नरेंद्र मोदी सरकार को देश की सुरक्षा और भविष्य की चिंता नहीं हैं. अगर है, तो फिर वह देश की सुरक्षा से समझौता करने पर क्यों तुली है. मनमोहन सरकार से तो हमें कोई उम्मीद भी नहीं थी, लेकिन अगर मोदी सरकार भी वही गलतियां दोहराए, तो देश के भविष्य और सुरक्षा को लेकर सबको चौकन्ना हो जाना चाहिए. क्या यह चिंता की बात नहीं है कि सेना अध्यक्षों और खुफिया अधिकारियों पर विदेशी एजेंसियां निगरानी रखें. क्या यह चिंता की बात नहीं है मंत्रियों, सचिवों और हर महत्वपूर्ण अधिकारी के क्रियाकलापों की पूरी जानकारी विदेशी खुफिया एजेंसियों के पास हो. क्या यह एक गंभीर संकट नहीं है कि भविष्य में बनने वाले भारत के सभी सेना अध्यक्षों, खुफिया अधिकारियों, मंत्रियों, सचिवों और महत्वपूर्ण अधिकारियों की सारी जानकारियां विदेशी खुफिया एजेंसियों के पास हों. हैरानी की बात यह है कि विदेशी खुफिया एजेंसियों को यह सारी जानकारियां भारत की सरकार ही मुहैय्या करा रही है. देश पर एक स्पष्ट और आसन्न ख़तरा मंडरा रहा है और देश के विपक्षी दल और मीडिया धृतराष्ट बने बैठे हैं.
Page-1इस देश में क़ानून का राज ख़त्म हो गया है? केंद्र सरकार आधार योजना को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का साफ़-साफ़ उल्लंघन कर रही है. सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश है कि देश के नागरिकों पर आधार कार्ड जबरदस्ती नहीं थोपा जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने आधार योजना को लेकर 23 सितंबर 2013, 26 नवंबर 2013 और 24 मार्च 2014 को एक के बाद एक ताबड़तोड़ तीन आदेश दिए, लेकिन सरकार लगातार इन आदेशों की अवमानना करने पर तुली है. इन आदेशों में साफ़-साफ़ कहा गया है कि आधार कार्ड को सरकार की किसी योजना में अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता है. यह भी कहा गया कि आधार नंबर न होने की स्थिति में किसी को सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यह एक स्वैच्छिक योजना है और इसे फिलहाल स्वैच्छिक ही रहने दिया जाना चाहिए. लेकिन देश की सरकार है कि इस कार्ड को पिछले दरवाजे से हर जगह अनिवार्य करने में लगी हुई है. आधार कार्ड का मामला सुप्रीम कोर्ट में है. सुप्रीम कोर्ट ने अब तक जो आदेश दिए हैं, उनमें यह साफ़ है कि इसे अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता है. लेकिन, हैरानी की बात यह है कि मोदी सरकार ने इसे हरी झंडी दे दी है.
आधार योजना यूपीए सरकार की योजना है. यह योजना सुरक्षा और क़ानून की दृष्टि से सवालों के घेरे में है. यूपीए सरकार के दौरान भाजपा ने इस योजना पर सवाल खड़े किए. चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा ने साफ़-साफ़ कहा था कि उसकी सरकार आते ही इस योजना पर पुनर्विचार किया जाएगा. चुनाव हो गए, भाजपा की सरकार भी बन गई, लेकिन स़िर्फ एक बार यूआईडी अथॉरिटी के चेयरमैन नंदन नीलेकणी से प्रधानमंत्री मोदी की मुलाकात क्या हुई, भाजपा का स्टैंड बदल गया. यह क्लोज-डोर मीटिंग एक जुलाई को हुई. इसमें नरेंद्र मोदी, अरुण जेटली और नंदन नीलेकणी मौजूद थे. अब पता नहीं, यूपीए सरकार के सुपरमैन नंदन नीलेकणी ने नरेंद्र मोदी को क्या पट्टी पढ़ाई कि पांच जुलाई को प्रधानमंत्री ने इस ख़तरनाक योजना को जीवनदान दे दिया. क्या संसद और देश को यह जानने का अधिकार नहीं है कि सरकार ने एक ग़ैर-क़ानूनी योजना को हरी झंडी क्यों दी? क्या सांसदों और मीडिया को यह नहीं पूछना चाहिए कि आख़िर क्या वजह है कि यूआईडी बिल बिना पास किए यूआईडी योजना लागू क्यों हुई और नई सरकार ने इसे जारी क्यों रखा?

