उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव सर पर हैं. संभवत:, दिसंबर में चुनाव होने की उम्मीद है. उत्तर प्रदेश में अनुमान के विपरीत राजनीतिक घटनाएं घट रही हैं. किसी को अंदाजा नहीं था कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में इस तरह की हलचल होगी, जो लोगों को चौंका देगी.
समाजवादी पार्टी में कार्यकर्ता पार्टी की स्थिति को लेकर अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह से मिलकर उन्हें समझा रहे थे कि पार्टी को गतिमान और चलायमान करने की जरूरत है. मुलायम सिंह यादव ने शिवपाल को उत्तर प्रदेश चुनाव में पार्टी का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी सौंपी. उन्हें चुनाव के बारे में कोई भी फैसला लेने के लिए अधिकृत कर दिया गया. शिवपाल यादव को मिली इस नई जिम्मेदारी ने पार्टी कार्यकर्ताओं में उत्साह की एक लहर फूंकी. शिवपाल सिंह यादव ने सबसे पहले बेनीप्रसाद वर्मा को कांग्रेस से तोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल किया और उन्हें राज्यसभा भेजा. उन्होंने उत्तर प्रदेश के कुर्मी समाज को ये संदेश दिया कि उनके सबसे बड़े नेता को समाजवादी पार्टी में पुन: शामिल करने से कुर्मी समाज बेहिचक समाजवादी पार्टी में अपनी हिस्सेदारी तलाश सकता है. शिवपाल यादव पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मायावती से टक्कर लेने के लिए अजीत सिंह से हाथ मिलाना चाहते थे लेकिन शायद अजीत सिंह की जल्दबाजी या शायद उनके फैसले लेने में गलत आकलन की वजह से बातचीत टूट गई. अब भी अजीत सिंह समाजवादी पार्टी के साथ जा सकते हैं, इसकी संभावना अखबारों के जरिए बार-बार राजनीतिक पटल पर दी जा रही है. शिवपाल यादव मायावती का मुकाबला करने के लिए शायद नीतीश कुमार से भी संपर्ककर सकते हैं, जिनके पीछे उत्तर प्रदेश का संपूर्ण कुर्मी समाज जाता हुआ दिख रहा है.
बहुजन समाज पार्टी से स्वामी प्रसाद मौर्य का अचानक इस्तीफा सामने आया. मौर्य बहुजन समाज पार्टी से इस्तीफा दे सकते हैं, इसकी कल्पना दूर-दूर तक किसी को नहीं थी. वे मायावती के विश्वासपात्र लोगों में भी माने जाते थे. लेकिन, स्वामी प्रसाद मौर्य का बहुजन समाज पार्टी से इस्तीफा और उनका इस आरोप को दोहराना कि मायावती पैसे लेकर टिकट देती हैं, ये बताता है कि शायद स्वामी प्रसाद मौर्य को ये एहसास हो गया था कि आने वाले कुछ महीनों में, चुनाव से पहले, उन्हें पार्टी से निकाला जा सकता है. दरअसल, बहुजन समाज पार्टी के भीतर षड्यंत्रों का सिलसिला लगातार चलता रहता है और कौन बसपा अध्यक्ष मायावती के करीब है, इसकी लड़ाई छद्म तरीके से चलती रहती है. स्वामी प्रसाद मौर्य के बसपा से बाहर आने का सबसे बड़ा फायदा नसीमुद्दीन सिद्दीकी को होने वाला है. मायावती इस वार को आसानी से झेल लेंगी, ऐसा नहीं लगता. वे पूरी कोशिश करेंगी कि स्वामी प्रसाद मौर्य किसी भी तरह से विजयी होकर उत्तर प्रदेश विधान सभा में न पहुंच पाएं.
