जितनी भी बायोमैट्रिक जानकारियां हैं, उनकी देखरेख और ऑपरेशन उन कंपनियों के हाथों में है, जिनका रिश्ता ऐसे देशों से है, जो जासूसी कराने के लिए कुख्यात हैं और उन कंपनियों के हाथों में है, जिन्हें विदेशी खुफिया एजेंसियों के रिटायर्ड अधिकारी चलाते हैं. इसका क्या मतलब है? क्या हम जानबूझ कर अमेरिका और विदेशी एजेंसियों के हाथों अपने देश को ख़तरे में डाल रहे हैं? हाल के दिनों में एक खुलासा हुआ था कि अमेरिका की सुरक्षा एजेंसी एनएसए जिन देशों के इंटरनेट और फोन रिकॉर्ड इकट्ठा कर रही है, उनमें पहला नंबर भारत का है. भारत का टेलीफोन और इंटरनेट डाटा इकट्ठा करने के लिए एनएसए ने अपने दो कार्यक्रमों का सहारा लिया है. मजेदार बात यह है कि अमेरिकी सरकार के खुफिया निदेशालय ने भी एक तरह से जासूसी कराने के आरोपों को स्वीकार किया था. निदेशालय ने कहा था कि वह सार्वजनिक तौर पर इस बात का जवाब नहीं देना चाहता, क्योंकि यह उसकी खुफिया नीति का ही एक हिस्सा है.
कांग्रेस सरकार को अमेरिका के इस दुस्साहस, ऐसी निगरानी और जासूसी के ख़िलाफ़ कड़ा विरोध जताना चाहिए था, लेकिन हुआ ठीक उल्टा. यूपीए सरकार के तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद विरोध करने की बजाय अमेरिकी हरकत को सही ठहराने के लिए उल्टी-पुल्टी दलीलें देने लग गए. सलमान खुर्शीद ने कहा कि यह जासूसी नहीं है, यह तो महज कंप्यूटर अध्ययन और कॉलों के पैटर्न का विश्लेषण है. अगर यह जासूसी नहीं है, तो सलमान खुर्शीद को बताना चाहिए कि जासूसी क्या होती है? वैसे अमेरिका के जासूसी प्रकरण पर उसकी नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनएसए) के साथ काम करने वाले एडवर्ड स्नोडेन ने पिछले दिनों कई खुलासे किए. उन्होंने बताया कि आज के इन्फार्मेशन वारफेयर में भारत कई देशों के निशाने पर है. इसलिए भारत के
समझने वाली बात यह है कि ये कंपनियां कई देशों में सक्रिय हैं. इनके पास वे तमाम तकनीक उपलब्ध हैं, जिससे ये किसी भी देश की इंटरनेट कंपनियों के डाटा एकत्र कर सकती हैं, सर्वर हैक कर सकती हैं, फोन सुन सकती हैं. इन कंपनियों की पहुंच कई देशों में है और ये किस तरह और किस स्तर पर काम कर सकती हैं, इसी का खुलासा स्नोडेन ने किया था.
योजना आयोग ने एर्नेस्ट एंड यंग, साफ्रान ग्रुप, एसेंचर, इन-क्यू-टेल एवं मोंगो डीबी जैसी कंपनियों से करार करके देश की सुरक्षा और लोगों के मौलिक अधिकारों के साथ मजाक किया है. ये कंपनियां उन देशों की हैं, जिनका गठजोड़ पूरी दुनिया पर निगरानी के लिए नेटवर्क तैयार कर रहा है.