भाजपा के तत्कालीन प्रवक्ता प्रकाश जावेड़कर ने कहा था कि आधार योजना कों लेकर पार्टी की दो चिंताएं हैं. एक तो इसका क़ानूनी आधार और दूसरा सुरक्षा का मुद्दा. प्रकाश जावेड़कर अब मंत्री हैं. अब केंद्र में भाजपा की सरकार है. तो यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि आधार को लेकर सरकार ने ऐसे क्या फैसले लिए हैं, जिससे ये दोनों चिंताएं ख़त्म हो गईं? क्या आधार को लेकर संसद में लंबित बिल पास हो गया?

यही नहीं, प्रधानमंत्री ने 100 करोड़ नए कार्ड जल्द से जल्द बनाने का टारगेट भी दे दिया. इस मीटिंग के ठीक नौ दिनों बाद अरुण जेटली ने बजट पेश किया और यूआईडी की धनराशि 1550 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 2039 करोड़ रुपये कर दी. आश्‍चर्यजनक बात यह है कि मोदी-नीलेकणी की इस मुलाकात से ठीक दो दिन पहले यूआईडी को लेकर गृहमंत्री राजनाथ सिंह, सूचना तकनीक व क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद और योजना मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ एक मीटिंग की थी. इस मीटिंग का निष्कर्ष यूआईडी के ख़िलाफ़ था. इसके अलावा यह भी याद रखने की ज़रूरत है कि चुनाव जीतने के तुरंत बाद भाजपा के तत्कालीन प्रवक्ता प्रकाश जावेड़कर ने कहा था कि आधार योजना कों लेकर पार्टी की दो चिंताएं हैं. एक तो इसका क़ानूनी आधार और दूसरा सुरक्षा का मुद्दा. प्रकाश जावेड़कर अब मंत्री हैं. अब केंद्र में भाजपा की सरकार है. तो यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि आधार को लेकर सरकार ने ऐसे क्या ़फैसले लिए हैं, जिससे ये दोनों चिंताएं ख़त्म हो गईं? क्या आधार को लेकर संसद में लंबित बिल पास हो गया? क्या सुप्रीम कोर्ट का आख़िरी फैसला आ गया? क्या हमने लोगों के बायोमैट्रिक डाटा को विदेशी कंपनियों के सुपुर्द करना बंद कर दिया? क्या हमने विदेशी खुफिया एजेंसियों से जुड़ी कंपनियों को आधार योजना से अलग कर दिया? सरकार को यह बताना चाहिए कि आख़िर उसने ऐसा कौन-सा जादू किया है कि कल तक जो योजना ख़तरनाक थी, वह आज सही हो गई.
