भारत: नैतिक मूल्यों के गिरते हुए और अच्छाई और बुराई में मिटते हुए फासलों को देखते हुए ये जान लेना मुश्किल नहीं कि मानवता को नैतिक मुल्य प्रदान करने वाली सभी संस्थाओं का अंत हो चूका है। या उनका इतना कबाड़ा कर दिया गया है कि वे सिर्फ अपने नाम में ही जीवित हैं जबकि उनकी आत्मा प्रभु को प्यारी हो चुकी है। धर्म की और देख लो। महज़ एक प्रथा बन गया है। नैतिक शिक्षाएँ पवित्र ग्रंथों के पन्नों में सिमट कर रह गयी हैं। धर्म के नाम पर जो हो रहा है उसमे देवियता का आभाव दिखाई देता है। धर्म एक फॉर्मल संस्था बन कर रह गया है जबकि इसकी आत्मा को निकाल फेंका गया है। अध्यापन दूसरी ऐसी संस्था है जो अपनी ऊंचाई खो बैठी है। ये अब नोबल प्रोफेशन नहीं रहा। अध्यापक को वेतन चाहिए। बच्चे पालने हैं। परिवार चलाना है। इस से आगे और कुछ नहीं। यूं भीं सिलबस में से साहित्य को देश निकला दे दिया गया है। ज़्यादा से ज़्यादा पत्र लिखना सीख लो, इश्तिहार बनाने सीख लो। ये कम्पटीशन का ज़माना है। इसमें साहित्य नहीं, अपने हित की फ़िक्र की जाती है। इसके साथ ही गिर जाने वाली एक और संस्था है घर । कभी घर हुआ करते थे, घरों में परिवार रहते थे, बच्चों को रामायण महाभारत राजा हरीश चन्दर दादी दादा ही तो पढ़ाया करते थे। वो लोग भगवान में आस्था रखते थे। आज की तरह दिखावा नहीं था। आज तो हमे नैतिकता के स्पेलिंग बताने वाला भी कोई नहीं रहा। बस टीवी है जो सारा दिन ये खाओ वो खाओ करता है और खपतकारिता को बढ़ावा देता है।
मनुष्य नहीं मैनीपुलेटर चाहिए :
सभी नैतिक बंधन टूट जाने के बाद अब हम एक ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं जिसमे बहुत बेआसरा महसूस कर रहे हैं। मार्किट इकॉनमी ने सभ को डस लिया है। हमे सफलता चाहिए , धन दौलत चाहिए, ऐश्वर्या चाहिए। हमे ये भी मान लेना ज़रूरी है के समाज में जो भी होता है वो सरकार की मर्ज़ी से होता है। सरकारों को क्या चाहिए ? स्मार्ट मनुष्य जो बुद्धिमान हो ता कि वह दूसरों में दिमागों पर राज कर सके। दुसरे शब्दों में आधुनिक समाज को मनुष्य नहीं, मैनीपुलेटर चाहिए, जिन्हें सफल होना आता हो , क्यों कि इस मुकाबले से भरी दुनिया में वही लोग चल सकते हैं जो दूसरों की गति विगाड़ सकें और खुद आगे निकल सकें।
बेईमानी की बढ़ती हुई संस्कृति ने मनुष्य की आतम घाती बिर्ति को बढ़ावा दिया है और हमारे विनाश की और बढ़ते हुए कदमों को और तेज़ कर दिया है। दार्शनिक रूप से देखें तो हम कलयुग के अंतिम दौर में दाखिल हो चुके हैं जहाँ पर चीज़ों के टूट कर बिखरने की गति बहुत बाद गयी है। हमारी सभयता का अंत अब दूर नहीं है क्यों कि नैतिक मान्यताओं की तरफ से हमारा ध्यान ओझल हो चूका है और वो धारणाये जिस पर ज़िंदगी को बनाया गया था अब खोखली हो चुकी है। मानवता कोई जाती नहीं है ये एक मूल्य है जिसे हमने सफलता और बेहतरी की दौड़ में खो दिया है
आज हमे किया चाहिए ?
