उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जनपद में मैला ढोने की प्रथा आज भी जारी है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान में जहां हजारों करोड़ रुपए पानी की तरह बहाए जा रहे हों, वहां मैला ढोने की प्रथा का जारी रहना वाकई कलंक की बात है. मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के लिए 1993 में सफाई कर्मचारी नियोजन एवं शुष्क शौचालय सन्निर्माण अधिनियम-1993 बना, लेकिन जमीनी स्तर पर इसे लागू करने की मशक्कत नहीं की गई. इस कानून में मैला ढोने में लगे स्वच्छकारों और उनके आश्रितों के पुनर्वास के लिए स्वच्छकार विमुक्ति पुनर्वास योजना भी चलाई गई, लेकिन वह भी अपना लक्ष्य नहीं पा सकी.
बाद में इस कानून में संशोधन करते हुए संसद ने वर्ष 2013 में हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनके पुनर्वास का कानून बनाया. यह प्रावधान लाया गया कि मैला ढोने वाले स्वच्छकारों और उनके आश्रितों की सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति का अध्ययन कराके भारत सरकार इस पर आवश्यक कार्रवाई करेगी. इन संसदीय और शासनिक औपचारिकताओं के समानांतर जमीनी सच्चाई यही है कि यूपी के लखीमपुर खीरी जिले के कई गांवों में आज भी मैला ढोने की कुप्रथा जारी है. पसगवां ब्लॉक के औरंगाबाद गांव का उदाहरण सामने आया है, जहां 350 से अधिक घरों में कमाऊ शौचालय हैैं और उसका मैला वहां के स्वच्छकारों द्वारा साफ कराया जाता है. इस सफाई के बदले में उन्हें महज 50-60 रुपए प्रतिमाह मिलते हैं या पांच-छह पसेरी छमाही धान या गेहूं देकर काम कराया जाता है.
महादलित परिसंघ के राष्ट्रीय महासचिव चन्दनलाल वाल्मीकि और कला-साहित्य प्रकोष्ठ के अध्यक्ष श्याम किशोर बेचैन ने मौके पर जाकर मैला सफाई की हकीकत खुद अपनी आंखों से देखी. सफाई करने वाले लोगों के लिए न कोई रहने की व्यवस्था है और न स्वास्थ्य, शिक्षा या दूसरे जरूरी इंतजाम. पता चला कि जिला पंचायत राज अधिकारी ने पहले सर्वे में मात्र पांच ब्लॉकों लखीमपुर, पसगवां, मोहम्मदी, कुम्भी और बांकेगंज बेहजम के 13 गांवों में मैला ढोने की कुप्रथा जारी रहने की झूठी रिपोर्ट शासन को भेज दी. उस रिपोर्ट के आधार पर 70 लोगों का पुनर्वास किया गया. बाद में मुख्य सचिव के निर्देश पर लखीमपुर के जिलाधिकारी ने दूसरा सर्वेक्षण कराने का आदेश जारी किया. दूसरे सर्वेक्षण में भी जिला पंचायत राज अधिकारी ने यह रिपोर्ट दे दी कि जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में कहीं भी मैला ढोने वाले स्वच्छकार नहीं हैं.
चंदन लाल वाल्मीकि ने बताया कि जन जागरण अभियान टीम ने गांव-गांव जाकर मैला ढोने के काम का सर्वेक्षण किया और जिला पंचायत राज अधिकारी की रिपोर्ट के आधिकारिक झूठ का खुलासा किया. झूठी रिपोर्ट के कारण ही कई गांवों में मैला ढोने का काम जारी है और स्वच्छकारों का पुनर्वासन नहीं हो पा रहा है. लखीमपुर खीरी के मगरैना, कलुआमोती, पतवन औरंगाबाद, नकारा, धमौला, गुलौली, बगरैठी, नया गांव जाट, किरयारा, माना खेडा इब्राहीमपुर, मुडिया चूड़ामडी जैसे गांवों में जहां अभी भी मैला ढोने की कुप्रथा जारी है, वहां जन जागरण अभियान चलाया जा रहा है.
