चुनाव के अप्रत्याशित परिणाम हमारे सामने हैं. ये परिणाम बताते हैं कि जब इच्छाओं का सत्य के साथ मिश्रण होता है, तो वो कितना ख़तरनाक होता है. सिर्फ सत्य सच्चाई के पास ले जाता है. जब इच्छाएं मिल जाती हैं, तो सच्चााई से वो सत्य बहुत दूर पहुंच जाता है. उत्तर प्रदेश की जनता को इस बात का श्रेय जाता है कि उसने देश को नरेंद्र मोदी नाम का प्रधानमंत्री दिया. न उत्तर प्रदेश से 73 सीटें भाजपा जीतती, न केंद्र में भाजपा की सरकार बनती. उसी तरह जितने भी चुनाव हुए, उनमें कहीं भी भारतीय जनता पार्टी को ऐसी जीत नहीं मिली, जैसी 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मिली.
इससे पहले भारतीय जनता पार्टी ने अपनी सारी ताक़त लगाकर बिहार में चुनाव लड़ा था, लेकिन बिहार का चुनाव परिणाम भारतीय जनता पार्टी के अनुकूल तो नहीं ही आया, बल्कि पिछले चुनाव से कम सीटें उन्हें इस चुनाव में मिलीं.
बिहार का चुनाव जीतने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं को दांव पर लगा दिया था और कहा था कि अगर नीतीश कुमार चुनाव जीतते हैं, तो बिहार में विनाश होगा और अगर मैं जीतता हूं, तो बिहार में विकास होगा. इसके बावजूद, लोगों ने नरेन्द्र मोदी के मुक़ाबले नीतीश कुमार को चुना और उनके द्वारा बनाए हुए गठबंधन की लैंड स्लाइड विक्ट्री हुई.
जिस उत्तर प्रदेश ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाया, उसी उत्तर प्रदेश ने नरेंद्र मोदी को विधानसभा चुनाव में इतिहास की सबसे बड़ी विजयश्री से अलंकृत किया. इतने बड़े विजयश्री का स्वप्न भारतीय जनता पार्टी के किसी नेता ने भी नहीं देखा था. वैसे तो 73 सीटों के बारे में भी कभी किसी भारतीय जनता पार्टी के नेता ने नहीं सोचा था, लेकिन विधानसभा चुनाव में कभी इतनी सीटें मिलेंगी, इसकी तो किसी ने कल्पना ही नहीं की थीं. इसके पीछे के कारणों पर भी हम चर्चा करेंगे, लेकिन भारतीय जनता पार्टी को और प्रधानमंत्री मोदी को उत्तर प्रदेश के लोगों का अहसानमंद होना चाहिए.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किन वजहों से इतनी बड़ी विजय प्राप्त कर सके, इसके कारणों की पड़ताल से पहले हमें अखिलेश यादव और मायावती की उन कमियों के बारे में सोचना चाहिए, जिनकी वजह से उत्तर प्रदेश की जनता ने उन्हें नकार दिया. सबसे पहले अखिलेश यादव की बात करते हैं.
अखिलेश यादव ने पिछले तीन साल में उत्तर प्रदेश में एक नई समाजवादी पार्टी बनाने की योजना पर काम किया. उन्होंने एक हज़ार से अधिक ऐसे लोगों को तैयार किया, जो सिर्फ और सिर्फ उनके प्रति श्रद्धा का भाव रखते थे. अखिलेश यादव ने इन एक हज़ार लोगों को आर्थिक रूप से बहुत मज़बूत कर दिया. उन्हें ठेके मिले, उनकी सिफारिशों के ऊपर काम होने लगा, वे अपने-अपने क्षेत्र के मिनी या छोटा मुख्यमंत्री के नाम से नवाज़े जाने लगे.