हम धड़ा धड़ यूनिवर्सिटीज खोल रहे हैं, बच्चों को स्कूलों कॉलजों में भेज रहे हैं। शिक्षा प्राप्ति के लिए बहुत से विद्यार्थी बाहरले देशों में भी जा रहे हैं। विद्या अब सम्पति हॉल करने का वसीला मात्र बन कर रह गयी है। शिक्षा और विद्या में अगर हम फर्क समझ सकें तो हम जान पाएंगे कि विद्या का दामन तो हम कब के छोड़ चुकें हैं। हमे वो शिक्षा चाहिए जो धन दौलत इक्कठा करने में काम आए। हमे धन चाहिए, फिर और धन। और कम्फर्ट्स और लक्ज़री। ये ऐशो आराम ही मकसद है हमारा। में ये बात ज़ोर दे कर कहना चाहता हूँ कि भारत दुसरे देशों की मानसिकता से अगर अलग है तो इसी बात में कि भारत का अर्थ है भगवान में विश्वास, देवियता में विशवास, धर्म वे आस्था, रामायण महाभारत जैसे ग्रंथों में विशवास , गुरु नानक में, तुलसी दास में, महात्मा गाँधी में, रबिन्द्र नाथ टैगोर में विश्वास, – एक भी व्यक्ति को माईनस करने से भारत के अर्थ बदल जाते हैं परन्तु अब हम अपने आने वाले बच्चों के मन में ये बातें छोड़ कर जीना, सिर्फ जीना, पैसों कि लिए जीना, अपने लिए जीना, – ये विचार भर रहे हैं और ये काम हमारी शिक्षा निति कर रही है। हमारा जीने और सोचने का ढंग कर रहा है। पश्चिम से सीखने वाली बहुत बातें हैं, लेकिन हम अपनी संस्कृति को कैसे छोड़ सकते हैं ? मनुष्य कि प्रति स्नेह, पशुओं परिंदों कि प्रति सद्भावना, हर वास्तु में खुदा का अक्स देखना – ये बातें आने वाली पीडियों को कौन सिखाएगा ? पैसा तो ज़िंदगी में बीस प्रतिशत से ज़्यादा अहमियत नहीं रखता, अस्सी प्रतिशत ज़िंदगी हमे घर, परिवार, स्नेही, और समाज में जीनी होती है। ये धन दौलत और सम्पति की बढ़ती हुई संस्कृति एक फॉरेन मानसिकता है जिसे हमे ग्रहण करने से पहले सोचना होगा। कितने बज़ुर्ग जोड़े हैं जिनके बच्चे उनके पास नहीं हैं और वो एक दुसरे के सहारे जी रहे हैं।कितने बज़ुर्ग अपनी अंतिम यात्रा में अकेले होते हैं और उनके बेटे बेटिआ समय रहते पोहंच नहीं पाते। ये कैसी होनी है जो हम अपने लिया खरीद रहें है इस मार्किट की मारी संस्कृति से?
मनुष्य न शरीर है , न अस्ति पिंजर । मनुष्य भावनाए है। परिवार है। प्यार है। उसकी अपनी पसंद नापसंद है। उसकी मन की शांति है। उसका समय है। उसकी शून्य अवस्था है। उसके सपने है। इन सब चीज़ों को भुला कर हम उसे पैसे का पुतला बनाना चाहते हैं और उसे ऐसे सपने दे रहें हैं जो यदि पूरे हो भी गए , तो उसके पास किया रह जायेगा ? अपने शरीर से यदि हम मांस अलग करदें , तो पीछे किया रह जायेगा ? हमारे खून में हज़ारों ख्वाहिशे रहती हैं, लेकिन कहाँ ? कौन जान सकता है। हज़ारों सपने हमारे मन में निवास करते हैं , किसी ने देखे हैं ? हज़ारों दृश्य हमारी आँखे देखती है, कौन जानता है ? मनुस्य यही कहीं रहता है। बैंक बैलेंस में नहीं, फ्लैटों में नहीं, कम्पटीशन में नहीं, वहां तो हमारी भूख रहती है। जो हमारी किस्मत का फैसला करते हैं, आओ उन्हें ये बतलायें कि आदमी को आदमी समझें। फ्रेंच विद्वान रुसो ने कहा था : आदमी सिर्फ रोटी पर ज़िंदा नहीं रहता।