स्नोडेन ने ही अमेरिकी और ब्रिटिश जासूसी कार्यक्रम का सनसनीखेज ब्यौरा मीडिया को लीक किया था. अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी एनएसए द्वारा संचालित एक्स की स्कोर जासूसी कार्यक्रम 2008 की एक प्रशिक्षण सामग्री में वह नक्शा भी शामिल था, जिसमें दुनिया भर में लगे सर्वर का ब्यौरा था. उस नक्शे के मुताबिक, उनमें से एक अमेरिकी जासूसी सर्वर भारत की राजधानी नई दिल्ली के किसी समीपवर्ती इलाके में लगा हुआ प्रतीत होता है. समझने वाली बात यह है कि जिन कंपनियों को यूआईडी ने हमारी जानकारियां सुपुर्द की हैं, वे वही कंपनियां हैं, जो दुनिया भर में निगरानी प्रणाली स्थापित करने में माहिर मानी जाती हैं. दूसरे विश्व युद्ध के बाद और भारत की आज़ादी से पहले एक नेटवर्क विकसित हुआ था. इसके गठन का एकमात्र उद्देश्य दूसरे देशों की निगरानी करना था. इसमें अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी एनएसए, इंग्लैंड के गवर्नमेंट कम्युनिकेशन हेडक्वाटर्स, कनाडा की कम्युनिकेशन सिक्योरिटी इस्टैब्लिशमेंट, ऑस्ट्रेलिया का सिग्नल डायरेक्टोरेट और न्यूजीलैंड का गवर्नमेंट कम्युनिकेशन सिक्योरिटी ब्यूरो आदि शामिल हैं. अब इस गुट में कई और देश भी शामिल हो चुके हैं.
ऐसे माहौल में भारत को स्वयं को सुरक्षित करने के लिए क़दम उठाने चाहिए, लेकिन हम बिल्कुल उल्टे फैसले लेते हैं. ऐसी क्या वजह है कि सरकार देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने पर आमादा है? जबकि यशवंत सिन्हा की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति भी इसका विरोध कर चुकी है. समिति ने विशिष्ट पहचान अंक जैसे ख़ुफ़िया उपकरणों द्वारा नागरिकों पर सतत नज़र रखने और उनके जैवमापक रिकॉर्ड तैयार करने पर आधारित तकनीकी शासन की पुरजोर मुखालफत की और इसे बंद करने का सुझाव दिया. फिर भी सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. सवाल तो यह पूछा जाना चाहिए कि क्या अब तक एकत्र किए गए बायोमैट्रिक डाटा को प्राधिकरण ने किसी विदेशी कंपनी के साथ शेयर किया या दिया है? अगर ये जानकारियां विदेशी एजेंसियों के हाथ लग चुकी हैं, तो इसका एक मतलब यह है कि हम उनकी निगरानी में आ चुके हैं और दूसरा यह कि सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का कोई मतलब नहीं है, जिसमें उसने कहा कि ये जानकारियां किसी के साथ शेयर नहीं की जा सकती हैं.
समझने वाली बात यह है कि ये कंपनियां कई देशों में सक्रिय हैं. इनके पास वे तमाम तकनीक उपलब्ध हैं, जिससे ये किसी भी देश की इंटरनेट कंपनियों के डाटा एकत्र कर सकती हैं, सर्वर हैक कर सकती हैं, फोन सुन सकती हैं. इन कंपनियों की पहुंच कई देशों में है और ये किस तरह और किस स्तर पर काम कर सकती हैं, इसी का खुलासा स्नोडेन ने किया था. विदेशी एजेंसियों की कारगुजारी और आधार कार्ड योजना की गड़बड़ियां एक ख़तरे को जन्म देती हैं. यह कार्ड ख़तरनाक है, इससे नागरिकों की निजता (प्राइवेसी) का हनन होगा और आम जनता जासूसी की शिकार हो सकती है. सुप्रीम कोर्ट के ़फैसले के अनुसार, सभी एकत्र बायोमैट्रिक जानकारियां सुरक्षित करनी पड़ेंगी. विदेशी कंपनियों के साथ कौन-कौन से खुफिया करार किए गए, उन्हें जनता को बताना पड़ेगा. कितना पैसा बर्बाद हुआ, यह भी जनता को पता चलना चाहिए और उसे वापस लाने के लिए कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि भविष्य में कोई निजी कंपनी का मालिक और मीडिया द्वारा बनाया गया महापुरुष देश की जनता और सरकार को मूर्ख न बना सके.