अखिलेश यादव ने माना था कि इस विधानसभा चुनावों में वे इन्हीं एक हज़ार लोगों में से 400 लोगों को टिकट देंगे और समाजवादी पार्टी के सारे पुराने विधायकों को घर भेज देंगे. लेकिन चुनाव आयोग में मुलायम सिंह यादव के मुक़ाबले अखिलेश यादव को अपना पक्ष मज़बूती से रखना था. इसके लिए उन्हें विधायकों का समर्थन चाहिए था. इस मजबूरी ने उन्हें सारे विधायकों को दोबारा टिकट देने के लिए विवश कर दिया और यहीं से, जिन लोगों को अखिलेश यादव ने चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया था वे चिंतित हो गये. वे मानते थे कि वे हर हाल में विधानसभा पहुंचेंगे.
इनमें से जितने लोग चुनाव में लड़ते, उनमें से कितने जीतते ये तो पता नहीं, लेकिन हर एक के मन में ये सपना पल गया था कि वो विधानसभा जा रहा है. इसलिए अखिलेश यादव ने मौजूदा विधायकों को टिकट देने का फैसला किया. उनके प्रति समर्पित लोगों ने जो पिछले तीन साल से चुनाव लड़ने के लिए अपना मन बना रहे थे, उनमें से अधिकांश ने निर्दलीय के तौर पर नामांकन भर दिया.
दूसरी तर्रें, उत्तर प्रदेश के देहाती क्षेत्र के लोगों को अखिलेश यादव का अपने पिता मुलायम सिंह को धोखा देना पसन्द नहीं आया. गांव-गांव में ये चर्चाएं थीं कि जो अपने पिता का नहीं हुआ, वो हमारा क्या होगा. परिणामस्वरूप, मुलायम सिंह की राजनीति को 30 साल तक देखने वाले उनके समर्थक हाथ पर हाथ रखकर चुप बैठ गए.
अखिलेश यादव द्वारा शिवपाल यादव के प्रति किया गया व्यवहार भी ग्रामीण क्षेत्र के यादव समाज के लोगों को पसंद नहीं आया. बल्कि ये कह सकते हैं कि यादव समाज ही नहीं, अब तक मुलायम सिंह के समर्थक रहे यादव और दूसरे पिछड़े समाज जिनमें अति पिछड़े समाज भी शामिल हैं, उनको भी यह कांड न तो पसंद आया और न उन्होंने इसका समर्थन किया.
इसलिए जब अखिलेश यादव के समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह के फैसले के बाद जिन लोगों ने साइकिल चुनाव चिन्ह को लेकर पर्चा भरा, उनके समर्थन में मुलायम सिंह के ज्यादातर समर्थक निष्क्रिय हो गए या तटस्थ हो गए. वे चुनावों में लगे ही नहीं. यहां तक कि आज़मगढ़ में भी एक भी मुलायम समर्थक अखिलेश यादव के पक्ष में चुनाव प्रचार करने नहीं उतरा.
अखिलेश यादव ने रामगोपाल यादव को अपना सर्वेसर्वा बना लिया था. इधर पूरे मुस्लिम समाज में ये बात फैल गई थी कि रामगोपाल यादव का अमित शाह के साथ नाता है. इस बात को अपनी सभाओं में पहले शिवपाल यादव ने और उसके बाद खुद मुलायम सिंह यादव ने रिकंफर्म किया कि रामगोपाल यादव ने न केवल उन्हें धोखा दिया है, बल्कि उनका रिश्ता भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष के साथ है.
मुलायम सिंह यादव का आखिर में यह कहना कि अखिलेश मुसलमान विरोधी हैं, अखिलेश के भविष्य के ऊपर फुलस्टॉप लगा गया. अखिलेश यादव के साथ मीडिया का एक बड़ा तबक़ा था, जिसे उनकी मीडिया मैनेजमेंट टीम ने अपने क़ब्ज़े में कर रखा था. स्टीव जॉर्डन, जो हावर्ड के प्रोफेसर हैं, वे अखिलेश के लिए रणनीति बना रहे थे. उनके लोगों ने ही मीडिया स्ट्रैटिजी बनाई और काम बोलता है जैसे नारे गढ़े.
