हमारे यहां सिनेमा का मालिक हमारा दोस्त है। खानदान कांग्रेसी था लेकिन नयी पीढ़ी का कांग्रेस से ऐसा भ्रम टूटा कि अब वे कांग्रेस के दुश्मन और मोदी भक्त हो गये। मैंने कहा दोस्त मुझे ‘सैम बहादुर’ फिल्म देखनी है, कल चुनाव नतीजे देखने के बाद परसों आऊंगा। वह हंसते हुए बोला, बिल्कुल अंकल कल तीनों राज्यों में बीजेपी जीतेगी और आप उदास मन से परसों आना। मन बहल जाएगा। मुझे उसकी नादानी पर तरस आया और गुस्सा भी। सोचा भ्रम में है । पता नहीं कौन से तीन राज्य कह रहा है। छत्तीसगढ़, मप्र और राजस्थान में तो कांग्रेस जीत ही रही है। लेकिन रविवार शाम तक जब सब तय हो गया तो हैरानी हुई कि इस मामूली से आदमी को कैसे तीनों राज्यों में बीजेपी की जीत की असलियत पता चली । जबकि खुद बीजेपी के लोग तक मान रहे हैं कि छत्तीसगढ़ और मप्र में तो कांग्रेस जीत ही रही है। लेकिन यह उसका सच था जिसे हम भ्रम कहें और वह हमारा भ्रम था जो हवा हो गया।
एक और देखिए। एक राजीव रंजन सिंह हैं। सोशल मीडिया के चैनलों पर मेहमान के रूप में आते हैं। अडानी स्पेशलिस्ट माना जाता है उन्हें। हैं भी । हम भी उनकी बात को बड़े गौर से सुना करते हैं। उन्होंने आशुतोष के एक कार्यक्रम में जोरदार तरीके से अपनी बात रखते हुए कहा कि चौबीस में दक्षिण, पश्चिम और उत्तर में मान कर चलिए कि भाजपा साफ है। एक बार नहीं दो बार बहुत जोर देकर कहा। सारे पैनलिस्ट उनका यह आत्मविश्वास देख कर हंसने लगे। गनीमत है उन्होंने पूर्वी भारत को छोड़ दिया। यानी उनके मुताबिक देश के एक तिहाई हिस्से से भाजपा चौबीस में साफ हो जाएगी । अब राहुल गांधी के भ्रम की बात सुनिए। वे जिस तरह युवा तुर्क की तरह तैश में बोलते हैं उसी तैश में वे कांग्रेसियों के बीच फट पड़े कि कांग्रेस पार्टी टूटती हो तो टूट जाए लेकिन मैं ओबीसी का मुद्दा नहीं छोड़ूंगा। यानी वे अपने इस सच (भ्रम) के साथ खड़े हैं कि ओबीसी के मुद्दे पर डट कर मैं भाजपा की वाट लगा दूंगा। एक हमारी महिला पत्रकार मित्र हैं उनका कहना है कि इस सरकार के खिलाफ पब्लिक मूवमेंट से ही आंदोलन फूटेगा। हमने कहा पब्लिक के बीच से आपको उम्मीद है कि फिलहाल कोई आंदोलन फूटेगा। वे बोलीं, समय लगेगा। चाहे पचास साल बाद ही। लेकिन होगा पब्लिक मूवमेंट से ही । हमने कहा तब तक तो न हम रहेंगे और न आप । पचास साल बाद किसने देखा है। वे बोलीं चाहे जो हो । यानी वे इस सरकार की उम्र शायद पचास साल तय कर रही थीं । चौथी बात कल लाउड इंडिया टीवी पर संतोष भारतीय से बात करते हुए अभय दुबे ने कही । उन्होंने कहा कि अब यह तय मानिए कि जिसके साथ कॉरपोरेट जगत है, बड़ी ब्यूरोक्रेसी है और समाज का द्विज वर्ग यानी ऊंची जातियां हैं सत्ता उसी की होगी। और इस समय ये तीनों मोदी और बीजेपी के साथ हैं। जब तक तीनों वर्गों के इस समीकरण को नहीं हिलाया जाता तब तक कुछ भी और संभव नहीं। यानी अभय दुबे ने डॉट लगा दी है। सब कुछ साफ़ है। जो होना है इस समीकरण को हिला कर ही होना है। शायद हम इसको भ्रम नहीं कह सकते। यह चौतरफा सत्य ही लगता है। और अगर यही सत्य है तो फिर विपक्ष के अलग अलग दावों के क्या मायने हैं।