यूआईडी कार्ड नाज़ियों की याद दिलाता है
अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में यूएस होलोकॉस्ट मेमोरियल म्यूजियम है. यहां द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यहूदियों के नरसंहार से जुड़ी चीजें हैं. इस म्यूजियम में एक मशीन रखी है, जिसका नाम है, होलेरिथ डी-11. इस मशीन को आईबीएम कंपनी ने द्वितीय विश्व युद्ध से पहले बनाया था. यह एक पहचान पत्र की छंटाई करने वाली मशीन है. तो सवाल यह उठता है कि इस मशीन का होलोकॉस्ट म्यूजियम में क्या काम? दरअसल, यहूदियों के नरसंहार से इस मशीन का गहरा रिश्ता है. हिटलर ने 1933 में जर्मनी में जनगणना कराई थी. यह जनगणना आईबीएम कंपनी ने की थी. इस कंपनी ने जर्मनी में न स़िर्फ जनगणना की, बल्कि जातिगत जनगणना की, यहूदियों की गणना की और साथ में एक पहचान पत्र भी दिया था. म्यूजियम में रखी यह मशीन पहचान पत्र को बांचने का काम करती थी. इसी मशीन ने यहूदियों की पहचान की थी, उनका ठिकाना बताया था. अगर यह मशीन न होती, तो नाज़ियों को यहूदियों के नाम-पते की जानकारी न मिलती. नाज़ियों को यहूदियों की सूची आईबीएम कंपनी ने दी थी. आईबीएम और हिटलर के इस गठजोड़ ने इतिहास के सबसे ख़तरनाक जनसंहार को अंजाम दिया. यूआईडी योजना हमें हिटलर और यहूदियों के संहार के उसी भयानक दौर की याद दिलाती है. 1933 और 2014 में एक बड़ा फ़़र्क भी है. हिटलर के पास तो यहूदियों के घरों के पते थे, लेकिन यूआईडी के मामले में तो कोई छिप भी नहीं सकता. यूआईडी के साथ तो बैंक एकाउंट और मोबाइल फोन भी जोड़ा जा रहा है. ऐसी हालत में किसी का छिपना भी संभव नहीं है. क्या मोदी सरकार या कोई राजनीतिक पार्टी यह बात दावे के साथ कह सकती है कि भारत में यूआईडी का ग़लत इस्तेमाल नहीं होगा? जो हाल यहूदियों का जर्मनी में हुआ, वैसी स्थिति भारत में पैदा हो सकती है, ऐसा ख़तरा हमेशा बना रहेगा. सरकार जिस तरह से इस कार्ड को लागू करना चाहती है, उससे तो किसी भी व्यक्ति का छिपना मुश्किल हो जाएगा. इस कार्ड के लागू होते ही फोन या एटीएम के इस्तेमाल मात्र से किसी का भी ठिकाना पता किया जा सकता है. क्या भारत सरकार इस बात की गारंटी दे सकती है कि अगर कभी नाजी या उससे भी ख़तरनाक किस्म के लोग सत्ता में आ गए, तो इस कार्ड का इस्तेमाल दंगा, हिंसा और हत्या के लिए नहीं किया जाएगा? इस बात की गारंटी कोई नहीं दे सकता है. क्या यूआईडी या नेशनल पापुलेशन रजिस्ट्रार वही कर रहे हैं, जो जर्मनी में किया गया? सवाल यह भी उठता है कि अगर देश के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता और विशेषज्ञ इस तरह के ख़तरनाक सवाल उठा रहे हैं, तो उसका जवाब सरकार क्यों नहीं देती? इस कार्ड को लेकर संसद में बहस क्यों नहीं हुई? इस कार्ड को बनाने से पहले संसद को विश्वास में क्यों नहीं लिया गया? इस कार्ड को लेकर कई भ्रांतियां हैं, जिन पर खुली बहस की ज़रूरत है.