अखिलेश यादव एक चीज़ भूल गए. शायद प्रोफेसर जॉर्डन भी इस बात को भूल गए कि आप जितना अपने काम का प्रचार करेंगे, उतना ही लोग अपने दाएं-बाएं उस काम को तलाशने लगेंगे. अखिलेश यादव ने ज्यादातर काम शहरी मतदाताओं के लिए किए, चाहे वो मेट्रो हो या आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे हो.
आज एक्सप्रेस-वे की क्या हालत है, ये हम बताना नहीं चाहते. बहुत सारी जगहों पर दरार पड़ गई है. एक्सप्रेस-वे पूरा नहीं हुआ है. लखनऊ की मेट्रो भी पूरी नहीं हुई है. अखिलेश यादव अपने पूरे चुनाव-प्रचार में इन्हीं दोनों का ज्यादा गुणगान करते रहे. लेकिन अखिलेश यादव ने ग्रामीण मतदाता के लिए क्या किया? मुलायम सिंह अपने पूरे राजनीतिक जीवन में ज्यादातर फैसले उन लोगों के लिए लेते थे, जो गांवों में रहते हैं और जो मुलायम सिंह के परंपरागत समर्थक वर्ग में तब्दील हो गए थे.
अखिलेश यादव ने इस समर्थक वर्ग का कोई ख्याल नहीं किया. कहने के लिए तो उन्होंने दावा कर दिया कि सिंचाई की सुविधा गांवों में मिल गई है, 24 घंटे बिजली गांवों में मिल गई है, सड़कें गांव में बन गई हैं, सबकुछ गांवों में हो गया है. लेकिन जब गांव वालों ने अपने आस-पास देखा, तो उन्हें ये चीज़ें कहीं दिखाई नहीं दीं.
अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह की 30 साल की राजनीति को ध्वस्त कर दिया और उन्होंने आगे बढ़कर कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिया. दरअसल, अखिलेश यादव का जन्म विचारधारा के साथ नहीं हुआ. अखिलेश यादव ने कोई आन्दोलन नहीं देखा, कोई धरना नहीं दिया. समाजवाद की परिभाषा नहीं समझी. लोहिया, जयप्रकाश का नाम लेना अलग चीज़ है, लेकिन लोहिया, जयप्रकाश क्या थे, ये उन्होंने कभी जानने की कोशिश नहीं की.
अपने संघर्ष के दम पर नेता बने देश की मशहूर शख्सियत मुलायम सिंह यादव के पुत्र होने के नाते अखिलेश यादव प्रसिद्धि प्राप्त करते गए. इसलिए जब उन्होंने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया, तब मुलायम सिंह का परंपरागत समर्थक और गैर कांग्रेसवाद की विचारधारा से अभिप्रेरित वर्ग अखिलेश यादव से दूर चला गया. कैसे-कैसे नारे बने- यूपी को साथ पसंद है. ये एक मशहूर हिंदी गीत, बेबी को बेस पसंद है, पर आधारित है.
इस गीत को नारा बनाने को लेकर जिन लोगों ने अखिलेश यादव को राय दी, उनका न तो समाजवाद से कोई रिश्ता है, न संघर्ष से और न ही आंदोलनों से. वो तो मुलायम सिंह या अखिलेश यादव के नाम पर चुनाव जीतकर विधानसभा में जाना चाहते थे. इन्होंने जिन एजेंसियों का सहारा लिया, उन्होंने भी सिवाय अखिलेश यादव से पैसा पीटने के और कुछ नहीं किया. अखिलेश यादव ने उन सारे लोगों को अपने से दूर रखा, जिनमें आंदोलन पहचानने की क्षमता थी, या जिनमें मतदाताओं का मन टटोलने की क्षमता थी.
