high-courtकर्नाटक हाईकोर्ट का एक फैसला वकालत के पेशे से जुड़े केंद्रीय व राज्य सरकार में मंत्रियों के लिए परेशानी का सबब बन सकता है. कर्नाटक हाईकोर्ट ने 22 जून को बार काउंसिल के नियमों के उल्लंघन के मामले में कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री सदानंद गौड़ा समेत नौ मंत्रियों को नोटिस जारी किया है. अगर इस मामले में वकालत के पेशे से जुड़े मंत्रियों को दोषी करार दिया जाता है, तो इसके दायरे में मोदी सरकार के एक तिहाई मंत्रियों के आने की भी संभावना है. कर्नाटक हाईकोर्ट ने जिस तरह इस मामले को प्रथम द्रष्टया सही मानते हुए नोटिस जारी किया है, इससे वकालत से जुड़े केंद्रीय व राज्य सरकार में शामिल मंत्रियों में खलबली मची है.

केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक तिहाई वकील राजनेता शामिल हैं, जो लॉ ग्रेजुएट हैं. इनमें कई राजनेता ऐसे हैं, जो समय-समय पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में मुकदमों की पैरवी भी करते हैं. मोदी सरकार के 78 सदस्यीय मंत्रिमंडल में 25 वकील हैं, जिनमें 11 कैबिनेट स्तर के मंत्री हैं. मोदी सरकार के कुछ ऐसे महत्वपूर्ण चेहरों में अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, पीयूष गोयल, रविशंकर प्रसाद, जेपी नड्‌डा, किरण रिजीजू, चौधरी बीरेंद्र सिंह, सदानंद गौड़ा, नीतिन गडकरी, वैंकैया नायडू, रामबिलास पासवान, राव इंद्रजीत सिंह, रामकृपाल यादव, राजेन मोहन गोहन, अर्जुन मेघवाल, संतोष कुमार गंगवार, सर्वानंद सोनोवाल, पॉन राधाकृष्णन, कृष्ण पाल, विजय गोयल, फग्गन सिंह कुलस्ते व एसएस अहलूवालिया शामिल हैं. मोदी सरकार के हालिया मंत्रिमंडल विस्तार में भी संविधान विशेषज्ञ और सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील पीपी चौधरी को शामिल किया गया है.

लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट का एक फैसला वकील से राजनेता बने लोगों के गले की फांस बन सकता है. बार काउंसिल ऑफ इंडिया के नियम के अनुसार अगर कोई वकील सरकारी या गैर सरकारी नौकरी में जाता है तो उसे अपना वकालत का लाइसेंस बार काउंसिल में जमा कराना होता है, जहां उसने रजिस्ट्रेशन कराया है. बेखबरी का आलम ये है कि हाल में कानून मंत्री रहे सदानंद गौड़ा समेत वर्तमान कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद भी इस नियम की अवहेलना कर रहे हैं. बार काउंसिल के नियम अब तक किताबों के पन्नों तक ही सिमट कर रह गए थे. लेकिन अब कर्नाटक हाईकोर्ट की सक्रियता के कारण वकालत से राजनीति के पेशे में आए ऐसे तमाम मंत्रियों के लिए मुसीबत खड़ी हो सकती है.

कर्नाटक हाईकोर्ट ने 22 जून को बार काउंसिल ऑफ इंडिया के नियमों के उल्लंधन के मामले में नौ लोगों को नोटिस जारी किया था. इसमें कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री सदानंद गौड़ा, कर्नाटक सरकार में मंत्री टीबी जयचंद्र, आरवी देशपांडे, एचके पाटील, वीएस उग्रप्पा, सुरेश कुमार, पूर्व केंद्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली व  मल्लिकार्जुन खड़गे शामिल हैं. ये सभी राजनेता कर्नाटक बार काउंसिल में बतौर अधिवक्ता रजिस्टर्ड हैं, लेकिन उन्होंने मंत्री नियुक्त होने के बाद भी अपना लाइसेंस जमा नहीं कराया है.

