bihar vidhansabhaमगध स्नातक निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव इस वर्ष मार्च अप्रैल माह में होने हैं. इसके लिए राजनीतिक गठजोड़ भी तेज हो गई है. एनडीए की तरफ से विधान परिषद के सभापति भाजपा नेता अवधेश नारायण सिंह का चुनाव लड़ना तय माना जा रहा है. पेच यूपीए में ही फंसेगा. जिस पर पूर्व विधान पार्षद डॉ. अजय कुमार सिंह एक बार फिर दावेदारी ठोकते नजर आ रहे हैं.

जबकि पूरे जोशो खरोश के साथ डॉ. पुनीत सिंह भी इसी गठबंधन के समर्थन के लिए जोर लगाए बैठे हैं. यहां बता देना जरूरी है कि डॉ. अजय कुमार सिंह पूर्व सहकारिता नेता सह सांसद स्वर्गीय तपेश्वर सिंह के बेटे हैं. जबकि डॉ. पुनीत बक्सर के पूर्व सांसद जगदानंद सिंह के पुत्र हैं. डॉ. अजय कांग्रेस की राजनीत करते हैं.

जबकि डॉ. पुनीत की माने तो वे अपने पिता जगदानंद सिंह के दल के कार्यकर्ता हैं. सवाल यह उठता है कि महागठबंधन इन दोनों नेताओं में से किसे अपना समर्थन देगा. शाहाबाद की राजद राजनीति में जगदानंद सिंह की पकड़ अभी भी पूर्ववत है. अगर डॉ. सुधीर क्षेत्र में अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं, तो इसमें कहीं ना कहीं जगदा बाबू की मौन सहमती जरूर रही होगी. परंतु अभी तक उन्होंने इस पर अपना मुंह नहीं खोला है. डॉ. अजय सिंह की

दावेदारी का आधार मगध स्नातक क्षेत्र की राजनीति पर पहले से रहे पकड़ को माना जाता है. इस सीट पर शुरू से ही कांग्रेस लड़ती रही है. इसलिए उसका दावा इस बार भी रहेगा. अब महागठबंधन के सबसे बड़े दल राजद के तर्कों को भी गठबंधन भर में सुना जाएगा. अगर दोनों दावेदार मजबूती के साथ खड़े दिखे तो महागठबंधन के सामने बहुत बड़ा धर्म संकट होगा. दोनों दावेदारों ने अब तक चुनाव में डटे रहने की बात हर मतदाता के सामने दुहराई है. अगर स्थिति यही रही, तो महागठबंधन के वोटो का बंदरबाट होना भी तय है.

डॉ. अजय को सवर्ण मतों में एक जाति विशेष का अच्छा आर्शीवाद प्राप्त है, जो इनके पिता स्वर्गीय तवेश्वर सिंह के समय से ही मिलता आया है. वे महागठबंधन उम्मीदवार के रूप में लाभ लेने का प्रयास करेंगे. डॉ. पुनीत की दावेदारी महागठबंधन के लिए पिछड़े मतो के ध्रुवीकरण में मजबूती प्रदान करेगी. ऐसे हालातो में पेच दोनों तरफ फंस रहे हैं. दावे भी शाहाबाद के दोनों राजनीतिक परिवारों की तरफ से मजबूती से पेश किए गए हैं. हालांकि भाजपा यहीं चाहती है कि हर हाल में महागठबंधन में दावेदारों की संख्या बढ़े.

वैसे हालात पैदा हुए तो मतो का बिखराव काफी तेजी से होगा. जो अवधेश नारायण सिंह को एक बार फिर सदन तक पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त करेगा. अवधेश नारायण सिंह की चुनावी तैयारी गति भी पकड़ चुकी है. लेकिन अभी तक एनडीए के घटक दल लोजपा, रालोसपा के दोनों गुट और हम की तरफ से इतनी सक्रियता देखने को नहीं मिल रही है. सिर्फ भाजपा ही वोटर बनाने से लेकर आवेदन पत्र जमा कराने तक की सक्रियता में दिख रही है. इधर डॉ. अजय और डॉ. पुनीत दोनों ही

दावेदारों के समर्थक महागठबंधन धर्म को आधार मानकर चुनाव की तैयारी में जुटे हुए हैं. अगर यह गति अंत तक बनी रहे, तो महागठबंधन का अक्रामक रुख इसके वोटरों को एक तरफ केंद्रित करेगा. भाजपा धीरे-धीरे अपने चुनाव अभियान को गति देने में जुटी हुई है. डॉ. अवधेश नारायण सिंह के अलावा डॉ. अजय और डॉ. पुनीत ही दो ऐसे नाम हैं, जो अभी तक सामने आए हैं. इनके समर्थक पिछले दो महीने से चुनाव की तैयारी में जुटे हुए हैं. दावेदार भी एक-एक वोटर तक पहुंचने के प्रयास में हैं. गौरतलब है कि ये तीनों ही

दावेदार शाहाबाद प्रक्षेत्र से आते हैं. इसमें से एक डॉ. पुनीत कैमूर जिला अंतर्गत रामगढ़ विधान सभा क्षेत्र व बक्सर लोक सभा क्षेत्र से हैं. जबकि डॉ. अजय और अवधेश नारायण सिंह भोजपुर जिला अंतर्गत आरा संसदीय क्षेत्र से संबंधित हैं. अभी मगध क्षेत्र के अन्य जिलों गया औरंगाबाद आदि से दावेदारों की सक्रियता मुखर होकर सामने नहीं आई है. अगर एनडीए और महागठबंधन की तरफ से इस क्षेत्र में दावेदारों की संख्या बढ़ी, तो राजनीतिक पेच और उलझेगा. जातिय समीकरण बनेंगे और बिगड़ेंगे. गठबंधन का आधार भी बिखरेगा.