उन्होंने अपने साथ ऐसे लोगों को रखा और उनकी राय पर चले, जिनका आंदोलनों से कोई रिश्ता नहीं रहा. मुलायम सिंह यादव ने पब्लिकली कहा कि रामगोपाल यादव एक दिन भी आंदोलन में नहीं रहे हैं. उन्हें पता ही नहीं कि मैंने पार्टी कैसे बनाई, जबकि वे अखिलेश के फैन, फिलॉस्फर और गाइड बने हुए हैं.
अखिलेश यादव ने किसानों से जुड़े वे एक भी काम नहीं किए, जिनके लिए उनके पिता मुलायम सिंह यादव उन्हें हमेशा सलाह देते रहे. दूसरी तरफ, अखिलेश यादव ने उन दो अधिकारियों को अपने सबसे नजदीक रखा और उनके हाथ में पूरा उत्तर प्रदेश सौंप दिया, जो मायावती के सबसे खास अधिकारी थे. इससे ब्यूरोक्रेसी में ये संदेश गया कि ईमानदार और साख वाले अधिकारियों की अखिलेश यादव को कोई जरूरत नहीं है. अखिलेश यादव को उनकी जरूरत है, जो पैसा कमाकर उनको दे सकते हैं.
अखिलेश यादव ने पार्टी से भी उन सारे लोगों को दूर रखा, मंत्रिमंडल में भले ही लिया हो, लेकिन कभी उनकी बात नहीं मानी, जिनके बारे में उन्हें शक था कि वे उनके पिता मुलायम सिंह यादव से जाकर मिलते रहते हैं. इतना ही नहीं, अखिलेश यादव ने पांच साल में अपने सगे चाचा शिवपाल यादव की एक भी बात नहीं मानी और न ही उनसे कोई सलाह ली. अखिलेश यादव ने बहुत सारे ऐसे फैसले लिए, जो उनके लिए आने वाले मुख्यमंत्री के शासनकाल में परेशानीदायक हो सकते हैं.
जिनमें एक फैसला आगरा लखनऊ एक्सप्रेस-वे है. अगर इसकी जांच हुई, तो वे अधिकारी जिन्होंने अखिलेश यादव को पिछले पांच साल पैसे कमा कर दिए, वे कितने दिन चुप रहेंगे या क्या-क्या नहीं बोलेंगे, इसके बारे में नहीं कहा जा सकता. अखिलेश यादव के सबसे नजदीकी अधिकारी के बारे में मेरे पास खबर आई है कि इस अफसर की संपत्ति की कीमत पांच हजार करोड़ रुपए है. अखिलेश यादव ने लॉ एण्ड ऑर्डर के ऊपर कंट्रोल नहीं किया.
अखिलेश यादव के आसपास के लोग जमीनों पर कब्ज़ा करते रहे. अखिलेश यादव ने पोस्टिंग में अपने समाज के लोगों का ज्यादा ध्यान रखा. आखिरी तीन महीने उन्होंने जिस तरीके से अपने पिता और अपने चाचा से लड़ाई लड़ी, वो उनकी हार के मुख्य कारणों में से एक रहा.
अखिलेश यादव की एक सबसे बड़ी गलती अति पिछड़े समाज को भारतीय जनता पार्टी में भेज देने की है. उन्होंने अपने पिता मुलायम सिंह से सीख नहीं ली. मुलायम सिंह जब तक राजनीति में सक्रिय थे, या जब तक उन्हें जबरदस्ती रिटायर नहीं कर दिया गया, तब तक वे चुनावी सभाओं में अपने साथ अतिपिछड़े वर्ग के या दूसरे पिछड़े वर्ग के नेताओं को मंच पर रखते थे. उन्हें कम सीटें देते थे, लेकिन वे बताते थे कि ये सारा समाज उनके साथ है. अखिलेश यादव ने अपने साथ एक भी अतिपिछड़े समाज के दूसरे नेता को नहीं रखा.