वह सच, जो छिपा दिया गया
चौथी दुनिया ने पहले भी इस कार्ड को लेकर एक रिपोर्ट छापी थी, जिससे यह साबित हुआ कि किस तरह यूआईडीएआरई ने देश की सुरक्षा के साथ समझौता किया. भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआरई) ने कार्ड बनाने के लिए तीन कंपनियों को चुना-एसेंचर, महिंद्रा सत्यम-मोर्फो और एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन. इन तीनों कंपनियों पर ही इस कार्ड से जुड़ी सारी ज़िम्मेदारियां हैं. जब इन तीनों कंपनियों पर ग़ौर करते हैं, तो डर-सा लगता है. एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन का उदाहरण लेते हैं. इस कंपनी के टॉप मैनेजमेंट में ऐसे लोग हैं, जिनका अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए और दूसरे सैन्य संगठनों से रिश्ता रहा है. एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन अमेरिका की सबसे बड़ी डिफेंस कंपनियों में से है, जो 25 देशों में फेस डिटेक्शन और इलेक्ट्रॉनिक पासपोर्ट आदि जैसी चीजें बेचती है. अमेरिका के होमलैंड सिक्योरिटी डिपार्टमेंट और यूएस स्टेट डिपार्टमेंट के सारे काम इसी कंपनी के पास हैं. यह पासपोर्ट से लेकर ड्राइविंग लाइसेंस तक बनाकर देती है. इस कंपनी के डायरेक्टरों के बारे में जानना ज़रूरी है. इसके सीईओ ने 2006 में कहा था कि उन्होंने सीआईए के जॉर्ज टेनेट को कंपनी बोर्ड में शामिल किया है. जॉर्ज टेनेट सीआईए के डायरेक्टर रह चुके हैं और उन्होंने ही इराक के ख़िलाफ़ झूठे सबूत इकट्ठा किए थे कि उसके पास महाविनाश के हथियार हैं. अब कंपनी की वेबसाइट पर उनका नाम नहीं है, लेकिन जिनके नाम हैं, उनमें से किसी का रिश्ता अमेरिका के आर्मी टेक्नोलॉजी साइंस बोर्ड, तो किसी का रिश्ता आर्म्ड फोर्स कम्युनिकेशन एंड इलेक्ट्रॉनिक एसोसिएशन, आर्मी नेशनल साइंस सेंटर एडवाइजरी बोर्ड और ट्रांसपोर्ट सिक्योरिटी जैसे संगठनों से रहा है. इस सवाल का जवाब नंदन नीलेकणी और सरकार को देना चाहिए कि यूआईडी वर्ल्ड बैंक की ई-ट्रांसफॉर्म इनिशिएटिव (ईटीआई) का हिस्सा है या नहीं? यह प्रोजेक्ट 23 अप्रैल, 2010 को वाशिंगटन में शुरू किया गया. सरकार को यह बताना चाहिए कि इस प्रोजेक्ट का मक़सद क्या है, जिसे दुनिया के कई देशों में लागू किया जा रहा है. वर्ल्ड बैंक के इस प्रोजेक्ट में एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन, आईबीएम, इनटेल और माइक्रोसॉफ्ट की भी भागीदारी है. एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन की यह हक़ीक़त सरकार ने जनता से क्यों छिपाकर रखी कि इस कंपनी के बोर्ड में अमेरिकी खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों के अधिकारी रह चुके हैं. यूआईडी का विरोध सरकार के अंदर से हो रहा है. सरकार के नज़दीकी भी अब इस प्रोजेक्ट पर सवाल उठाने लगे हैं. कई सामाजिक कार्यकर्ता, रिटायर्ड न्यायाधीश, अधिकारी, बुद्धिजीवी एवं विशेषज्ञ इसका विरोध कर रहे हैं. हैरानी की बात यह है कि इतना सब कुछ हो रहा है, लेकिन संसद में इसकी चर्चा तक नहीं हुई और न विपक्ष इस पर कोई दबाव बना रहा है.