क्या देश के अख़बारों और टीवी चैनलों के संपादकों को देश के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पढ़ने की भी फुर्सत नहीं है. वे अंधों की तरह सरकारी प्रेस विज्ञप्ति रिलीज ऐसे छापते हैं, जैसे सरकार द्वारा भेजी गई हर प्रेस विज्ञप्ति आकाशवाणी हो, ब्रह्मसत्य हो. अख़बारों की इसी आदत के चलते पत्रकारिता की साख ख़त्म हो रही है. यही हाल देश की विपक्षी पार्टियों का है. क्या संसद में इस ग़ैर-क़ानूनी और ख़तरनाक योजना के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाई जाएगी? कांग्रेस पार्टी तो आधार योजना की जननी है, लेकिन जो लोग न भाजपा में हैं और न कांग्रेस में, वे क्यों चुप हैं? क्या यह उनका कर्तव्य नहीं है कि वे जनता के अधिकार के लिए संसद में आवाज़ उठाएं और सरकार से पूछें कि देशवासियों के पर्सनल सेंसिटिव डाटा विदेश भेजने का काम क्यों जारी है? क्या देश के सांसदों में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे पूछें कि आधार के नागरिक इस्तेमाल को सैन्य इस्तेमाल से क्यों जोड़ दिया गया, जबकि पिछली सरकार के दौरान विदेश, गृह एवं सूचना तकनीक की संसदीय स्थायी कमेटी आधार और बायोमैट्रिक जानकारियों के क्लाउड स्टोरेज के ख़तरे से आगाह कर चुकी है. सुप्रीम कोर्ट ने मना कर दिया है. संसदीय कमेटियों ने इसे ख़तरनाक करार दिया है. दुनिया के दूसरे देशों में यह योजना रोक दी गई है. इस विषय के जानकार और विशेषज्ञ लगातार चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन फिर भी आधार योजना जारी है और वह भी ग़ैर-क़ानूनी तरीके से. अब देखना यह है कि सर्वशक्तिमान सरकार के ख़िलाफ़ सच बोलने वाला देश में कोई बचा है भी या नहीं.

प्रधानमंत्री से दस सवाल
  • सुप्रीम कोर्ट ने आधार योजना को लेकर 23 सितंबर 2013, 26 नवंबर 2013 और 24 मार्च 2014 को एक के बाद एक ताबड़तोड़ तीन आदेश दिए. कहा, देश के नागरिकों पर आधार कार्ड जबरदस्ती नहीं थोपा जा सकता है. सरकार उक्त आदेशों की अवमानना क्यों करना चाहती है?
  • चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा ने कहा था कि उसकी सरकार आते ही इस योजना पर पुनर्विचार किया जाएगा. यूआईडी अथॉरिटी के चेयरमैन नंदन नीलेकणी से प्रधानमंत्री की मुलाकात होते ही भाजपा का स्टैंड क्यों बदल गया?
  • भाजपा के तत्कालीन प्रवक्ता प्रकाश जावेड़कर ने कहा था कि आधार योजना कों लेकर पार्टी की दो चिंताएं हैं. एक तो इसका क़ानूनी आधार और दूसरा सुरक्षा का मुद्दा. क्या उक्त चिंताएं अब ख़त्म हो गई हैं?
  • आधार को लेकर संसद में बिल लंबित है फिर यह योजना क्यों जारी है?
  • देशवासियों के पर्सनल सेंसिटिव डाटा को विदेश भेजा जा रहा है या नहीं ?
  • आधार के नागरिक इस्तेमाल को सैन्य इस्तेमाल से क्यों जोड़ दिया गया?
  • सरकार क्यों नहीं बताती कि इस योजना पर कितना पैसा खर्च होगा?
  • पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी ऑन इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी की साइबर सिक्योरिटी रिपोर्ट के मुताबिक़, क्या आधार योजना राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता कराने जैसा और नागरिकों की संप्रभुता और निजता के अधिकार पर हमला नहीं है?
  • आधार योजना लागू करने का काम सरकारी एजेंसियों की बजाय विदेशी कंपनियों के हाथों में क्यों है?
  • क्या ऐसी कंपनियां खुफिया एजेंसियों द्वारा नहीं चलाई जा रही हैं?