इसका परिणाम हुआ कि यादव समाज का भी एक बड़ा वर्ग भारतीय जनता पार्टी के साथ चला गया. लेकिन इससे भी बुरा हाल इससे पहले हुआ, जब पूरा अतिपिछड़ा समाज भारतीय जनता पार्टी की तरफ खिसक गया और अखिलेश यादव को पता भी नहीं चला. हमलोग टेलीविजन प्रोग्राम में, अपने ब्लॉग में, अपने अखबार में लगातार कहते रहे कि अतिपिछड़ा समाज भारतीय जनता पार्टी की तरफ जा रहा है, लेकिन अखिलेश यादव को न तो लिखे जाने की कोई चिंता थी और न ही किसी ने उनको सलाह दी होगी.
परिणामस्वरूप अखिलेश यादव कुल 47 सीटों तक सिमट गए. अखिलेश यादव की वजह से ही लोकसभा में मुलायम सिंह यादव की पार्टी को सिर्फ पांच सीटें मिलीं, वो भी उनके घर की, उनके परिवार की और विधानसभा चुनाव में उन्हें सिर्फ 47 सीटें मिलीं. अखिलेश यादव ने ये माहौल बनाया कि मैं नौजवान हूं और राहुल गांधी नौजवान हैं, इसलिए उत्तर प्रदेश का नौजवान उनके साथ खड़ा है.
ठेकेदार परंपरा से आए हुए लोग, स्कॉर्पियो, एसयूवी, फार्च्यूनर में बैठने वाले लड़के, अखिलेश यादव को नौजवान दिखाई देने लगे. उन्हें वो नौजवान नहीं दिखाई दिया, जो उनके अपने समाज में या अतिपिछड़े समाज में है. सवर्णों की बात तो हम छोड़ ही दें, दलितों की बात भी छोड़ दें.
इसके अलावा गलतियों की एक लंबी परंपरा है, जिन्हें अगर अखिलेश यादव खुद समझने की कोशिश करें, तो ज्यादा बेहतर होगा. क्योंकि अगर हम उनके बारे में लिखेंगे, तो शायद उन्हें ये लगेगा कि हम उनमें जबरदस्ती कमियां निकाल रहे हैं. लेकिन 47 सीट लाने के बाद अगर अखिलेश यादव नहीं सोचते हैं, तो भविष्य के लिए भी अखिलेश यादव निरर्थक राजनीति में निरर्थक साबित होंगे.
मायावती जी ने इस भ्रम को नहीं तोड़ा कि वे पैसे लेकर टिकट देती हैं. उनके घर में जो भी गया और जिसने भी टिकट ली, उसने यही कहा कि मैंने दो करोड़ दिए, मैंने दस करोड़ दिए, मैंने पांच करोड़ दिए. जिनकी टिकट बदली गई, उन्होंने आरोप लगाया कि मायावती जी ने पैसे लेकर टिकट बदल दिए. ये चर्चा उत्तर प्रदेश के दलित समाज को झकझोरती रही कि मायावती जी अपने लिए पैसे का इंतजाम कर रही हैं.
राजनीतिक रूप से लोगों को मजबूत नहीं कर रही हैं. मायावती ने ये मान लिया था कि दलित समाज के अलावा अतिमहादलित समाज के लोग या अतिपिछड़े लोग उन्हीं को अपना नेता मानकर चलेंगे. वे ये भूल गईं कि हर समाज का आदमी अपने नेता को सबसे बड़े नेता के साथ देखना चाहता है. उसके संवाद का तरीका ही उनके जरिए होता है.
मायावती का किसी के साथ संवाद नहीं है. लेकिन एक भ्रम था स्वामी प्रसाद मौर्य के जरिए कि मौर्य समाज का मायावती के साथ संवाद है. ऐसे ही दूसरे समाजों की कहानी है. मायावती ने उनको लेकर कभी गंभीरता नहीं दिखाई. पूरे पांच साल मुस्लिम समाज को अपने साथ नहीं रखा. मुजफ्फरनगर में दंगा हुआ, वहां नहीं गईं. आखिर में उन्हें दलित और मुस्लिम गठजोड़ याद आया और उन्होंने मुसलमानों के कुछ सवाल उठाए, लेकिन मुस्लिम समाज ने भी कभी अपने किसी नेता को मायावती के साथ मंच पर नहीं देखा.
