उत्तर प्रदेश के ऊर्जा सेक्टर में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने वाले व्हिसिल ब्लोअर नंदलाल जायसवाल की मुश्किलें लगातार बढ़ती ही चली जा रही हैं. पूरा तंत्र उनके खिलाफ पड़ा हुआ है. इसमें ऊर्जा सेक्टर से संबद्ध विभाग, उत्तर प्रदेश शासन में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ नौकरशाह, नेता और न्यायाधीश तक शामिल हैं. अरबों रुपए के महाघोटाले में तत्कालीन मायावती सरकार द्वारा सीबीआई जांच की औपचारिक मंजूरी के बावजूद जजों ने उस मामले को इतना उलझा दिया कि सीबीआई जांच तो जस की तस लंबित पड़ी रही, उल्टा अदालत ने व्हिसिल ब्लोअर नंदलाल जायवाल के खिलाफ ही अदालत की अवमानना का मामला शुरू कर दिया. जासवाल के खिलाफ अन्य मामले भी पूर्व में लादे गए और उनका मुंह बंद करने का काफी कुचक्र रचा गया.
जब उनका अभियान नहीं रुका तो नंदलाल जायसवाल पर फर्जी आरोप मढ कर उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया. बाद में हाईकोर्ट के सख्त आदेश पर नंदलाल जायसवाल को जीवनरक्षा के लिए पेंशन देने की शरुआत हुई. नंदलाल जायसवाल की नौकरी का मसला आज भी लंबित पड़ा है. कुछ ऐसे जज, जो पूर्व में सरकारी वकील थे और ऊर्जा सेक्टर के कानूनी मामलों में फर्जी बिलों पर भुगतान पाते थे, वे नंदलाल जायसवाल के न्याय के रास्ते में अड़ंगा डाल रहे हैं.
हाईकोर्ट का स्पष्ट आदेश है कि अरबों के ऊर्जा घोटाले की लंबित जांच पूरी हो जाने के बाद ही नंदलाल जायसवाल पर लगे कोर्ट की अवमानना के मामले की सुनवाई होगी. लेकिन विडंबना यह है कि हाईकोर्ट के इस आदेश को हाईकोर्ट के ही कुछ जजों ने ताक पर रख दिया है और व्हिसिल ब्लोअर के खिलाफ अदालत की अवमानना का मामला चलाया जा रहा है. अदालत को यह बहुत चुभ रहा है कि ऊर्जा घोटाले की जांच में अड़ंगा डालने वाले जजों पर नंदलाल जायसवाल ने उंगली क्यों उठाई.
अदालतें जजों की कमी और पेंडिंग मामलों के भारी बोझ का रोना रोती हैं, लेकिन एक ही मामले में अदालत का रवैया देख कर आपको लंबित मामलों की असली पटकथा का पता चल जाएगा. व्हिसिल ब्लोअर नंदलाल जायसवाल के खिलाफ चलाया जा रहा एक मामला (2880 एसएस, 2009) आखिरी फैसले के लिए 104 बार सूचीबद्ध (नोटिफाई) हुआ, लेकिन कोई निर्णायक फैसला नहीं आया. अदालत ने इस मामले को 58 बार स्थगित (एडजॉर्न) किया. अपना केस खुद लड़ने वाले नंदलाल जायसवाल ने जज से इसका कारण पूछा तो जज ने उनके खिलाफ क्रिमिनल कंटेंप्ट चलाने और गिरफ्तार कराने की धमकी दी.
अदालती कुचक्र का हाल देखिए कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने नंदलाल जायसवाल के मामले में ऑर्डर-शीट तलब कर उसकी समीक्षा करने के बाद फैसले के लिए बाकायदा बेंच गठित कर दी थी. लेकिन मुख्य न्यायाधीश का आदेश टाल कर मामले को दूसरे बेंच में स्थानांतरित कर दिया गया. यह कहने का बहाना मिल गया कि रोस्टर-चेंज होने के कारण दूसरे कोर्ट में मामला स्थानांतरित किया गया.
यह तो केवल एक बानगी है. ऊर्जा सेक्टर के अरबों के घोटाले की जांच कराने और घोटालों पर अंकुश लगाने में कुछ जजों द्वारा नियोजित तरीके से कोताही बरतने के ऐसे दर्जनों मामले सामने हैं. लेकिन इस पर रोकथाम का कोई उपाय नहीं है. व्हिसिल बलोअर्स की सुरक्षा और उन्हें कानूनी संरक्षण मुहैया कराने की सुप्रीम कोर्ट की चिंता महज औपचारिकता ही साबित हो रही है.