फिलहाल इंडिया गठबंधन की गत क्या है। गत बहुत बुरी है। किसी को किसी की परवाह नहीं है जैसे। फिर भी सब एक होने का दम भरते हैं और मिल कर बीजेपी को हराने की बात करते हैं। बेशक तीन राज्यों में हुई हार से कांग्रेस की अकड़ कम हुई है और वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग जी तो यही चाहते भी थे शायद। लेकिन वे यह भूल गये कि इस सेमिफाइनल में मोदी के हाथ जीत देने के मायने क्या होंगे। अब तो साफ दिखता है कि विपक्ष कुछ भी कर ले यदि जेपी जैसा कोई उन सबको बांध कर चलने वाला नेतृत्व उन्हें नहीं मिला तो वे मिल मिल कर फिर फिर टूटेंगे। ऐसे में जनता में क्या संदेश जाएगा। कल अभय दुबे ने कांग्रेस आलाकमान पर काफी कुछ कहा और पूछा कि आलाकमान है कहां। जरा सोचिए एक आलाकमान इंदिरा गांधी के समय था और तब से अब तक कांग्रेस आलाकमान हमेशा चर्चा में रहा। लेकिन अब तो राहुल गांधी ही जैसे आलाकमान का शब्द नहीं जानते। आलाकमान न हो तो पार्टी का सांगठनिक ढांचा मजबूत होना चाहिए। ऊपर से नीचे तक पार्टी में मजबूत लोकतंत्र होना चाहिए। क्या राहुल गांधी इन सब चीजों से वाकिफ हैं। वे कांग्रेस के नये नये मुल्ला बने हैं। कभी वे मुहब्बत की बात करते हैं। कभी तैश में आकर एंग्री यंगमैन बन जाते हैं। कभी संतों वाली भाषा बोलने लगते हैं। कभी कमान अपने हाथ में लेना चाहते हैं तो कभी मल्लिकार्जुन खड़गे को आगे रख कर चलना चाहते हैं। अभय दुबे का मानना है कि तीनों राज्यों के मुख्यमंत्री स्वयं में आलाकमान थे । यानी तीनों जगह राहुल गांधी की कुछ नहीं चली। कमलनाथ और गहलोत ने तो कह ही दिया था कि राहुल गांधी हमारे यहां न आयें। यह राहुल गांधी की स्थिति है। सोचिए कि 2018 के चुनावों में राहुल गांधी ने अपनी आंधी चला दी थी फिर भी चारों खाने चित्त हो गये । इस बार राहुल गांधी तीनों राज्यों से दूर रहे फिर भी कांग्रेस चारों खाने चित्त हो गयी ।तो राहुल गांधी हों या कांग्रेस आलाकमान या कांग्रेसी नेता । क्या सब जोकर साबित नहीं हो रहे ? दूसरी ओर बीजेपी में मोदी की स्थिति है। वहां पत्ता भी नहीं हिलता मोदी के बिना। तो मान कर चलिए कि यह देश लोकतंत्र लोकतंत्र करता हुआ आलाकमान की तानाशाही पसंद करता है। आधे से ज्यादा देश के नायक हैं – मोदी। आप स्वयं देखें और तुलना करें 2014 के मोदी और 2023 के अंत के मोदी के बीच। अंतर साफ है।
