कई सवाल हैं, जिनका उत्तर शायद व़क्त के पास है. अगर सारे उत्तर व़क्त के पास हैं तो हमारे पास क्या है? हमारे पास है कोशिश और ईमानदार कोशिश. सवाल इसलिए खड़े हुए, क्योंकि हमने ऐसा काम करना चाहा, जो आम तौर पर लोग करने से हिचकते हैं. सहाराश्री सुब्रत राय ने उर्दू अ़खबार निकालने की हिम्मत की, यह जानते हुए कि उर्दू में अ़खबार निकालना फायदे का सौदा नहीं है. उन्होंने इसके कई संस्करण निकाले.
अंकुश पब्लिकेशन समूह के मालिक कमल मोरारका को फैसला करना था कि वह दिल्ली-मुंबई से एक साथ अंग्रेजी का द डेली निकालें या उर्दू का अंतरराष्ट्रीय साप्ताहिक, तो उन्होंने उर्दू के पहले अंतरराष्ट्रीय अ़खबार को निकालने का फैसला किया. हालांकि यह फैसला लेना आसान नहीं था. जैसे ही यह फैसला लिया गया कि उर्दू चौथी दुनिया को उर्दू के पहले अंतरराष्ट्रीय अ़खबार के रूप में निकाला जाए, यह भी फैसला हो गया कि यह अ़खबार ब्रॉडशीट होगा, ग्ले़ज पेपर पर होगा और सेवेन कलर में छपेगा. एक प्रति को छापने पर बहुत खर्चा आएगा, पर इसे उर्दू जानने वालों को पांच रुपये में ही पहुंचाया जाएगा. यह फैसला उर्दू जानने वाले बीस करोड़ लोगों के लिए उन लोगों ने लिया, जो खुद उर्दू नहीं जानते हैं.
जब कुछ लोगों से राय लेनी शुरू की तो सबसे पहले सवाल आया कि हमें उर्दू का मिज़ाज़ जानना चाहिए. हम चौंक गए, क्योंकि हर तरह की सांप्रदायिकता से हमारा सामना हुआ था, लेकिन कभी भाषा की सांप्रदायिकता से सामना नहीं हुआ था. क्या हिंदी स़िर्फ हिंदी बोलने वाले ग़ैर मुसलमानों के लिए है और उर्दू से क्या वे लोग प्यार नहीं कर सकते, जो मुसलमान नहीं हैं. हो सकता है हमारा पहला सामना सही लोगों से नहीं हुआ, पर भले वे ग़लत लोग रहे हों, उन्होंने सवाल तो खड़ा कर ही दिया. और हमने सोच-समझ कर फैसला लिया कि उर्दू चौथी दुनिया निकालना ही है, क्योंकि उर्दू हमारे लिए आज़ादी की जंग लड़ने वाली ज़ुबान है, उर्दू दर्द और तक़लीफ को हथियार में बदलने वाली ज़ुबान है, उर्दू समाज के बदलाव की ज़ुबान है, उर्दू इंक़लाब की ज़ुबान है, उर्दू प्यार-मुहब्बत और भाईचारे की ज़ुबान है, उर्दू इस देश में रहने वाले हर भारतीय की ज़ुबान है.
देश के बुनियादी सवाल, जिनका रिश्ता भारत में रहने वाले हर इंसान से है, क्यों नहीं उर्दू जानने वालों के सामने लाए जाएं. बेकारी, भूख, दहशतगर्दी और असंतुलित विकास का शिकार हर भारतीय है तो क्यों नहीं उर्दू जानने वालों के सामने यह तथ्य लाया जाए. नाइंसा़फी के शिकार मुसलमानों के साथ भारत के दूसरे वर्ग भी हैं तो इसके आंकड़े क्यों उर्दू जानने वालों तक नहीं पहुंचते. कुछ लोग ज़रूर इस काम में लगे हैं, हम भी ऐसे लोगों की कतार में शामिल होना चाहते हैं.