ऊर्जा घोटाले के एक महत्वपूर्ण मामले की फाइल दबाने में एक जज केके शर्मा की संदेहास्पद भूमिका आधिकारिक तौर पर उजागर होने के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट प्रशासन ने थोड़ी सक्रियता दिखाई थी, लेकिन समय के अंतराल में वह भी बेअसर ही साबित हुई. उक्त जज ने अपने क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर मामले की रिपोर्ट तीन साल तक दबाए रखी थी. जज के खिलाफ यह भी शिकायत थी कि जज बनने के पहले जब वे न्याय विभाग के प्रमुख सचिव थे, तब उन्होंने संवेदनशील तथ्य छुपा कर एक विवादास्पद सरकारी वकील के जज बनने में मदद की थी.
भ्रष्टाचार की रोकथाम के सियासी-प्रशानिक-न्यायिक घड़ियाली-रुदन के बीच वास्तविक स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश के सरकारी विभाग भष्टाचार का अड्डा बने हुए हैं. ऊर्जा महकमा इसमें अव्वल है. इसके मंत्री खुद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव हैं. यूपी पावर कॉरपोरेशन व इससे जुड़े दूसरे निगमों में बीते वर्षों में खरबों रुपये के बड़े-बड़े घोटाले हुए, पर कुछ नहीं हुआ. अखिलेश सरकार के आने के पहले मायावती सरकार के दौरान यूपी पावर कॉरपोरेशन में पांच हज़ार करोड़ रुपये का घोटाला हुआ था. उसके पहले मुलायम सिंह सरकार के दौरान राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना में 1,600 करोड़ रुपए का घोटाला हुआ था.
विद्युत नियामक आयोग की शह पर जेपी समूह समेत निजी बिजली घरानों को लाभ पहुंचाने में 30 हज़ार करोड़ रुपए का घोटाला किया गया. इसी तरह राज्य जल विद्युत निगम में 750 करोड़ रुपए का घोटाला किया गया. उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन के मध्यांचल विद्युत वितरण निगम द्वारा तेलंगाना की वैरिगेट प्रोजेक्ट प्राइवेट लिमिटेड नामक फर्जी कंपनी को ठेका देकर हजारों करोड़ का घोटाला किया गया.
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा हिमाचल प्रदेश के खोदरी में जल विद्युत गृह बनवाने और उसका मालिकाना हक़ छोड़ने में कम से कम छह हज़ार करोड़ रुपए का घोटाला हुआ. लेकिन इनमें से किसी भी मामले में सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की. घोटाले की जांच कराने के बजाय घोटाला उजागर करने वाले व्हिसिल ब्लोअर नंदलाल जायसवाल के खिलाफ़ ही अदालत की अवमानना का मामला चला दिया गया.
घोटाला करने और उसकी लीपापोती करने में वे सारी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं, जो प्रदेश की सत्ता में रही हैं. इसमें बहुजन समाज पार्टी सरकार और समाजवादी पार्टी सरकार की बराबर की मिलीभगत है. बसपा और सपा, दोनों ही जब-जब सत्ता में आती हैं, एक-दूसरे के घोटाले दबाने का काम करती हैं. विरोध-प्रतिरोध सब दिखावा है. बसपा सरकार के समय 30 हज़ार करोड़ रुपए का बिजली घोटाला हुआ था. उक्त घोटाले के दस्तावेजी प्रमाण लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा को दिए गए थे. लोकायुक्त ने उसे संज्ञान में भी लिया, लेकिन सत्ता के प्रभाव में कार्यवाही आगे नहीं बढ़ पाई. उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन ने पांच निजी पावर ट्रेडिंग कंपनियों के साथ द्विपक्षीय समझौता किया था.
पावर कॉरपोरेशन ने उक्त कंपनियों से महंगी दर पर पांच हज़ार करोड़ यूनिट बिजली खरीदने का समझौता किया था. उस करार की शर्त थी कि सस्ती बिजली मिलने पर भी पावर कॉरपोरेशन कहीं और से बिजली नहीं खरीदेगी. इस खरीद से उत्तर प्रदेश को भीषण नुक़सान हुआ. इस तरह की विचित्र खरीद सपा सरकार में भी जारी है. बसपा सरकार से पहले सपा के शासनकाल में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना में 1,600 करोड़ रुपए का घोटाला हुआ था. उस समय भी केवल जांच ही चली, नतीजा कुछ नहीं निकला.
सत्ता पर काबिज होने के बाद समाजवादी पार्टी सरकार के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा था कि मायावती सरकार 25 हज़ार करोड़ रुपए का घाटा छोड़कर गई है. लेकिन, उन्होंने इस घाटे की वजह जानने या उसकी औपचारिक जांच कराने की ज़रूरत नहीं समझी. यहां तक कि राज्य विद्युत नियामक आयोग के अध्यक्ष राजेश अवस्थी को हाईकोर्ट के आदेश से बर्खास्त होना पड़ा, फिर भी सरकार ने घोटाले को लेकर कोई क़ानूनी कार्रवाई आगे नहीं बढ़ाई.