लिहाजा, मुस्लिम समाज मायावती के साथ खुलेआम नहीं दिखाई दिया. अब परिणाम के दिन मायावती ने ये आरोप लगाया कि ईवीएम मशीन की प्रोग्रामिंग के साथ छेड़छाड़ हुई है. उन्होंने सवाल उठाया कि दलितों और मुसलमानों ने उन्हें जो वोट दिया वो वोट कहां गया? मायावती अगर कह रही हैं और अगर ये हुआ, तो हिंदुस्तान के लोकतंत्र का ये सबसे घिनौना षडयंत्र है.
इसलिए केंद्र सरकार को इस बयान को गंभीरता से लेते हुए इसकी जांच करानी चाहिए. लेकिन सवाल दूसरा है. सवाल ये है कि अगर मायावती ये समझती हैं कि ईवीएम मशीन की प्रोग्रामिंग मे कोई घपला हुआ है, कोई बदलाव हुआ है, तो उन्हें बजाय बयान देने के, पूरे उत्तर प्रदेश के उन लोगों को साथ ले कर सड़क पर आ कर आंदोलन करना चाहिए, जो उनके इस आरोप पर विश्वास करते हैं. ऐसे लोगों के साथ पूरे यूपी को जाम कर देना चाहिए.
लेकिन अगर मायावती उत्तर प्रदेश में आंदोलन नहीं करती हैं, सिर्फ बयान देती हैं, तो शायद उन्हें आगे चल कर कुछ और परेशानियों का सामना करना पड़े. दूसरे शब्दों में, मायावती अगर अपनी कार्यशैली में बदलाव नहीं करती हैं और जैसी तस्वीर उन्होंने अपनी बना रखी है, अगर वो खुद वैसी नहीं हैं, तो फिर उन्हें अपनी तस्वीर बदल लेनी चाहिए. अगर वे वैसी ही हैं, तो उन्हें आगे आने वाले समय में राजनीतिक रूप से ज्यादा परेशानी हो सकती है. मैं इस सवाल को नहीं मानता कि सीबीआई की तलवार ने मायावती के कदमों को रोका है.
राहुल गांधी के बारे में भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी ने एक धारणा बना रखी है. राहुल गांधी के इधर के भाषण बहुत अच्छे है. लेकिन उस धारणा के कारण उनकी अच्छी बात को भी लोग नहीं सुन रहे हैं. दूसरे शब्दों में, राहुल गांधी को किसी ने नहीं बताया कि उनके शरीर की भाषा, उनके बोलने का ढंग, शब्दों के ऊपर जोर, शब्दों का उच्चारण और समस्याओं का वर्णन ऐसा होता है, जिससे जनता जुड़ नहीं पाती. जनता से न जुड़ना ही राहुल गांधी की पार्टी की नाकामयाबी का एक बड़ा कारण है.
दूसरा बड़ा कारण है, राहुल गांधी द्वारा प्रदेश के संगठन को मजबूत न करना. वे यह समझ ही नहीं पाए कि किस समय संगठन में बदलाव करना चाहिए और अगर बदलाव करना है, तो किन उद्देश्यों के लिए करना चाहिए, या जो लोग काम कर रहे हैं, उनमें से कौन लोग अच्छे हैं, जिन्हें नहीं बदलना चाहिए.
एक नेता की सबसे बड़ी खासियत होती है कि वो लोगों को उनकी योग्यतानुसार काम सौंपे. कांग्रेस में योग्यतानुसार काम सौंपने की परिपाटी ही नहीं है. यहां उन्हीं को काम सौंपने की परिपाटी है, जो गणेश परिक्रमा करते हों. इसलिए कांग्रेस के बारे में मैं ज्यादा कहना नहीं चाहता, क्योंकि कांग्रेसी कार्यकर्ता भी अब टीवी चैनलों पर आ कर साफ-साफ कहना शुरू कर चुके हैं.