यही काम कांग्रेस की सरकार ने किया था. तब भाजपा के यशवंत सिन्हा के नेतृत्व वाली संसदीय कमेटी ने इसे ख़त्म करने की सलाह दी थी. चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता अनंत कुमार ने कहा था कि सरकार बनने के बाद भाजपा इस योजना को कूड़ेदान में फेंक देगी. लेकिन, आज उसी भाजपा ने आधार योजना को लागू कराने के लिए सारे नियम- क़ानून ताख पर रख दिए हैं. आधार कार्ड पर खरबों रुपये खर्च हो चुके हैं. आगे कितना खर्च होगा, इसका कोई पता नहीं है. आरटीआई के तहत भी यह नहीं बताया जाता कि इस योजना में कितना पैसा खर्च होगा. सबसे बड़ी बात यह है कि आधार कार्ड के नाम पर ग़ैर-क़ानूनी तरीके से देश के लोगों की पर्सनल बायोमैट्रिक इन्फॉर्मेशन्स इकट्ठा की जा रही हैं. इससे भी ज़्यादा ख़तरनाक बात यह है कि उक्त सारी जानकारियां विदेशी कंपनियों को सौंपी जा रही हैं. ऐसी कंपनियां, जिनका रिश्ता अमेरिका और फ्रांस की खुफिया एजेंसियों से है. देश की सरकार को तो ईनाम मिलना चाहिए कि संविधान और कोर्ट के रहते हुए वह एक ऐसी योजना लागू करने में सफल हो जाती है, जो न स़िर्फ ग़ैर-क़ानूनी है, बल्कि जिससे विदेशी खुफिया एजेंसियों के पास देश के लोगों की जानकारियां पहुंच जाने का ख़तरा भी है.
चौथी दुनिया लगातार आपको आधार कार्ड के ख़तरे से आगाह करता रहा है. जो ख़तरा पहले था, आज भी वही ख़तरा बना हुआ है. उक्त विदेशी कंपनियां देश के लोगों के बायोमैट्रिक डाटा को क्लाउड तकनीक के ज़रिये स्टोर करेंगी यानी इकट्ठा करेंगी. फरवरी 2014 में पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी ऑन इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी की साइबर सिक्योरिटी पर एक रिपोर्ट आई. इस रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई कि आधार योजना न स़िर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता है, बल्कि साथ ही नागरिकों की संप्रभुता और निजता के अधिकार पर हमला भी है. क्योंकि, जिस तरह से लोगों के बायोमैट्रिक डाटा को क्लाउड टेक्नोलॉजी के तहत स्टोर किया जा रहा है, उस पर देश की सरकार का कोई अधिकार नहीं है. देश का क़ानून उस पर लागू नहीं हो सकता है. अगर लोगों की जानाकरियां कॉपी भी हो गईं या कोई उन्हें हैक करके प्राप्त कर लेता है, तो उसके ख़िलाफ़ भारत कुछ करने की स्थिति में नहीं होगा. अब तो यह बात देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि जो डाटा एक बार देश के बाहर चला गया, उस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं रह जाता. डिजिटल डाटा की कॉपी बनाना न स़िर्फ आसान है, बल्कि इसमें समय भी नहीं लगता. यह कैसी सरकार है, जो क़ानून और संविधान के बाहर जाकर योजनाएं लागू कर रही है? और, देश का विपक्ष है, जिसमें स़िर्फ अभद्र भाषा के नाम पर संसद में हंगामा करने की अक्ल शेष है. यूआईडी जैसे संवेदनशील मामले में ये सब स्कूली बच्चों की भांति अनुशासित हो जाते हैं, मुंह से आवाज़ ख़त्म हो जाती है. क्या जनता अब यह समझ ले कि देश की संसद और उसके अंदर मौजूद सांसद विदेशी कंपनियों के गुलाम बन गए हैं? क्या यही संदेश देश की संसद देना चाहती है कि यहां राष्ट्र की सुरक्षा और जनता के अधिकार जैसे संवेदनशील मुद्दों के लिए कोई जगह नहीं है?