बदले की कारवाई
हम लोग जो चाहते हैं कि मानवता का भला हो , जो चाहते हैं कि हमारी नईं पीढ़ी को मूल्यों का एहसास हो , जो चाहते हैं कि हम भोगवादी रुचिओं से आगे निकलें और वापस मानवीकरण की और बढ़ें, हमे सर जोड़ कर बैठना होगा। कुछ बातें स्पष्ट हैं। मानवी संवेदना की बेहतरी के लिए धर्म की ओट शायद पर्यापत न हो। भोगवाद ने विद्या का पहले से ही विनाश कर रखा है। परिवार टूट चुके हैं। ऐसी स्थिति में मूलयों की बात करने वाली कोई संस्था नहीं बची। हमे इस बात की फ़िक्र है कि हमारा स्थान लेने वाली आने वाले पीढ़ी कैसी होगी। किया ये हमारे बच्चे इंसान रह पाएंगे ? उन्हें कैसे समझाएं कि समाज मूलियों से चलता है , अच्छाई से चलता है , ईमानदारी से चलता है, सिर्फ पैसे से नहीं। धन दौलत ही ज़िंदगी की स्थिर पूँजी नहीं हैं। ये प्रसिद्धि ये पावर जिसके पीछे आज हम दीवाने हैं , एक भरम है। एक सूंदर लगने वाली सिर्जना जिसमे इंसानियत के रंग मनफ़ी हैं।
ये काम तभी हो सकता है यदि हमारे पास एक यूनिवर्सिटी ऑफ एथिक्स हो जो धर्म, जाती और खंडों की पॉलिटिक्स से ऊपर हो। इसमें लिटरेचर और फलसफा पढ़ाया जाए नैतिक इंजीनियरिंग में छमाही कोर्स हों जिसे हायर सेकेंडरी में पास करना अनिवार्य हो। नौकरी लेने क़े लिए ये सर्टिफिकेट ज़रूरी होना चाहिए और इस यूनिवर्सिटी में नैतिक इंजीनियरिंग में डिग्री कोर्सेज हों। दस स्कूलों का क्लस्टर हो जिसमे एक एथिकल सुपरवाइजर लगाया जाये। हर स्टेट में ऐसी एक यूनिवर्सिटी बनाई जाये जैसे बंगाल में शांति निकेतन है ता कि हम फैलते हुए नकारात्मक व्यवहार और आचारहीनता का सामना कर सकें। अब विश्व को हमे दिखलाना है कि हम समय के चलन को बदल सकते हैं। एक यू टर्न दे सकते हैं। भारत की तरफ से ये पहली कोशिश होगी संसार को नकारात्मकता से छुटकारा दिलाने के लिए जब एक महान कदम उठाया जायेगा जो आने वाले इतिहास को एक नया मोड़ देगा।
लेखक :
डा जरनैल सिंह आनंद विश्व साहित्य क़े बड़े हस्ताक्षर हैं उन्होंने अंग्रेजी में १५५ पुस्तकों की रचना की है जिसमे ९ महाकाव शामिल हैं। हाल ही में डा आनंद को सर्बियन एसोसिएशन ऑफ़ राइटर्स का आनरेरी मेंबर चुना गया है। भारत से डा आनंद दुसरे साहित्यकार हैं जिन्हे ये सम्मान मिला। इससे पहले रबिन्द्र नाथ टैगोर को नोबेल प्राइज मिलने क़े बाद ये सम्मान मिला था। डॉ आनंद चंडीगढ़ में रह रहे हैं और उन्हें फ्रांज़ काफ्का लिटरेरी प्राइज, क्रॉस ऑफ़ पीस, क्रास ऑफ लिटरेचर इत्याद सैंकड़ों सन्मान मिल चुके हैं। भारत और पंजाब क़े लिए ये अभिमान की बात है कि विश्व अंग्रेजी साहित्य में उनको डेनियल डीफ़ो जैसे महान वियंकार से तुलना की गयी है और उनकी अध्यात्म की पुस्तक ‘ब्लिस’ को खलील जिब्रान की महान रचना द प्रोफेट से। विश्व लिटरेचर को उनकी कॉन्ट्रिब्नशन क़े मद्दे नज़्ज़ार उन्हें नोबेल प्राइज इन लिटरेचर
https://en.wikipedia.org/wiki/Jernail_Singh_Anand