इस अभियान को तेज करने के लिए पिछले दिनों जिला मुख्यालय पर मैला उठाने वाली डलिया फुंकने का कार्यक्रम और प्रदर्शन किया गया, साथ ही मुख्यमंत्री को संबोधित ज्ञापन जिला प्रशासन को सौंपा गया. मैला ढोने की कुप्रथा समाप्त करने की मांग पर डॉ. भीम राव अम्बेडकर इंटर कॉलेज कमलापुर की छात्र-छात्राओं ने भी रैली निकाल कर स्वच्छ भारत मिशन के कार्य में सहयोग देने और मैला ढोने की प्रथा समापत करने का संकल्प लिया.
यूपी के कई अन्य जिलों में भी मैला ढोने की कुप्रथा आज भी जारी है. बुंदेलखंड के सात जिलों में आज भी सिर पर मैला ढोने का काम हो रहा है. बुंदेलखंड के माथे पर लगे इस कलंक को हटाने का कोई प्रयास नहीं हो रहा. विडंबना यह है कि प्रतिबंध के बावजूद खुद स्थानीय निकायों ने ही शुष्क शौचालय से मल साफ कराने के लिए संविदा पर महिलाओं को लम्बे समय तक तैनात कर रखा है. अभी पिछले ही साल दिसम्बर महीने में बुंदेलखंड क्षेत्र की उन महिलाओं ने लखनऊ आकर विधानसभा भवन के सामने जोरदार प्रदर्शन किया था, जो आज भी अपने सिर पर मैला ढोने के लिए विवश हैं.
उन महिलाओं ने हजरतगंज में बनी गांधी प्रतिमा के सामने भी प्रदर्शन किया. बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच के नेतृत्व में मैला ढोने वाली जालौन जिले की सैकड़ों महिलाओं ने इस प्रर्दशन में हिस्सा लिया था. प्रदर्शनकारी महिलाओं ने हैरत जताई थी कि वर्ष 2013 में मैला ढोने की कुप्रथा पर पाबंदी लगा दी गई, उसके बावजूद बुंदेलखंड में यह कुप्रथा क्यों जारी है? मंच के संयोजक कुलदीप बौद्ध ने तभी कहा था कि जालौन के दो ब्लॉक महेबा और कदौरा में 276 महिलाएं मैला ढोने का काम कर रही हैं.
बुंदेलखंड विश्वविद्यालय ने भी अपने स्तर पर सर्वेक्षण कराने के बाद यह दावा किया है कि बुंदेलखंड के कई जिलों में सिर पर मैला ढोने का काम हो रहा है. बुंदेलखंड विश्वविद्यालय की टीम ने कई जगहों पर पहुंचकर इसका जायजा लिया और इस कुप्रथा के उन्मूलन का अभियान चलाया. बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के डॉ. सुनील काबिया ने बताया कि छात्रों ने शहर के सीपरी बाजार, नगरा, प्रेमनगर, ईसाई टोला, तालपुरा, लक्ष्मीगेट बाहर, तलैया, रानीमहल, नानक गंज गरिया गांव, खिरक पट्टी, भट्टा गांव आदि क्षेत्रों का सर्वे किया, जहां आज भी कमाऊ शौचालय हैं. एक तरफ झांसी को स्मार्ट सिटी घोषित कराने का प्रयास किया जा रहा है, वहीं यह अमानवीय कुप्रथा अभी भी चल रही है. डॉ. काबिया के नेतृत्व में विश्वविद्यालय के छात्रों की दस सदस्यीय टीम इस दिशा में काम कर रही है.
राष्ट्रपति के गृह जनपद में भी जारी है यह कुप्रथा
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के गृह जनपद कानपुर देहात में भी सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा आज तक जारी है. स्वच्छता अभियान चलाने वाले देश में इस कुप्रथा का जारी रहना दुखद भी है और आश्चर्यजनक भी. विडंबना यह है कि सुप्रीमकोर्ट की ओर से भी इस चलन को अविलंब प्रभाव से रोकने के तमाम निर्देश जारी होते रहे हैं, लेकिन कानपुर देहात समेत प्रदेश के कई जिलों की स्थिति वैसी ही बदतर है. सिर पर मैला ढोने वाली महिलाओं को महीने में अधिक से अधिक 50 रुपए ही मिल पाते हैं. कानपुर देहात के बेनीपारा गांव में तो किसी भी घर में पक्का शौचालय नहीं है. कानपुर देहात के अधिकांश घरों के बाहर बस पर्दा लगा कर शौचालय का काम होता है और वाल्मीकि समाज के लोग डलिया से गंदगी उठाने का काम करते हैं.