इसी तरह उत्तर प्रदेश जल विद्युत निगम में भी 750 करोड़ रुपए का घोटाला हुआ, लेकिन उसमें लिप्त तत्कालीन सीएमडी आईएएस आलोक टंडन समेत अन्य अधिकारियों एवं अभियंताओं का कुछ नहीं बिगड़ा. सपा के मौजूदा शासनकाल में बिजली के बिलों में फर्जीवाड़ा करके हज़ार करोड़ रुपए का घोटाला किए जाने का मामला भी सामने आया. घोटाले दर घोटाले जारी हैं. नेता दलीय सीमाएं लांघकर कमा रहे हैं और कमवा रहे हैं.
लीपापोती में जज भी थे हमाम में
ऐसे तमाम जज हैं, जिन्होंने ऊर्जा घोटाले की लीपापोती में संदेहास्पद भूमिका अदा की है. विदेशी कंपनी के साथ मिलीभगत कर उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड द्वारा पांच हजार करोड़ रुपए का घोटाला किए जाने के मामले में सीबीआई से जांच कराने की सरकारी अधिसूचना जारी हो जाने के बाद भी सीबीआई से जांच नहीं करने दी गई. इस षड्यंत्र में सीबीआई के अधिकारी भी शरीक रहे.
पावर कॉरपोरेशन की विजिलेंस शाखा ने घोटाले की सीबीआई जांच की सिफारिश की और स्टेट विजिलेंस ने भी कहा कि पूरा प्रकरण गंभीर जांच की अपेक्षा करता है, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के तत्कालीन जज स्वनामधन्य जगदीश भल्ला और कमल किशोर ने विजिलेंस की सिफारिश को तकनीकी पड़ताल के लिए उन्हीं लोगों के सुपुर्द कर दिया जो अरबों के घोटाले में लिप्त थे. हाईकोर्ट के तत्कालीन जज एसएचए रजा और आरडी शुक्ला की बेंच ने सीबीआई जांच के अपने ही पूर्व के फैसले के ऑपरेटिव पोर्शन को बदल डाला. जज डीके त्रिवेदी और नसीमुद्दीन की बेंच ने कानूनी पेचोखम में उलझा कर मामले को आगे बढ़ने नहीं दिया.
जज वीरेंद्र शरण व आरडी शुक्ला की बेंच ने एसएचए रजा वाली बेंच के विरोधाभासी फैसले को ही पकड़े रखा और जज रितुराज अवस्थी और अनिल कुमार शिकायतकर्ता का पक्ष सुने बगैर तारीख पर तारीख देते रहे. इन सारे जजों की संदेहास्पद भूमिका के बारे में राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी जाती रही, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के जज रहे इम्तियाज मुर्तजा और विनय कुमार माथुर ने तो हद ही कर दी.
उन्होंने याचिकाकर्ता नंदलाल जायसवाल को अंधेरे में रख कर उनकी जनहित याचिका खारिज कर दी. जबकि इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश शिवकीर्ति सिंह और जज श्रीनारायण शुक्ला की बेंच ने याचिकाकर्ता को शपथपत्र दाखिल करने का आदेश दे रखा था. शपथ पत्र दाखिल करने के बाद नंदलाल जायसवाल सुनवाई की तारीख का इंतजार ही करते रह गए और उधर उनकी याचिका खारिज कर दी गई. जज इम्तियाज मुर्तजा और विनय माथुर के बेजा फैसले की शिकायत पर वह जनहित याचिका फिर से री-स्टोर हुई.
हाईकोर्ट प्रशासन द्वारा उस जनहित याचिका को वापस कानूनी प्रक्रिया में लाने का निर्णय उन जजों और मौजूदा न्यायिक व्यवस्था पर करारे तमाचे की तरह साबित हुआ. लीपापोती करने-कराने के मामले में न केवल हाईकोर्ट बल्कि सुप्रीम कोर्ट के जज तक शरीक रहे हैं. तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती द्वारा अरबों रुपए के एक घोटाले की सीबीआई से जांच कराने का बाकायदा शासनादेश जारी किया गया था.
इस पर सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज वाईके सब्बरवाल एवं बीएन अग्रवाल की बेंच ने केंद्र सरकार, सीबीआई और यूपी पावर कॉरपोरेशन को अंतिम मौका देते हुए प्रति-शपथपत्र दाखिल करने का आदेश दिया. लेकिन प्रति-शपथपत्र दाखिल नहीं हुआ. इस नाफरमानी पर सख्त संज्ञान लेने के बजाय सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच ने मामला ही खारिज कर दिया. वही वाईके सब्बरवाल बाद में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने थे.