बीते 29 फरवरी को बहुप्रतीक्षित केंद्रीय बजट पेश कर दिया गया, जिसमें ध्यान देने वाली तीन बातें हैं. पहला बजट भाषण एवं उसके अंतर्निहित मायने. दूसरा, विभिन्न मदों के लिए आवंटित धनराशि. तीसरा, आंकड़े पुनर्व्यवस्थित करना, ताकि एक ही तरह के आवंटन को दूसरा स्वरूप दिया जा सके. पहले बजट भाषण पर एक नज़र डालते हैं, जो यह जताने की आक्रामक कोशिश कर रहा है कि सरकार अब गांवों-ग़रीबों के लिए काम करने जा रही है. 1991 के बाद के सारे बजट कॉरपोरेट सेक्टर को ध्यान में रखते हुए तैयार किए गए, जिनमें से कुछ बजट पूरी तरह कॉरपोरेट केंद्रित थे, कुछ संतुलन बनाने की कोशिश करते दिख रहे थे, लेकिन ज़ोर हमेशा कॉरपोरेट सेक्टर पर रहा.
कृषि क्षेत्र की शिकायत रही है कि यूपीए के दस वर्षों और मौजूदा सरकार के दो वर्षों में उस पर ध्यान नहीं दिया गया. इस क्षेत्र में प्रभावी निवेश नहीं हो सका. यह बजट भाषण इस भाव को मिटाने की कोशिश करता नज़र आया. और, इसने यह ज़ाहिर करने की कोशिश की कि कृषि क्षेत्र में बड़ा निवेश होने जा रहा है. यह बात पूरी तरह सत्य नहीं है. वास्तविक आवंटन ज़रूर बढ़ गया है, लेकिन यह वृद्धि उतनी नहीं है, जितने की ज़रूरत है. इसमें कुछ ऐसी बातों एवं योजनाओं का भी जिक्र है, जो पहले से चलती आ रही हैं यानी इस भाषण में पुरानी बातें भी दोहराई गई हैं. खास तौर पर फसल बीमा वगैरह.
आंकड़ों की पुनर्व्यवस्था, जिसमें 15,000 करोड़ रुपये की ब्याज सहायता शामिल है, जो पहले बैंकिंग या वित्तीय क्षेत्र के लिए थी, अब कृषि क्षेत्र के लिए आवंटित कर दी गई है. यह एक छलावा भर है. इससे कोई प्रभावित नहीं होगा, क्योंकि कृषि क्षेत्र को कोई अतिरिक्त धनराशि नहीं दी जा रही है. इस पूरे मामले में दिलचस्प मोड़ यह है कि सरकार इस तरह की चर्चा को जन्म देने की कोशिश क्यों कर रही है? बिहार चुनाव के बाद उसे लगा कि केवल विदेशी निवेश, मेक इन इंडिया आदि की बात करने से काम नहीं चलने वाला, बल्कि इसके साथ-साथ कृषि क्षेत्र पर भी ध्यान देना होगा. इस सीमा तक तो यह बात ठीक है.
अगर पुरानी परंपराओं को देखा जाए, तो ऐसे बजट, जिन्हें वित्त मंत्री लोक लुभावन नहीं मानते, लेकिन वे होते लोक लुभावन हैं, आम तौर पर चुनावी वर्ष में पेश किए जाते हैं. चुनाव से तीन वर्ष पहले ऐसा बजट पेश करना ज़ाहिर करता है कि कहीं न कहीं पार्टी में यह डर पैदा हुआ है कि जिस तरीके से दो वर्षों तक काम हुआ, अगर आगे भी उसी तरह होता रहा, तो 2019 उसके लिए अच्छा साबित नहीं होगा.
राष्ट्रपति के अभिभाषण से संबंधित एक सवाल के जवाब में प्रधानमंत्री काफी नरम दिखे, लेकिन विपक्षियों को आड़े हाथों लेने के लिए उन्होंने बचकाना हास्य का सहारा लिया. ऐसी बातें करने के लिए भाजपा में किसी अन्य को आगे करना चाहिए था, प्रधानमंत्री को खुद आगे नहीं आना चाहिए था. प्रधानमंत्री के भाषण का स्तर ऊंचा होना चाहिए. आपने मनमोहन सिंह को देखा, राजीव गांधी को देखा, इंदिरा गांधी को देखा, जिन्होंने प्रधानमंत्री पद की गरिमा हमेशा बनाए रखी, चाहे उन्हें जितना भी उत्तेजित क्यों न किया गया हो.
मौजूदा प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में खुद यह स्वीकार किया कि वह इस पद पर नए हैं. अब जबकि उन्होंने अपने कार्यकाल के दो वर्ष पूरे कर लिए हैं, उन्हें समझना चाहिए कि लोग एक विनम्र, ज़िम्मेदार एवं सौम्य प्रधानमंत्री का आदर करते हैं. उन्हें राहुल गांधी से व्यंग्य का आदान-प्रदान नहीं करना चाहिए. राहुल अभी नौजवान हैं, वह प्रधानमंत्री भी बनना चाह रहे होंगे. लेकिन, आपको उन्हीं की शैली में जवाब नहीं देना चाहिए. बेशक, प्रधानमंत्री ने अपनी बात बड़े असरदार तरीके से रखी और धार्मिक किताबों का हवाला देते हुए कहा कि छोटी उम्र के लोगों को अपने से बड़ों का सम्मान करना चाहिए. ये सब बातें ठीक हैं, लेकिन इन्हें भाजपा के किसी प्रवक्ता द्वारा कहा जाना चाहिए था. प्रधानमंत्री के भाषण से यह भी समझा जा सकता है कि आपको सरकार चलाने के लिए भले ही लोगों ने चुना हो, लेकिन संसद चलाने के लिए आपको सभी दलों, विपक्षी सदस्यों को साथ लेकर चलना होगा.