आइए, अब जरा देखते हैं कि यूपीए सरकार ने किस तरह देश की सुरक्षा और नागरिकों के अधिकारों के साथ समझौता किया और किस तरह मोदी सरकार उसी ख़तरनाक समझौते को मजबूत कर रही है. इस आधार योजना की खासियत यह है कि इसका काम सरकारी एजेंसियों से नहीं कराया जा रहा है. सरकार ये सारा काम देशी-विदेशी कंपनियों के हाथों में दे रही है. कार्ड बनाने से लेकर उसके ऑपरेशन तक का काम निजी कंपनियों के पास है. इनमें हर किस्म की कंपनियां हैं. कुछ कंपनियों की कहानी तो यह है कि समझौता करने के बाद वे किसी और कंपनी के साथ विलय हो गईं. यह एक अलग डराने वाला खेल है. लेकिन, फिलहाल हम देखते हैं कि यूपीए के सुपरमैन नंदन नीलेकणी ने क्या-क्या गुल खिलाए हैं. यूआईडी और एसेंचर कंपनी के बीच हुए समझौते का अनुच्छेद 15.1 कहता है कि इस अनुबंध के तहत एसेंचर सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड या एसेंचर सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड की टीम खरीददार या किसी तीसरे पक्ष या भारत के किसी भी निवासी की व्यक्तिगत जानकारी का उपयोग कर सकती है. कहने का मतलब यह कि इस करार के तहत विदेशी कंपनियां देश के लोगों के बायोमैट्रिक डाटा का इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र हैं.
इस समझौते में यूआईडी के ज़रिये देश के राष्ट्रपति को खरीददार बनाया गया है. अब सवाल यह है कि यूआईडी अथॉरिटी को किसने यह अधिकार दिया कि वह भारत के नागरिकों की तरफ़ से यह समझौता कर ले? यह सवाल इसलिए उठता है, क्योंकि इस अथॉरिटी को लेकर जो बिल संसद में लाया गया, वह अभी तक पास नहीं हुआ. समझौते के अनुच्छेद 15.1 में यह भी कहा गया कि एसेंचर कंपनी इस डाटा को सात सालों तक अपने पास रख सकती है. सात सालों में तो भारत के लोगों की बायोमैट्रिक जानकारियों की इतनी कॉपियां बन जाएंगी कि कोई यह भी पता नहीं लगा पाएगा कि ओरिजनल यानी असली किसके पास है. इसी तरह का समझौता एल-1 आईडेंटिटी सोल्युशन ऑपरेटिंग कंपनी के साथ कर लिया गया. इस कंपनी की वेबसाइट बताती है कि उसकी खासियत यह है कि उसमें अमेरिका की सैन्य एवं खुफिया एजेंसियों के सबसे अनुभवी लोग काम करते हैं. अब इस कंपनी का विलय फ्रांस की कंपनी साफ्रान में हो गया है. साफ्रान के रिश्ते चीन से भी हैं. बस गनीमत यही है कि यूआईडी से जुड़े डाटा पाकिस्तान नहीं जा रहे हैं.
अब जरा देखिए मोदी सरकार का कारनामा. दिल्ली के मंत्रालयों में अधिकारी समय पर पहुंचें, इसके लिए उन्होंने आधार को पिछले दरवाजे से यहां अनिवार्य बना दिया है. दिल्ली के मंत्रालयों में अब आधार कार्ड के ज़रिये उपस्थिति दर्ज कराने का प्रावधान किया जा रहा है. मतलब यह कि वर्तमान और भविष्य के सर्वोच्च अधिकारियों की सारी जानकारियां विदेश पहुंच चुकी हैं. और, जिनकी नहीं पहुंची हैं, सरकार उनके लिए स्टाल बनाकर उनके बायोमैट्रिक डाटा इकट्ठा कर रही है. विभिन्न मंत्रालयों में काम करने वाले अधिकारी नाराज़ हैं. लेकिन, जब सरकार को सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का ख्याल नहीं है, तो इन अधिकारियों की नाराज़गी की चिंता भला किसे होगी. यह व्यवस्था लागू कराने वाले राम सेवक शर्मा यूपीए सरकार के दौरान यूआईडीएआई के डायरेक्टर जनरल थे. फिलहाल वह डिपार्टमेंट ऑफ इलेक्ट्रोनिक्स एंड इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के सचिव हैं. वह