समाजवादी पार्टी में ये अफवाह बहुत ज्यादा फैली है कि पार्टी को लेकर मुलायम सिंह यादव और शिवपाल सिंह यादव की एक राय है और अखिलेश यादव व रामगोपाल यादव की राय दूसरी है. अखिलेश यादव, रामगोपाल यादव पर ज्यादा विश्वास करते हैं और मुलायम सिंह पार्टी के मसलों पर शिवपाल सिंह यादव पर ज्यादा भरोसा करते हैं. इस द्वंद्व में अखिलेश के छोटे भाई प्रतीक यादव और उनकी पत्नी भी हैं, जिनके बारे में माना जा रहा है कि वे ऐन मौके पर समाजवादी पार्टी को भारतीय जनता पार्टी के साथ लाकर न खड़ा कर दें. इन दिनों उनके गहरे रिश्ते भारतीय जनता पार्टी के साथ बन रहे हैं. होे सकता है कि सच्चाई ऐसी न हो और रामगोपाल यादव, अखिलेश यादव, शिवपाल सिंह यादव, प्रतीक यादव और खुद मुलायम सिंह यादव के बीच में कहीं, कोई मतभेद न हो. पर समाजवादी पार्टी के सूत्र जिन घटनाओं का जिक्र करते हैं, उनसे ये लगता है कि वहां सब कुछ ठीक नहीं है. शिवपाल यादव को उत्तर प्रदेश चुनाव में पार्टी की कमान सौंपने का फैसला शायद न तो अखिलेश यादव को समझ में आया और न ही रामगोपाल यादव को. मुलायम सिंह यादव के पास जब रामगोपाल यादव जाते हैं तो अपने जैसा फैसला करा लेते हैं, जिसका उदाहरण बिहार में चुनाव से पहले विपक्षी दलों की एकता का खात्मा माना जाता है. सभी लोगों ने जिनमें लालू यादव, नीतीश कुमार, देवगौड़ा, ओमप्रकाश चौटाला, कमल मोरारका जैसे नेता शामिल थे सार्वजनिक तौर पर प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुलायम सिंह यादव को अपना अध्यक्ष मान लिया था. उनके चुनाव चिन्ह को अपना चुनाव चिन्ह मान लिया था और पार्टी का नाम भी समाजवादी जनता दल रखना लगभग तय कर लिया था. सार्वजनिक रूप से माला पहनाते हुए नीतीश कुमार, लालू यादव, देवगौड़ा और ओमप्रकाश चौटाला सहित कमल मोरारका इस राय से सहमत थे कि अब विपक्ष की एक पार्टी बननी चाहिए, जो पूरे देश के लोगों की भावनाओं को सामने रखकर नया राजनीतिक अभियान छेड़े, पर ऐसा नहीं हुआ.
अब कुछ फैसले शिवपाल यादव लेते हैं, तो अखिलेश यादव और राम गोपाल यादव उन्हें मुलायम सिंह से वापस करा देते हैं और कुछ फैसले चुनाव से जुड़े हुए जो शिवपाल यादव लेते हैं उन्हें भी अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव अपने पक्ष में नहीं मानते हैं. हो सकता है कि थोड़े दिनों में समाजवादी पार्टी की कमान राष्ट्रपति जैसी व्यवस्था के तहत सीधे मुलायम सिंह यादव के हाथों में चली जाए. मुलायम सिंह यादव पार्टी कार्यकर्ताओं के प्यारे हैं, लेकिन चुनाव का मुकाबला करने की स्थिति में दस साल पुरानी ऊर्जा वे स्वयं में कैसे पैदा करेंगे यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है.
बहुजन समाज पार्टी सिर्फ और सिर्फ अपनी अध्यक्ष मायावती के ऊपर निर्भर है. मायावती पिछले चार साल से शांत बैठी हुई हैं. वे राजनीति में हैं सिर्फ इसके लिए उन्होंने कुछ प्रेस कॉन्फ्रेंस की है. उन्होंने बहुत होशियारी के साथ चार साल खामोशी में काट दिए और इस चार साल की खामोशी का फायदा उन्हें अगले चुनाव में मिलता दिख रहा है.
आगामी चुनाव बुनियादी तौर पर भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच होने वाला है. देखना सिर्फ यह है कि भारतीय जनता पार्टी अपनी सारी कमजोरियों को ताक पर रखकर क्या इस चुनाव को भारतीय जनता पार्टी बनाम बहुजन समाज पार्टी बना सकती है या भारतीय जनता पार्टी बनाम समाजवादी पार्टी बना सकती है या नहीं. अगर भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव को सीधी टक्कर में नहीं बदल पाती तो उसके दूसरे या तीसरे नंबर के संघर्ष में पड़ने की संभावना बढ़ जाती है. कांग्रेस अभी बीच में खड़ी है, नीतीश कुमार शुरुआत कर रहे हैं. चुनावी दौड़ में बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी एक दूसरे से आगे-पीछे चल रही है, पर जिस तरह की तोड़-फोड़ शुरू हुई है उससे ये लगता है कि उत्तर प्रदेश का यह चुनाव पिछले साठ सालों में सर्वाधिक आश्चर्यचकित करने वाला चुनाव होगा. इस चुनाव के मुख्य खिलाड़ी नंबर एक शिवपाल यादव, नंबर दो राजनाथ सिंह, नंबर तीन मायावती और नंबर चार कांग्रेस का कोई भी नेता होगा. नीतीश कुमार को अभी तय करना है कि उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी का चेहरा कौन होगा, उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी की कमान कौन संभालेगा और वे किस वर्ग को अपने साथ लेकर अपने को प्रासंगिक साबित करेंगे.