उपमा की इन नौ कविताओ में दरअसल एक ही कविता है, मगर निहितार्थ की परत अलग अलग है.विचार यहाँ स्त्री और देवी के बीच दोलन करते हुए दोनों स्थितियों की विडंबना को बताता है. कविता में भारतीय मनीषा के रहस्यों का यहाँ विशुद्ध चित्रण है.धर्म और जीवन में जो फर्क है आइने की तरह स्पष्ट दिखाया गया है जो जाहिर है केवल कवि की चेतना ही बयाँ कर सकती है.
जागेगी देवी अहोरात्र,झोंक दिया है अपना एक अंश शक्ति ने चूल्हे में,एक देवी निकली है अभी अभी सोनगाछी की गलियों में,जमुना के घाट पर गूंजा है आर्तनाद अभी अभी,बची रहती है एक आहट शरद की इन अंधेरों में तैरते
जैसी पंक्तियों में उद्वेलन के अंगारे हैं, समूची काव्यभाषा एक शीतल राग में चलते हुए भी भीतर अग्निस्रोत लिए हैं
ये कविताएँ ठहरकर पाठ की माँग रखती हैं. मुझे यह भी जोडना उचित लगता है कि अपनी इसी सहजता में
उपमा ऋचा कविता में दर्शन को उपस्थित कर देतीं हैं.

ब्रज श्रीवास्तव

 

1-
सृष्टि की अतल आंखों में
फिर उतरा है शक्ति का अनंत राग
धूम्र गंध के आवक स्वप्न रचती
फिर लौट आई है देवी
रंग और ध्वनि का निरंजन नाद बनकर
लेकिन अभी टूटी नहीं है धरती की नींद
इसलिए जागेगी देवी अहोरात्र…

2-
पूरब में शुरू होते ही
दिन का अनुष्ठान
जाग उठी हैं सैकड़ों देवियां
एक-साथ
ये देवियां जानती हैं कि
थोड़ी देर में जागेगा घर
जागेंगी आवाज़ें
जागेगी भूख
इसलिए हवा में घोलकर धूम्र गंध
झोंक दिया है शक्ति ने
अपना एक अंश
चूल्हे में…

3-
हवा के षडज और पञ्चम के बीच
समय के रिक्त घट में
भरने आस्था का जल
काल पुरुष के कंधों पर सवार हो
एक देवी निकली है अभी-अभी
सोनगाछी की गलियों से
जलभरे नेत्र देखते हैं
देवी को जाते हुए
पृथ्वी के एक सिरे से, दूसरे सिरे की ओर
अवसन्न हैं हुगली के मंत्रपूरित रास्ते,
अब शायद जल ही समझेगा
जल का भार

4-
चैतिया दोपहर की तीखी धूप में
जमुना के घाट पर
गूंजा है एक आर्तनाद अभी-अभी
आज फिर कोई
केशहीना देवी करेगी संहार
और धवल हो आए अपने श्वेत-वसन को भिगोती
डब-डब आंखों से
नाप लेगी
समय की तमाम मृत-विस्मृत चूलें

5-
जो कल तक देवी थी,
आज धोकर अपना तीसरा नेत्र
नाप रही है काठमांडू के रास्ते
अपने उन्हीं पैरों से
जिनके लिए कल तक वर्जित था
पृथ्वी का स्पर्श…
धर्म कहता है
क्योंकि अब वो कुमारी नहीं रही
इसलिए अब देवी भी नहीं रही
लेकिन ये बात धर्म नहीं
सिर्फ एक देवी ही समझ सकती है कि
जैसे कठिन है मनुष्य होकर देवत्व की परिधि में जीना
वैसे ही सरल नहीं देवत्व की परिधि को लांघकर
मनुष्यत्व की ओर लौटना

6-
सबकी नज़रों से बचते-बचाते
वह तांबई हाथ लिए आ रहा है देवी फूल
अनभ्यस्त पैरों में रह-रह फंसता है साड़ी का छोर
पुजारी मुस्कुराता है,
मंदिर में आज देर तक बजेंगे नूपुर
लेकिन…
सहसा चमकते हैं दो अग्निस्फुलिंग
और भग्न मंदिर की भित्तियों में
लहराता है एक हाथ
और किसी टंकार,
किसी ललकार सी गूंज उठती है एक ताली
अब समय प्रतीक्षारत है
दूसरी ताली के लिए…

7-
गांव के बाहर
दो बूढ़ी आंखें
काली मिट्टी और घास-फूल से
गढ़ती रहती हैं देवी प्रतिमाएं
रात-दिन
‘लेकिन इनकी देह की माप से बड़ी क्यों है
चेहरे की माप
और आंखें उससे भी बड़ी?’
एक बार पूछा, तो जवाब मिला,
‘ताकि महाचुप की इस लग्न में
कहीं तो शेष रह सके समय की परछाईं….’

8-
आत्मा की चौखट पर
एक चिड़िया पंख समेटे बैठी है
चिड़िया की आंखों में आसमान है
चिड़िया उड़ सकती है
लेकिन चिड़िया देखती है
उस शरद को
जो आ बैठा है जीवन की डाल पर
माघ, चैत और असाढ़ के बाद
चिड़िया उड़ सकती है
लेकिन गाती है एक गीत
उंस शरद के लिए
जो आ बैठा है जीवन की डाल पर
माघ, चैत और असाढ़ के बाद…

9-
शरद के अंधेरों में तैरती है एक आहट
और स्मृतियों में उतरते आते हैं
कपूर गंध में डूबे पखेरू से दिन
गांव के अंतिम छोर पर जलता दिया
लता-पत्रों के बीच झूलती फुंगनियों जैसे
ज्वाला जोगी के तेलपूरित केश
एक हाथ में जल, दूसरे में अग्नि लिए
अनंत जागरण रचती शुभ्र धूप-सी कुमारियां
और सदा निर्वाक रहने वाली गली से उठती देवी गीतों की थाप
नौ दिन जलते उस अखंड दिए की महक में
खो जाता है समय का बहना
बची रहती है एक आहट
शरद के इन अंधेरों में तैरती…

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