यूआईडी से जुड़े मामलों के एक्सपर्ट हैं. लेकिन कमाल की बात यह है कि वह आज भी गूगल का ईमेल इस्तेमाल करते हैं. समझने वाली बात यह है कि गूगल द्वारा स्पष्ट किया जा चुका है कि गूगल मेल का इस्तेमाल लोग अपनी निजता का समर्पण करके ही कर सकते हैं. हो सकता है कि राम सेवक शर्मा के लिए राइट टू प्राइवेसी ज़्यादा महत्वपूर्ण न हो, लेकिन देश की जनता के लिए तो यह महत्वपूर्ण है. आप किस बात के एक्सपर्ट हैं, जो देश में अपना एक जी-मेल जैसा मेल सर्वर नहीं बना सकते. यह तो लानत भेजने वाली बात है. इस योजना को लागू करने का नतीजा यह है कि राम सेवक शर्मा ने देश की सेना से जुड़ी संस्थाओं में इसे लागू कराने के लिए चिट्ठी लिखकर भेज दी, जिसे उन्होंने अर्जेंट यानी अत्यंत महत्वपूर्ण बताया है. अब सवाल यह है कि इसे सेना से क्यों जोड़ा गया? सिटिजंस फोरम फॉर सिविल लिबर्टीज के गोपाल कृष्ण का कहना है कि यह योजना शुरुआत से ही एक सैन्य योजना है. इसे सबसे पहले अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस ने शुरू किया था. बाद में नाटो ने इसे अपनाया. सिविलियन रास्ते से इस योजना को डिफेंस में पहुंचना ही था. यूपीए सरकार के दौरान एडमिरल निर्मल वर्मा ने अपना कार्ड बनवाया था और अपने बायोमैट्रिक्स जमा कराए थे. आज एडमिरल वर्मा कनाडा में भारत के हाई कमिश्‍नर हैं. मतलब यह कि भारत के हाई कमिश्‍नर की निगरानी के लिए खुफिया एजेंसियों को ज़्यादा मेहनत करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि एडमिरल वर्मा की सारी जानकारियां अमेरिकी कंपनी एसेंचर के पास हैं. क्या यह चिंताजनक विषय नहीं है? सरकार को यह बताना पड़ेगा कि देश के नागरिकों के पास निजता का कोई अधिकार है भी या नहीं. अगर है, तो लोगों की व्यक्तिगत जानकारियां विदेशी कंपनियों और शत्रु देशों के पास भेजने का फैसला यूआईडीएआई ने किस अधिकार पर लिया?
अगर मोदी सरकार देश की सुरक्षा और भविष्य को लेकर जरा भी संवेदनशील है, तो वह आधार योजना पर पुनर्विचार करे. अगर नहीं, तो कम से कम इतना उपकार ज़रूर कर दे कि देश की जनता और संसद को बताया जाए कि इस योजना को किस क़ानून के तहत लागू किया जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन करने के पीछे कौन-सी वजह है? इससे पहले यह बताया जाए कि लोगों की आंखों की पुतलियों, अंगूठा निशान और बाकी बायोमैट्रिक जानकारियां किस क़ानून के तहत इकट्ठा की जा रही हैं? सरकार यह भी बताए कि लोगों के बायोमैट्रिक डाटा हम किन-किन देशों और कंपनियों को सौंपने का पाप कर रहे हैं. साथ ही उन कंपनियों के इतिहास के बारे में भी बताया जाए, जिन्हें खुफिया एजेंसियों के लोग चला रहे हैं. सरकार को यह बताना चाहिए कि वह आने वाले बीस सालों में इन कंपनियों को कितना फ़ायदा पहुंचाने का वादा कर चुकी है. बड़ी-बड़ी बातें करना आसान है, समाधान ढूंढना कठिन है. क्या हम भारत में एक मेल सर्वर नहीं बना सकते? क्या हम ऐसी व्यवस्था नहीं बना सकते, जिसमें देशवासियों के बायोमैट्रिक डाटा विदेश न भेजने पड़ें? इन तमाम सवालों के जवाब अगर सरकार के पास नहीं हैं, तो विपक्ष ही देश की जनता को सच्चाई बताए. अगर विपक्ष को भी नहीं पता है, तो संविधान और देश में क़ानून का राज ख़त्म करने के पाप में सत्ताधारी दल और विपक्ष, दोनों बराबर के हिस्सेदार होंगे.

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