दावेदारों के प्रति व्यक्तिगत रंजीश भी इस चुनाव में रंग दिखा सकता है, क्योंकि फिलहाल सामने आए तीनों नामों की पुरानी राजनीतिक पहचान रही है. इसमें बढ़ते दोस्तों के बीच दुश्मनों की संख्या काफी बड़ी है. भाजपा में भी भीतरघात से इंकार नहीं किया जा सकता. क्योंकि बिहार विभाजन के बाद इस क्षेत्र का लगातार दो बार प्रतिनिधित्व कर चुके अवधेश नारायण सिंह को भी इस बार कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा.

हाल के दिनों में काफी तेजी से शाहाबाद प्रक्षेत्र की राजनीत ने करवट ली है. महागठबंधन और एनडीए में कई नए राजनीतिक छत्रपों का उदय हुआ है. जिनकी इस चुनाव में परदे के पीछे से अहम भूमिका होगी. मसलन रामगढ़ में ही राजद द्वारा अपना सीट खो देने से वहां भाजपा की स्थिति मजबूत हुई है.

वहीं रोहतास के नोखा और सासाराम में भाजपा की हार से इसकी स्थिति कमजोर हुई है. कैमूर में चारो विधानसभा सीटों पर भाजपा की जीत ने वहां पर इस चुनाव में महागठबंधन के लिए बड़ी चुनौतियां खड़ी की है. हर विधायकों के लिए प्राथमिकता होगी कि वह विधानसभा से संबंधित प्रत्याशी को जीत दिलाए. कैमूर को छोड़कर शाहाबाद के बाकी तीन जिलों से एनडीए के पांव गत विधानसभा चुनाव में उखड़ गए थे. अगर यह आधार रहा तो इस चुनाव में महागठबंधन को लाभ मिलेगा.

लेकिन यह लाभ तभी संभव है, जब यूपीए की तरफ से किसी एक उम्मीदवार को समर्थन हो. अगर डॉ. अजय और डॉ. पुनीत दोनों मैदान में आए, तो मतो का बंटवारा तय है. इधर विधानसभा चुनाव में हार के बाद भाजपा ने भी समीक्षात्मक बैठकों में अपनी स्थिति मजबूत करने का प्रयास किया है. भाजपा का प्रयास होगा कि किसी तरह एनडीए के मतो का बिखराव न हो, पिछले विधान परिषद चुनाव वाले मतों को एकत्रित रखा जाए और यूपीए के मतो में सेंधमारी की जाए.

अगर ऐसा हुआ तभी एनडीए की जीत सुनिश्चित हो पाएगी. हालांकि जदयू ने अभी तक इस चुनाव में अपनी कोई गतिविधि नहीं दिखाई है. जबकि उद्योग मंत्री जयकुमार सिंह और संतोष निराला की भूमिका इस चुनाव में अहम होगी. सपा की राजनीति में सक्रिय दिख रहे रोहतास के पुराने दिग्गज रामधनी सिंह की नजदीकियां भाजपा नेता राजेंद्र सिंह से बढ़ी है. इसका यहां चुनाव में कैसा असर होगा, यह कहना अभी जल्दीबाजी होगी. क्योंकि वोटरों में रामधनी सिंह की पैठ भी काफी मजबूत है. रोहतास के एकलौते

चेनारी सुरक्षित विधान सभा से रालोसपा के ललन पासवान की सक्रियता स्नातक चुनाव में पिछली बार भी देखी गई थी. इन्होंने काफी मेहनत भी किया था. देखना यह है कि इस सक्रियता का लाभ इस बार एनडीए को मिलता है या नहीं. इस बार का मगध स्नातक चुनाव इसलिए भी दिलचस्प होगा क्योंकि अभी से ही भाजपा, राजद और कांग्रेस की दावेदारी मजबूती से सामने आई है.

अन्य दल जिसमें जदयू, लोजपा, रालोसपा आदि अभी चुप्पी साधे बैठे हैं. वैसे इस चुनाव में मगध स्नातक क्षेत्र गठबंधन धर्मों को तोड़ भी सकता है. सभी प्रत्याशियों को भीतरघात का सामना करना पड़ेगा. जातिय गोलबंदी पर धन बल के भारी पड़ने की उम्मीद है. पूरे विधान परिषद क्षेत्र के बीचोबीच गुजरने वाली विभाजक सोन नदी की रेखा यहां भाषा की अंतर भी पैदा करती है. शाहाबाद प्रक्षेत्र में खाटी भोजपुरी तो सोन के इस पार मगध क्षेत्र में खाटी मगही बोली जाती है.

भाषा का अंतर भी अगर राजनीतिक धु्रवीकरण का आधार बना तो लड़ाई और भी दिलचस्प होगी. जहां सबके लिए एक-एक मत के अंतर भारी पड़ेंगे. अभी तो सिर्फ भोजपुरी भाषायी क्षेत्र से ही मजबूत नामों की चर्चा सामने आई है. एनडीए में अगर अंतर विरोध को बाद के समझौतों के आधार पर समाप्त मान लिया जाए, तो भी यूपीए में यह संकट सामने आ सकता है. देखना यह है कि पिछले लोकसभा और विधान सभा चुनाव के बाद बिहार में बदले राजनीतिक समीकरणों के बीच इस बार अवधेश नारायण सिंह के लिए राहें कितनी आसान हो पाती हैं. फिलहाल दावेदारों की दावेदारी हर गठबंधन के लिए सरदर्द का कारण बनी है.

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