राहुल गांधी पिछले 4 साल से कांग्रेस को अखिलेश यादव के मुक़ाबले खड़ा करने की कोशिश कर रहे थे. स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने के संदेश दिए, शिविर किए, बैठकें की और फिर अचानक अखिलेश यादव से समझौता कर लिया. पूरी पार्टी आराम की मुद्रा में आ कर बैठ गई. कार्यकर्ता चुनाव प्रचार के लिए नहीं निकला.
इन सारे सवालों या कमियों को देखने के बाद, हम भारतीय जनता पार्टी की तरफ आते हैं. नरेंद्र मोदी ने पिछले तीन सालों में बहुत सारे वादे किए. उन वादों पर कछुए की चाल से अमल भी हुआ. उन्होंने नोटबंदी कर दी, मध्य वर्ग को बहुत नुक़सान हुआ, तकलीफ हुई. इससे मध्य वर्ग और नेताओं ने भी मान लिया कि गरीब को भी इससे परेशानी हुई होगी.
इसमें कोई दो राय नहीं कि गरीब को भी परेशानी हुई. लेेकिन नरेंद्र मोदी ने ये माहौल बनाना शुरू किया कि वे अमीरों के खिलाफ हैं, कालेधन वालों के खिलाफ हैं, कालाबाज़ारी करने वालों के खिलाफ हैं, इसीलिए सारी पार्टियां उनका विरोध कर रही हैं. उन्होंने लोगों को सफलतापूर्वक समझाया कि नोटबंदी कर इन्हीं वर्गों को नुक़सान पहुंचा रहे हैं, इसीलिए सारे लोग उनका विरोध कर रहे हैं. दूसरा, नरेंद्र मोदी ने अपने हर कदम को देश प्रेम से जोड़ दिया. हमारे यहां देश प्रेम का मतलब होता है, पाकिस्तान से लड़ाई.
उन्होंने उसी मानसिकता का फायदा लिया और लोगों से कहा कि जो देश के साथ है, वो हमारे साथ है, यानी जो नरेंद्र मोदी के साथ है, वहीं देशभक्त है. ये हमारे महान विपक्षी नेता समझ ही नहीं पाए कि इस देश का गरीब कब उनके खिला़फ हो गया. इस देश के गरीब को लगा कि प्रधानमंत्री उनके लिए कुछ करना चाहते हैं, प्रधानमंत्री उनके हक़ में कुछ करना चाहते है, वे गरीबों को घर दिलाना चाहते हैं, रोजगार दिलाना चाहते हैं और नरेंद्र मोदी का विरोध करने वाले ये राजनेता उन्हें ये काम करने से रोक रहे हैं.
इस भावना ने वंचितों को, दलितों को, सभी समाज के गरीब तबके को नरेंद्र मोदी के साथ खड़ा कर दिया. खास कर नौजवान, नरेंद्र मोदी के साथ खड़ा हो गया. जिस नौजवान को अपने साथ रखने का भ्रम अखिलेश यादव ने पाल रखा था और इस भ्रम को एक गुब्बारे में उड़ा कर लोगों को दिखाया था, दरअसल वो पूरा का पूरा तबका नरेंद्र मोदी को वोट देने में अपना हित देखने लगा.
नरेंद्र मोदी ने फसल बीमा योजना, गांवों में मुफ्त रसोई गैस यानी उज्ज्वला योजना और जनधन खाते जैसे फैसलों से ये आभास दिया कि वे गरीबों के लिए कदम-दर-कदम कुछ करना चाहते हैं. इन कदमों से कोई बहुत ज्यादा फायदा तो नहीं हुआ, लेकिन एक योजना ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साख को गांव में और महिलाओं के बीच बढ़ा दिया. ये योजना थी, गांव में महिलाओं के बीच गैस चूल्हे और सिलिंडर का वितरण.
