदर्भित तारीखों में उड्डयन महकमे में कभी तैनात ही नहीं रहा. इन फर्जी आदेशों के आधार पर कर्मचारियों को नौकरी से बेदखल कर दिया गया, लेकिन बर्खास्तगी का कोई कानूनी आधार नहीं बना. उड्डयन के कुछ अधिकारी तो यह भी कहते हैं कि फर्जी आदेशों पर नौकरी से निकाले गए कई कर्मचारियों के नाम पर वेतन वगैरह यथावत निकाले जाते रहे हैं. बर्खास्तगी के कुछ आदेशों पर उड्डयन महकमे के निदेशक के रूप में वरिष्ठ आईएएस प्रदीप कुमार के हस्ताक्षर पाए गए. सरकार कहती है कि प्रदीप कुमार उड्डयन महकमे के निदेशक कभी रहे ही नहीं. फिर ‘बेचारे’ कर्मचारियों की बर्खास्तगी का परवाना काटने वाले प्रदीप कुमार कौन हैं? उड्डयन विभाग के कर्मचारियों के सामने केवल बेरोजगार होने का ही सवाल नहीं है, उनके सामने प्रदीप कुमार की पहचान का भी सवाल है. बर्खास्त कर्मचारी ऐसे सवाल पिछले करीब डेढ़-दो दशक से ढो रहे हैं. सरकार के दस्तावेज खुद ही इस गम्भीर फर्जीवाड़े का पर्दाफाश करते हैं. सरकार के दो दस्तावेज देखिए. विचित्र किंतु सत्य. एक दस्तावेज 30 जनवरी 2013 का है जिसमें सरकार कहती है कि प्रदीप कुमार ने 08 मार्च 2002 को उड्डयन महकमे में निदेशक का पदभार सम्भाला था और 19 मार्च 2003 तक वे इस पद पर बने रहे. अब उत्तर प्रदेश सरकार का ही दूसरा दस्तावेज देखिए. 21 फरवरी 2013 को जारी यह सरकारी दस्तावेज बताता है कि 08 मार्च 2002 से 19 मार्च 2003 के बीच की अवधि की विभिन्न तारीखों में प्रदीप कुमार आबकारी-पर्यावरण, वन, पंचायती राज और गृह विभाग में प्रमुख सचिव के पद पर तैनात रहे. यानि उक्त तारीखों में प्रदीप कुमार उड्डयन निदेशालय में तैनात नहीं थे. फिर कर्मचारियों की बर्खास्तगी का आदेश कैसे जारी हो गया? किसने जारी किया? बर्खास्तगी आदेश पर जिस प्रदीप कुमार के हस्ताक्षर हैं, वह प्रदीप कुमार कौन है? सरकार के दो विरोधाभासी दस्तावेज क्या बताते हैं? सरकारी फर्जीवाड़े की इस गम्भीर घटना पर सरकार ने कोई कार्रवाई क्यों नहीं की? ये सवाल सामने तो हैं, लेकिन आप यकीन मानिए, इस पर न कोई कार्रवाई होगी और न कोई जवाब आएगा.