मौजूदा हालात पर ग़ौर किया जाए, तो ग्यारह राजनीतिक दलों के सुरमाओं में से नौ पार्टियों के सूरमा किसी भी तरह से सात रेस कोर्स (प्रधानमंत्री निवास) में दाख़िल होना चाहते हैं. इसमें सबसे पहला नाम समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव का है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2012 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की सफलता ने मुलायम सिंह यादव के सपनों में पंख लगा दिये हैं. यही वजह है कि वह तीसरे मोर्चे के सहारे प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा करना चाहते है. स्वयं को प्रधानमंत्री पद का सबसे मज़बूत दावेदार समझने वाले मुलायम की पहचान सपा प्रमुख के रूप में तो है ही.
दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है. हालांकि, यह बात कई बार ग़लत भी साबित हुई है. वैसे उत्तर प्रदेश के नेताओं का दिल यह बात मानने को तैयार नहीं हैं. अगर ग़ौर करें, तो उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की संख्या सबसे अधिक है. प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, कांगे्रस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, बसपा प्रमुख मायावती और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के मन में प्रधानमंत्री बनने की प्रबल इच्छा है.
इस बीच भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के यूपी से चुनाव लड़ने की अटकलें भी लगाई जा रही हैं. राजनीति के तमाम धुरंधर इन दिनों यूपी के सहारे देश की राजनीति बदलने का दंभ भर रहे हैं. कोई कांगे्रस मुक्त भारत चाहता है, तो किसी की ज़िंदगी का मक़सद ज़हरीली खेती करने वालों से देश को बचाना है. इससे इतर ऐसे नेता और गठबंधन भी पनप रहे हैं, जो कांग्रेस और भाजपा को देश के लिए बड़ा ख़तरा मानते हैं. ग़ैर कांगे्रस और ग़ैर भाजपा की राग अलापने वाले इस गठबंधन की अगुवाई तमाम राज्यों के क्षत्रपों ने संभाल रखी है. इस गठबंधन को नाम दिया गया है तीसरा मोर्चा. वैसे तो तीसरे मोर्चे में कुल 11 दल हैं, लेकिन वामपंथी पार्टियां, जनता दल यूनाइटेड, बीजू जनता दल, अन्नाद्रमुक, तेलगुदेशम पार्टी और समाजवादी पार्टी ही फ़िलहाल इस क़वायद में शामिल हैं. तीसरा मोर्चा बात तो ग़ैर भाजपा और ग़ैर कांगे्रस की कर रहा है, लेकिन इस हक़ीक़त को भी
अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि 1977 (जनता पार्टी सरकार) के अलावा कभी भी ग़ैर कांगे्रस और ग़ैर भाजपा दल के नेता बहुमत लायक आंकड़ा भी नहीं जुटा सके हैं.मोर्चे में तमाम ऐसे दल और नेता शामिल हैं, जो समय-समय पर कांगे्रस और भाजपा के साथ गलबहियां करते रहे हैं.
मौजूदा हालात पर ग़ौर किया जाए, तो ग्यारह राजनीतिक दलों के सुरमाओं में से नौ पार्टियों के सूरमा किसी भी तरह से सात रेस कोर्स (प्रधानमंत्री निवास) में दाख़िल होना चाहते हैं. इसमें सबसे पहला नाम समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव का है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2012 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की सफलता ने मुलायम सिंह यादव के सपनों में पंख लगा दिये हैं. यही वजह है कि वह तीसरे मोर्चे के सहारे प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा करना चाहते है. स्वयं को प्रधानमंत्री पद का सबसे मज़बूत दावेदार समझने वाले मुलायम की पहचान सपा प्रमुख के रूप में तो है ही. इसके अलावा, पिछले दस वर्षों से वह संप्रग एक और दो सरकार के संकटमोचक भी रहे हैं. ग़ौरतलब है कि तीसरे मोर्चे के साथ खड़े होने के बाद भी उनका यूपीए सरकार से मोह भंग नहीं हुआ है. इस बात का अहसास पिछले दिनों मीडिया से रूबरू होने के दौरान उनकी बातों से हुआ. प्रेस कांफे्रस में जब उनसे पूछा गया कि आप यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेंगे, तो उनका जवाब था, दो महीने में सब पता चला जाएगा. वहीं विपक्षी पार्टी नेताजी की मजबूरी बताते हुए तंज कसते हैं कि मुलायम समर्थन वापस लेने की ग़लती नहीं करेंगे, क्योंकि बड़ी मुश्किल से सीबीआई से नेता जी का पिंड छूटा है. कहीं अंतिम बेला में यूपीए सरकार उनके लिए कोई नई मुसीबत न खड़ी कर दे.