इस फैसले ने भारतीय जनता पार्टी का या नरेंद्र मोदी का आधार उत्तर प्रदेश के गांव में घर-घर तक पहुंचा दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिन-रात सभाएं की. लोगों के बीच में रहे. वहीं, लोग राहुल गांधी, प्रियंका गांधी को ढूंढ़ते रह गए. अखिलेश यादव भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समान दौरे नहीं कर पाए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश की लड़ाई को करो या मरो के रूप में लिया. उन्हें मालूम था कि अगर वे उत्तर प्रदेश में कमज़ोर हो जाते हैं या कम सीटें ला पाते हैं या हंग असेंबली होती है, तो उनके लिए गुजरात मुश्किल हो जाएगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे. उन्हें उत्तर प्रदेश या देश के दूसरे नेताओं पर कोई भरोसा नहीं था. इसलिए उन्होंने प्रचार की कमान सौ प्रतिशत अपने हाथ में रखी और उत्तर प्रदेश के हर कोने में जाकर अपनी बात कही. अपनी बातों से अखिलेश यादव को कम राहुल गांधी को ज्यादा बड़ा नेता बनाया और उनका संहार कर दिया.
न भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को ये अंदाजा था कि उन्हें इतनी सीटें आएंगी, न विपक्षी नेताओं को ये अंदाजा था कि उनका इतना बुरा हाल होगा. यहां तक कि पत्रकारों को इस अभूतपूर्व मोदी लहर का रंच मात्र भी स्पर्श नहीं हुआ और जिन्होंने सीटों का आकलन किया वे सिर्फ रुझान समझ पाए.
वे जनता के उस गुस्से को नहीं समझ पाए, जो गुस्सा समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी की अकर्मण्यता के कारण या उनके सत्ता में रहने के दौरान मिले घावों से लगा था. इसलिए लोगों ने जाति, धर्म, संप्रदाय, पार्टी सबकी सीमा तोड़ी और नरेंद्र मोदी को इस आशा में वोट दिया कि वे ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाएंगे या उस मुख्यमंत्री के ऊपर नजर रखेंगे, जो उत्तर प्रदेश के लोगों का विकास कर सके.
ये विकास का शेर बड़ा खतरनाक है. ये या तो अपने ऊपर सवारी करने देगा, या फिर सवार को ही खा जाएगा. इसलिए इस विकास नाम का गाना इतना ज्यादा हिंदुस्तान में सुना जा चुका है कि अब अगर दो सालों में विकास का रोडमैप नहीं बनता है या लोगों को समझ में नहीं आता है, या लोगों की जिंदगी में किसी प्रकार का सपना वास्तविकता में परिवर्तित होकर अपना असर नहीं दिखाता है, तो फिर शायद 2019 का चुनाव परेशानी वाला हो सकता है.
अफसोस की बात ये है कि चाहे भारतीय जनता पार्टी के नेता हों या कांग्रेस के नेता हों या समाजवादी पार्टी के नेता हों या बहुजन समाज पार्टी के नेता हों, वे हम पत्रकारों को अपना पब्लिक रिलेशन करने वाला पत्रकार बनाना चाहते हैं. असलियत दिखाने वाला पत्रकार नहीं बनाना चाहते. इसीलिए वे पत्रकार जो असलियत देखते हैं और इन दलों को दिखाते हैं, वे लोग इनके लिए त्याज्य हो जाते हैं. परिणाम स्वरूप पत्रकारों की साख, वैसे तो पत्रकारों ने खुद ही बहुत खत्म कर ली है, ये राजनेता भी उनकी साख खत्म करने पर तुले हुए हैं.
उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद इस बात का डर है कि जैसे विश्व के दूसरे देशों में पत्रकार मुख्य निशाना होने लगे हैं, शायद भारत में भी पत्रकार मुख्य निशाना होने लगें. मैंने उत्तर प्रदेश के बारे में इसलिए लिखा, क्योंकि उत्तर प्रदेश का परिणाम सर्वथा आश्चर्यजनक और जनता के गुस्से का द्योतक रहा है.