देश विदेश में जो आज मोदी को लेकर फीलगुड का माहौल है और मोदी के नायकत्व के सामने तमाम मुद्दे हवा हैं , ऐसे में भी विरोधी पक्ष को लगता है कि चौबीस का चुनाव मुद्दों पर लड़ा जाएगा। राजीव रंजन सिंह इसी बात के आधार पर दक्षिण पश्चिम और उत्तर में बीजेपी को साफ होते बता रहे हैं। जबकि सत्य यह है कि मोदी ने बड़ी कामयाबी से मुद्दों को गौण कर दिया है और अपने ‘मैं’ को इतना बल दिया कि लोग ‘मोदी की गारंटी’ पर यकीन करने लगे। लोकतंत्र सिर्फ एक व्यक्ति का हो गया। पता नहीं कैसे मोदी विरोधी तरह तरह के भ्रमों में जी रहे हैं। दस साल में एक व्यक्ति निरंतर मजबूत होता गया और हम मुद्दों के उलझाव में उसको हराने का दंभ भरते रहे । हकीकत को कौन समझेगा। मोदी की तैयार की हुई जनता मोदी को देश में ही नहीं विश्व पटल पर भी सफल(?) होते देख कर झूम रही है और तमाम पिछली सरकारों को इसलिए कोस रही है कि विश्व में भारत का ऐसा दबदबा पहले कभी नहीं देखा। कोई भी व्यक्ति या कोई भी दल सत्ता पर तब काबिज होता है जब जन बल उसके साथ होता है। यह जन बल तब बनता है जब उस व्यक्ति या दल के पक्ष में परसेप्शन बनता है। अभी तक तो विपक्ष परसेप्शन बनाने में विफल रहा है। डर है कि देर होते होते ऐसा न हो जाए कि विपक्ष की एकता दिखाई भी पड़े लेकिन तब तक जनता का विश्वास उससे उठ जाए ।
‘एनीमल’ फिल्म पर कल ‘सिनेमा संवाद’ में अच्छी चर्चा हुई। आजकल इस बेहूदा फिल्म ने धूम मचाई हुई है। कल की चर्चा में शीबा असलम फहमी छाई रहीं। उन्होंने फिल्म मेकर को चैलेंज किया कि ऐसी ही एक फिल्म और बना कर दिखाएं जिसका नायक मुस्लिम, दलित या आदिवासी हो । शीबा की बात में दम तो है। उन्होंने एक बात की ओर यह भी ध्यान दिलाया कि ‘कबीर सिंह’ फिल्म हो यह फिल्म। दोनों के नायक को कोई दुख नहीं है। वे सुखी हैं। वास्तव में देखा जाए तो ‘एनीमल’ में हिंसा का स्वरूप दरअसल पिछले दस सालों में हुई हिंसा का कोलाज़ हमें ज्यादा लगता है । क्योंकि फिल्मों में हिंसा तो फिल्मों के जन्म से ही रही है। भीषण से भीषण हिंसा देखने को मिली पहले की फिल्मों में। लेकिन समाज कभी पिछले दस सालों जैसी सतत हिंसा का गवाह नहीं रहा। पिछले दस सालों में हम सतत हिंसा को होते हुए देख रहे हैं और यह भी देख रहे हैं कि कहीं न कहीं इस हिंसा को सत्ता का संरक्षण भी प्राप्त है। और उसी का प्रस्फुटन एक तरह से ‘एनीमल’ फिल्म में दिखा, ऐसा कहा जा सकता है।
चौबीस में यह सत्ता बरकरार रहती है तो समझ लीजिए ‘एनीमल’ फिल्म का अगला भाग दर्पण होगा । पता नहीं हमारे समाज के कर्णधार कहां हैं। देश, समाज और फिल्में सब एक से ढांचे में ढलते से दिख रहे हैं। यानी अभय दुबे के अनुसार आज्ञापालक समाज। तो क्या यही आजादी का नया जश्न होगा , जिसे अमृत काल के नाम से जाना जा रहा है ???
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