सियासी जानकारों का कहना है कि मुलायम दोनों हाथ में लड्डू रखना चाहते हैं. इसलिए वह लेफ्ट-राइट की राजनीति कर रहे हैं. हालांकि, राजनीति का ऊंट कब किस करवट बैठेगा यह कोई नहीं जानता. मुलायम का यह कहना कि कांग्रेस की सारी ख़ामियों के बावजूद सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ वह रायबरेली से सपा उम्मीदवार नहीं उतारेंगे. हालांकि, यह बात तीसरे मोर्चे की वक़ालत करने वालों के गले नहीं उतर रहा है. मुलायम तर्क देते हैं कि सियासी नैतिकता का यह तकाज़ा है कि देश के सभी बड़े नेता जिनकी मौजूदगी से संसद का मान बढ़ता है, उनके ख़िलाफ़ उम्मीदवार नहीं उतारना चाहिए. उनके मुताबिक़, इस परंपरा की शुरुआत कांगे्रस ने ही की थी. सोनिया के अध्यक्ष बनने के बाद कांगे्रस ने हमारे ख़िलाफ़ प्रत्याशी नहीं उतारा, तो हमने भी नहीं कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया. इतना ही नहीं, अमेठी में राहुल गांधी के ख़िलाफ़ भी सपा किसी दमदार प्रत्याशी को मैदान में उतारने के मूड में नहीं है, जबकि अमेठी लोकसभा क्षेत्र की कई विधान सभा सीटों पर फ़िलहाल सपा का क़ब्ज़ा है. दिल्ली की गद्दी के लिए सपा की बचैनी किसी से छुपी नहीं है. पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पंजाब में आयोजित प्रोग्रेसिव पंजाब एग्रीकल्चर समिट-2014 में हिस्सा लेने पहुंचे थे. अखिलेश वहां अकाली दल के नेताओं से करीबी बनाते दिखे. यह जानते हुए कि अकाली दल एनडीए का हिस्सा है. इतना ही नहीं, जिस मंच पर अखिलेश मौजूद थे उसी मंच से यह मांग उठी की अगर अकाली दल तीसरे मोर्चे के साथ जुड़ जाते हैं, तो उसके नेता प्रधामनंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं. हालांकि, इस मंच पर भाजपा नेता और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह भी मौजूद थे.
बात अगर उत्तर प्रदेश में तीसरे मोर्चे की करें, तो यहां तीसरे मोर्चे का मतलब स़िर्फ और स़िर्फ समाजवादी पार्टी है. जिसकी छवि लगातार गिरती जा रही है. प्रदेश में क़ानून व्यवस्था का हाल किसी से छुपा नहीं है. जातिगत आधार पर ज़रूर सपा को अल्पसंख्यकों और यादवों के वोट मिल सकते हैं. हालांकि, भाजपा का कहना है कि जो पार्टी एक प्रदेश नहीं संभाल पा रही है, वह देश को क्या संभालेंगे. वैसे भी आम धारणा तो यही है कि मुलायम की राजनैतिक विश्वसनीयता अब पहले जैसी नहीं रह गई है. वह आज भले ही तीसरे मोर्चे की वक़ालत कर रहे हों, लेकिन ग़ैर- कांगे्रस और ग़ैर- भाजपा का उनका नारा खोखला है.
सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव भले ही तीसरे मोर्चे की बैसाखी के सहारे प्रधानमंत्री बनने का सपना साकार करना चाहते हों, लेकिन तीसरे मोर्चे के साथ खड़े होने के बाद भी उत्तर प्रदेश के चुनावी मैदान में उनकी परेशानियां कम होती नहीं दिख रही है. यहां उसे भाजपा और कांगे्रस के अलावा आम आदमी पार्टी से भी चुनौती मिलेगी. उत्तर प्रदेश में तीसरे मोर्चे को लेकर सपा की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसने अभी तक प्रदेश में छोटी पार्टियों से सामंजस्य बनाने का प्रयास नहीं किया. अगर समाजवादी पार्टी अपना दल, पीस पार्टी, जस्टिस पार्टी ऑफ इंडिया, उलेमा काउंसिल जैसे दलों को साथ लेकर चले, तो तीसरे मोर्चे का आधार मज़बूत हो सकता है. इस बीच आम आदमी पार्टी ने मैनपुरी लोकसभा सीट पर मुलायम के ख़िलाफ़ पूर्व नौकरशाह बाबा हरदेव को मैदान में उतार कर हड़कंप मचा दिया है. ग़ौरतलब है कि सरकारी सेवाकाल के दौरान बाबा हरदेव की छवि एक ईमानदार और सख्त अधिकारियों में हुआ करती थी.
उत्तर प्रदेश में तीसरा मोर्चा यानी सपा
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