एंटी करप्शन काउंसिल ऑफ इंडिया ट्रस्ट नामक एक संस्था ने 2015 के दिसंबर महीने में इस मामले को सबसे पहले उठाया. संस्था ने कर्नाटक लोकायुक्त की अदालत में एक मुकदमा दाखिल किया था. इस मुकदमे में कर्नाटक के कई जाने-माने राजनेताओं को बार काउंसिल के नियमों के उल्लंघन के मामले में आरोपी बनाया गया था. संस्था के अध्यक्ष हुसैन मुइन फारूक का आरोप था कि ये राजनेता वकालत का लाइसेंस बार काउंसिल में जमा कराए बिना ही सरकार से वेतन, भत्ते व अन्य सुविधाएं ले रहे हैैं. यह व्यावसायिक रूप से गलत तो है ही, साथ ही भारतीय दंड संहिता और भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत एक गंभीर अपराध भी है.

8 जनवरी 2016 को कर्नाटक लोकायुक्त की अदालत ने इस मुकदमे को खारिज कर दिया था. हालांकि लोकायुक्त ने सुनवाई के दौरान यह बात स्वीकार की थी कि ये राजनेता जिन्होंने बार काउंसिल में सनद जमा नहीं कराए हैं, अवैध रूप से वेतन और भत्ते ले रहे हैं. लेकिन आश्चर्य की बात है कि इन राजनेताओं के वेतन-भत्ते को अवैध मानते हुए भी लोकायुक्त ने मुकदमा खारिज कर दिया. संस्था से जुड़े लोगों का कहना है कि कर्नाटक के बड़े-बड़े राजनेताओं का नाम इस लिस्ट में देखकर दबाव में लोकायुक्त ने यह कदम उठाया होगा. इसके बावजूद फारूक ने हार नहीं मानी. लोकायुक्त के फैसले को चुनौती देते हुए वे कर्नाटक हाईकोर्ट की शरण में पहुंच गए. जस्टिस एल बिल्लप्पा ने उनके आरोपों को प्रथम दृष्टया सही मानते हुए आरोपी नौ राजनेताओं को नोटिस जारी कर दिया. फारूक का आरोप है कि इनमें से कई नेता तो 30 साल से भी ज्यादा समय से अवैध वेतन और भत्ते ले रहे हैं.

बार काउंसिल ऑफ इंडिया की नियमावली 49 के अनुसार, एक व्यक्ति वकालत के दौरान किसी भी व्यक्ति, सरकार, संस्था, निगम या इकाई का पूर्णकालिक कर्मचारी नहीं हो सकता है. यदि वह वकालत के दौरान किसी ऐसे रोजगार में जाता है, तो उसे बार काउंसिल, जहां कि वह पंजीकृत है, को इसके बारे में जानकारी देनी होती है. जब तक वह ऐसे किसी रोजगार में रहता है, तब तक के लिए उसे अपना लाइसेंस बार काउंसिल में जमा कराना होता है. इसी नियम का हवाला देते हुए फारूक ने हाईकोर्ट में दलील दी कि इन राजनेताओं ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया की नियमावली 49 का जान-बूझकर उल्लंघन किया है.

इतना ही नहीं, फारूक का आरोप है कि पूर्णकालिक रोजगार के दौरान बार काउंसिल में वकालत लाइसेंस का जमा कराना स्वैच्छिक नहीं, बल्कि अनिवार्य होता है. इस संदर्भ में किसी को भी छूट नहीं मिली है. उनका यह भी आरोप है कि इन आरोपियों ने कर्नाटक मिनिस्टर्स सैलरीज एंड एलाउंसेज एक्ट की धारा 14 का भी उल्लंघन किया है. यह एक्ट कर्नाटक में किसी मंत्री के कार्यकाल के दौरान किसी अन्य प्रोफेशन में जाने पर रोक लगाती है. एक्ट के अनुसार, एक मंत्री, राज्य मंत्री या उप मंत्री अपने कार्यकाल के दौरान कोई व्यापार या पेशा नहीं अपना सकता और न ही अपने पद के अलावा रोजगार के लिए कोई दूसरा पद ग्रहण कर सकता है. फारूक का आरोप है कि इसके अलावा ये राजनेता भारतीय दंड संहिता की धारा 166, 168, 193, 199, 200, 409, 420, 506 और भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम की धारा 13 (2) के अंतर्गत दोषी हैं.

भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम की धारा 13 (2) के अनुसार, यदि कोई लोक सेवक के रूप में अपने पद का दुरुपयोग कर अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान चीज या धन संबंधी लाभ प्राप्त करता है, तो वह आपराधिक अवचार का दोषी माना जाएगा. इस मामले में दोषी पाए जाने पर जुर्माने के अलावा कम से कम एक साल व अधिक से अधिक सात साल तक करावास की सजा का प्रावधान है. अब यदि इस मामले में नौ वकील राजनेताओं को दोषी करार दिया जाता है तो इस फैसले का व्यापक असर होना तय है. इसकी चपेट में वैसे राजनेता व सरकारी पद पर तैनात अधिकारी भी आएंगे, जिन्होंने अपना लाइसेंस बार काउंसिल में जमा नहीं कराया है.

सुप्रीम कोर्ट के एक वकील ने बताया कि एमपी या एमएलए लोक सेवक या जन प्रतिनिधि होते हैं, जो जनता द्वारा चुने जाते हैं. ये पब्लिक सर्वेंट नहीं होते हैं, जिन्हें कोई नियुक्त करता है. इन्हें वेतन और भत्ता इस मद में दिया जाता है कि वे इन सुविधाओं का उपभोग करते हुए जनता की बेहतर तरीके से सेवा कर सकें. लेकिन जैसे ही ये लोक प्रतिनिधि प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर महामहिम राष्ट्रपति द्वारा मिनिस्टर नियुक्त किए जाते हैं, ये ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के दायरे में आ जाते हैं. केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने पर इन वकालत के पेशे से जुड़े मंत्रियों को बार काउंसिल में इसकी जानकारी देनी होती है, साथ ही वकालतनामा का लाइसेंस भी जमा कराना होता है. उन्हें ये बताना होता है कि इस समयावधि के दौरान वे अदालत में प्रैक्टिस नहीं करेंगेे. लेकिन अगर कोई मंत्री नियुक्त होने पर भी वकालत का लाइसेंस जमा नहीं कराता है, तो बार काउंसिल उस पर कार्रवाई कर सकता है. इस संदर्भ में बार काउंसिल उनका वकालत का लाइसेंस रद्द कर सकता है. हालांकि करप्शन ऑफ प्रीवेंशन एक्ट के तहत जुर्माने के अलावा कारावास का भी प्रावधान है.

सभी राजनीतिक दल अपने मंत्रिमंडल में कानून विशेषज्ञों को खास महत्व देने लगे हैं. इसके पीछे उनका तर्क होता है कि वकालत के पेशे से जुड़े राजनेता पार्टी हितों की बेहतर तरीके से रक्षा करते हैं, वहीं मीडिया में बहस के दौरान विरोधियों पर तथ्यों के आधार पर सटीक हमला भी करते हैं. ऐसे विशेषज्ञ बेहतर संवाद शैली व वाक्‌चातुर्य के कारण सरकारी कार्यक्रमों को जनता में लोकप्रिय बनाने में भी अहम भूमिका निभाते हैं. हालांकि कानून के जानकार इस मामले को गंभीरता से नहीं लेते हैं. वे मानते हैं कि इस मामले में बड़े राजनेताओं पर दंडात्मक कार्रवाई भी मुश्किल है. लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट अगर इन मंत्रियों को दोषी करार देता है, तो वकालत के पेशे से जुड़े मंत्रियों के लिए यह एक खतरे की घंटी है.

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