दरअसल उर्दू में चौथी दुनिया निकालने का दबाव उन दोस्तों ने बनाया, जो उर्दू और हिंदी दोनों जानते हैं. उनका कहना था कि हर हालत में उर्दू में चौथी दुनिया निकाला जाए और वैसे ही बेबाक, बेलौस और बे़खौ़फ अंदाज़ में निकले, जैसी हिंदी चौथी दुनिया निकलती है. यह हिंदी का उर्दू में तर्जुमा न हो, बल्कि मुक़म्मल अंतरराष्ट्रीय अ़खबार का कलेवर और चेहरा लिए हुए हो. ऐसे लोगों में भारत के भूतपूर्व वित्त एवं वाणिज्य सचिव श्री एस पी शुक्ला का नाम पहला है, जिन्होंने इसके लिए एक साल तक बराबर दबाव डाला. ऐसे सभी दोस्तों की हौसला अ़फजाई की वजह से हम 20 करो़ड उर्दू जानने वालों के लिए चौथी दुनिया के रूप में सौगात लेकर आए हैं. हमारा मानना है कि उर्दू दुनिया की सबसे ताक़तवर ज़ुबानों में एक है. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के लगभग 50 करोड़ लोग उर्दू जानते हैं और बोलते हैं. यह दुर्भाग्य है कि भारत में उर्दू अभी अपना सही स्थान बनाने के लिए संघर्ष कर रही है, जबकि होना यह चाहिए था कि उर्दू फैसला करने वाली जुबान के रूप में जानी जाती. उर्दू फैसला करने वाली जुबान बने, इसमें चौथी दुनिया भी अपना हाथ बटाना चाहती है.
क्यों उर्दू जानने वाले लोग अपने को कम संख्या में मानें, जबकि होना इससे अलग चाहिए. उर्दू जानने वाले लोग भारत में राजनैतिक रूप से सबसे जागरूक लोगों में से हैं. क्राइसिस के समय उन्होंने हमेशा सही राजनैतिक फैसला लिया है. लेकिन आज वे न देश के राजनैतिक नक्शे में कहीं हैं, न शैक्षणिक, न आर्थिक और न सामाजिक नक्शे में दिखाई देते हैं. उनके अपनी मेहनत से शुरू किए गए संस्थानों पर बंद होने का खतरा मंडराने लगा है. चौथी दुनिया का मानना है कि उर्दू जानने वालों की यह बेबसी खत्म होनी चाहिए. इसी के साथ देश के राजनैतिक नेतृत्व में भी अगुआई लेने की लड़ाई उर्दू जानने वालों को शुरू करनी होगी. राजनैतिक पिछड़ापन और राजनैतिक पिछलग्गूपन कैसे समाप्त हो, इसकी रणनीति बनानी चाहिए.
उर्दू का इंक़लाबी चेहरा आज सामने लाने की ज़रूरत है. भगत सिंह, अशफाकउल्ला और राजगुरू ने आखिरी समय इंक़लाब जिंदाबाद कहा था और यह नारा उर्दू का नारा न बनकर देश का नारा बन गया है. सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है, इसे लिखा उर्दू में बिस्मिल ने था, पर यह केवल उर्दू जानने वालों का गीत नहीं था, यह बदलाव और आज़ादी चाहने वालों का राष्ट्रीय गान बन गया था. जब तेलाई रंग में सिक्कों को नचाया जाएगा, ऐ वतन उस व़क्त भी मैं तेरे नग्में गाऊंगा, कभी बच्चा-बच्चा गाता था. आज फिर ऐसी ऩज्मों और ग़जलों की ज़रूरत है. ऐसी उर्दू का क्रांतिकारी चेहरा थोड़ा धुंधला गया है, इसे निखारने की कोशिश हम सभी भारतीयों को करनी चाहिए और हम करेंगे.
भारत में एक ऐसा वर्ग है, जो उर्दू को जहालत, पिछड़ापन, सांप्रदायिकता और अलगाव की भाषा कहना चाहता है और प्रचारित करना चाहता है. इस वर्ग के साथ उन सभी को लड़ना चाहिए, जो इससे सहमत नहीं हैं. चौथी दुनिया इस लड़ाई में उर्दू जानने वाले उन सभी लोगों के साथ है, जो आगे बढ़कर ऐसे लोगों के खिलाफ अपना हाथ खड़ा करना चाहते हैं.
एक सपना है और ज़ाहिर है हम ख्वाब अपनी ज़िंदगी में ही देख सकते हैं और पूरा करने की कोशिश कर सकते हैं. सपना है कि इंसानियत में भरोसा करने वाला, इंसानी उसूलों में विश्वास करने वाला समाज बने. इंसानी मूल्यों में विश्वास करने वाले सभी वर्ग एक साथ आएं और एक नया आग़ाज़ करें, एक नई शुरुआत करें. उर्दू बोलने वाले इसकी अगुआई क्यों न करें? चौथी दुनिया का सपना है कि ऐसा ही हो और इसी सपने को पूरा करने की कोशिश करने के लिए उर्दू चौथी दुनिया निकालने का फैसला हुआ है. सपना पूरा कब होगा, पता नहीं, पर सपने को पूरा करने की कोशिश की ओर यह एक क़दम भर है.