अंतिम 15 मिनटों के भाषण में उन्होंने यह कहने की कोशिश की कि हम सबको एक साथ मिलकर काम करने और एक आम सहमति बनाने की ज़रूरत है. नौकरशाही के पास खोने के लिए कुछ नहीं है. नेता तो लड़ते ही रहेंगे. कोई आएगा, कोई जाएगा. नौकरशाह बिना किसी जवाबदेही के अपनी जगह बने रहेंगे. यही पर प्रधानमंत्री के साथियों को चाहिए कि वे अन्य दलों के लोगों से मिलें और उनसे बातचीत करें.
न्याय पालिका ने जिस तरीके से नेशनल ज्यूडिशियल अप्वायंटमेंट कमीशन को लेकर टिप्पणी की, वह लोकतंत्र के लिए ग़लत है.
लेकिन, सुप्रीम कोर्ट नेताओं को आपस में जिस तरीके से लड़ते हुए देखता है, उसके मद्देनज़र ऐसी टिप्पणी स्वाभाविक है. संसद में सबको अपने बीच एक सहमति, एक समझ बनानी चाहिए. संसद को ही सर्वोच्च होना चाहिए. दुनिया में कहीं भी जज खुद जज को नियुक्त नहीं करता. इसके लिए संसद से बना एक क़ानून होना ही चाहिए. मैं न्याय पालिका से जुड़े किसी अन्य मसले पर बात नहीं करना चाहता, लेकिन अगर विधायिका स्पष्ट रूप से अपनी और न्याय पालिका की ताकत के बीच एक लाइन नहीं खींचती है, तो यह देश के भविष्य के लिए सही नहीं होगा.
प्रधानमंत्री ने एक बहुत हास्यास्पद बात कही है कि कांग्रेस के समय में चीजें दूसरी तरह से थीं. भाजपा अपने कार्यकाल में छात्रों द्वारा नारेबाजी भी बर्दाश्त नहीं कर सकती. यह तो वही बात हुई कि चींटे को स्टेनगन से मारना. छात्र इस उम्र में रास्ता भटक जाते हैं, उन्हें समझाने की ज़रूरत है, न कि उनके खिला़फ पुलिसिया कार्रवाई की. किसी भी देश में छात्र आंदोलन पुलिसिया कार्रवाई से नहीं दबाए गए. जितनी जल्दी आप इन सब चीजों को ठीक कर लेंगे, उतना ही इस देश के लोकतंत्र के लिए ठीक होगा. यदि आप कांग्रेस का विकल्प बनना चाहते हैं, तो आपके पास दीर्घकालिक विचार होने चाहिए. उदाहरण के तौर पर कश्मीर. वहां एक त्रिशंंकु विधानसभा बनी, तो आपके पास ऐसा कोई मैकेनिज्म नहीं था, जिससे पता चल सके कि मतदाता आ़खिर चाहता क्या है?
जिस दिन भाजपा ने पीडीपी से हाथ मिलाया था, उसी दिन इस कॉलम में मैंने लिखा था कि यह दोनों पार्टियों के लिए सही नहीं होगा, क्योंकि दोनों दो ध्रुवों पर रहने वाली पार्टियां हैं. बिना किसी सिद्धांत के आप हाथ मिला रहे हैं. मुफ्ती मोहम्मद सईद के जनाजे में कम लोगों का आना महबूबा मुफ्ती के लिए एक बहुत बड़ा झटका था. उनकी नज़र में मुफ्ती शेख अब्दुल्ला के कद के नेता थे. मुफ्ती साहब के गढ़ बिजबेहारा में दुकानदारों ने अपनी दुकानें तक नहीं बंद कीं.
महबूबा पांच वर्षों तक कश्मीर में सत्ता में रह सकती हैं, लेकिन घाटी में उनकी साख ़खत्म हो जाएगी. उनके सामने दूसरा रास्ता यह है कि वह सत्ता को फिलहाल छोड़ दें और भविष्य के लिए पार्टी को तैयार करें, ताकि अगले चुनाव में वह प्रासंगिक रहें. ज़ाहिर है, उसके बाद राष्ट्रपति शासन रहेगा और विपक्ष चुनाव के लिए दबाव डालेगा. यह उनके लिए बहुत ही मुश्किल निर्णय होगा. मुझे उनकी परेशानी समझ में आती है, लेकिन फिर भी उन्हें अपने वरिष्ठ पार्टी सहयोगियों से विमर्श करना चाहिए.
उन्हें एक सही निर्णय लेना चाहिए और सत्ता हासिल करने के लिए मुफ्ती साहब द्वारा हासिल की गई प्रतिष्ठा गंवानी नहीं चाहिए. मुफ्ती साहब ने भी भाजपा से हाथ मिलाकर ग़लती की थी. मुफ्ती साहब बहुत कद्दावर नेता थे. वह किसी भी स्थिति से बाहर निकल सकते थे, लेकिन अभी हालात वैसे नहीं हैं. अब महबूबा मुफ्ती को सावधान रहना चाहिए. बेशक, लोकतंत्र में राज्यपाल या राष्ट्रपति शासन कोई विकल्प नहीं है. कश्मीर का मामला विशेष है और महबूबा मुफ्ती इसमें बेहतर
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